लीलाधर जगुड़ी का जन्म 1 जुलाई, 1944 में उत्तरप्रदेश के टिहरी जिले के धंगण गाँव में हुआ| 10 वर्ष की अवस्था में अपने परिवार को छोड़कर राजस्थान चले गये, कई वर्षों तक वे राजस्थान में घूमते रहे | 1961 में भारतीय थल सेना में सिपाही के रूप में भरती हो गये, भारत-चीन युद्ध में भी भाग लिया, लेकिन विद्रोही स्वभाव के कारण वे नौकरी में स्थिर नहीं रहे | नौकरी न होने के कारण आर्थिक अभाव में उन्हें जीवन गुजारना पड़ा, बहुत ही मानसिक तनाव में रहते थे| बनारस के एक महाविद्यालय में नौकरी भी किये, परन्तु अपने स्वभाव के कारण यहाँ भी शिक्षक आन्दोलन में निरंतर भाग लेते रहे, अत: कई बार जेल भी जाना पड़ा| वहाँ से भी त्यागपत्र देकर लखनऊ आ गये, यहीं से काव्य- सृजन में प्रवृत्त हुए|
कृतित्व–  लीलाधर जगुड़ी ने 9 काव्य संग्रह का सृजन किया | 
1- शंखमुखी शिखरों पर 2. नाटक जारी है 3. इस यात्रा में 
  1. राज अब भी मौजूद है 5. बची हुई पृथ्वी 6. घबराये हुए शब्द
  2. 7 – भय भी शक्ति देता है 8. अनुभव के आकाश में चाँद 9 – महाकाव्य के बिना |
जगुड़ी जी के काव्य शीर्षक समकालीन कविता के अनुरूप हैं | इनके काव्य में युगीन चेतना सर्वत्र दिखाई देती है | शोषक वर्ग को द्वस्त करने कि इच्छा से इनकी कवितायेँ अनुप्राणित है | युग-चेतना एक ऐसा विषय है, जो प्रत्येक रचनाकार के साथ जुड़ा जुआ है | समकालीन कविता में युग-चेतना सर्वत्र दिखती है| जगुड़ी जी कहते हैं- 
देखो इस देश कि हर सड़क 
तिजोर तक जाती है |
और तुम्हारे लिए पोस्टकार्ड की 
कीमत बढ़ जाती है | (1)
लीलाधर देश के शोषित जनता के दुःख से दुखी है, चूँकि वे स्वयं गरीबी में रहे है, तो उसे मन से महसूस करते है, अर्थ का अभाव किस तरह व्यक्ति को तोड़ देता है, वे अच्छी तरह जानते है| देश के साँप रूपी पूंजीपतियों एवं शासकों ने अपने निजी स्वार्थ के लिए वस्तुओं को गोदाम में छिपा रखा है| जिससे सामान कि कमी होने पर दोगुने भाव में बेच सके| भूखा व्यक्ति कुछ भी कर सकता है भूख की वेदना सभी की एक समान है, चाहे आमिर हो या गरीब- 
“एक चिड़ियाँ की भूख,
एक चींटी कि भूख,
एक हाथी की भूख 
भूख चाहे किसी की हो,
मार एक है| (2)
एक प्रतिबद्ध और सृजनशील रचनाकार जगुड़ी के व्यक्तित्व में निहित है| सामाजिकता के साथ-साथ धार्मिक पहलू को भी कवि ने अंकित किया है| इस धार्मिकता की आड़ में भी गरीब जनता का शोषण होता है-
“मंदिर में लगभग मैं घूसा 
और ईश्वर बीस रुपये 
तक वाला ईश्वर,
मुझसे नहीं ख़रीदा जा सकेगा|”(3)
कवि आम आदमी के अधिकारों के पक्षधर हैं, उनका समस्त रचना संसार सामजिक विद्रूपताओं पर प्रहार करता है| पूँजीवादी शासन पर प्रहार करते है| समस्या के साथ-साथ समाधान भी देते हैं- 
“एक बच्चा पैदा होने का मतलब,
कि एक आदमी जवान होगा,
लड़ेगा और न्याय जिनका स्वार्थ है,
उनको पराजित करेगा|” (4) 
कवि अति आत्मविश्वास से भरा है, पूरी धरती पर पाटा चलाकर समतल करने कि बात करता है| कवि का मन विद्राह कर उठता है- 
‘उदास लोगो,
उठो और फैलसा दो,
उठो और जिसने तुम्हे कुचला था
उसे घोड़े की नाल बना दो| (5)
कवि का एक और विद्रोही रूप सामने आता है| आम आदमी के हक़ के लिए लड़ते हैं| समकालीन कविता में यही जीवन का यथार्थ सभी में दिखाई देता है| 
आम आदमी कि व्यथा से दुखी है, कह रहे है कि आम आदमी का हक छिना जा रहा है, वे उन्हें सचेत करते है-
“वे केवल खा रहे है,
विना ये जाने कि 
ये रोटियाँ कहाँ से 
आ रही हैं|
और अगर ये सब्जियाँ हरी है,
तो वे लोग कैसे हैं,
जो इन्हें उगाते हैं| (6)
यह वर्ग जन्म से ही सब्जी और रोटी उगाने वाला है| यही वर्ग हर मुसीबत में रोटी खाने वालों की रक्षा अपने प्राणों की बाजी लगाकर करता है| कवि जगुड़ी ऐसे ही सर्वहारा वर्ग के कवि हैं, उनकी रक्षा करना अपना पुनीत कर्त्तव्य मानते हैं| मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित होने के कारण, कवि के मन में सर्वहारा वर्ग के लिए एक पीर है, उनके संगठन कि बात करते हैं, कहते हैं- 
“जब हम जलते है तो हमारी राख, 
अलग से नहीं देखी जा सकती 
जब हम जलेंगे तो धरती 
दूर से ही काली दिखाई देगी,
काली और उपजाऊ |”(7)
कवि जन-क्रांति की बात करता है| क्रांति के बाद समाज में एक रसता, एकरूपता की कल्पना करता है| पूँजीवादी व्यवस्था खत्म होने के बाद ही समाज खुशहाल होगा, ऐसा सोचते हैं|
रचनाओं में सृजनधर्मिता है, कवि समकालीन सरोकारों से भरा है| संकल्प देखिये- 
“पानी की नोंक पर ओस के फूलपर 
सूर्य को बिठाऊंगा मैं|
हर रोज सूर्यमुखी होकर
तपूंगा मैं| (8)
यह कवि की समकालीन चेतना ही है, जो क्रांति का बिगुल बजा रही | विद्रोह के लिए ललकार रही है| समाज की भ्रष्ट व्यवस्था अच्छे-अच्छे लोगों को पागल बना देती है, कवि कहते हैं-
‘यह केवल अफवाह नहीं,
बल्कि ज़िंदा होने कि शर्त है,
देश में कुछ लोग 
पेट से ही पागल होकर आ रहे हैं|” (9)
आजादी केवल ढोल पीटती है, नाममात्र की भारत में आजादी है| कवि कहता है- 
‘सवाल पेड़ होने का नहीं है,
बह तो सिर्फ एक नाम है, 
जैसे की ‘आजादी’
नाम में क्या रखा है |’ (10)
वास्तव में जगूड़ी की कवितायेँ समकालीन यथार्थ बोध की कवितायेँ हैं, जीवन की विद्रूपता को सबके सामने उपस्थित करने की कोशिश है| पूंजीपतियों के नकाब उतारने की कोशिश है| कविता की भाषा भी जन जीवन की भाषा है| युग का साक्षात्कार कराने की सामर्थ्य रखती है| कहीं-कहीं ग्रामीण शब्दों का भी प्रयोग किया है|
इनके काव्य में जीवन-संघर्ष की झलक है,म सर्वहारा वर्ग की घुटन है, दुःख है, संत्रास है| शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने का कार्य अपनी कविताओं के माध्यम से किया है| जगूड़ी लोक कवि है, लोक के साथ जुड़कर, उनके मनोभावों को अपने कलम से लिखते है, कल्पना नहीं यथार्थ कविता में सर्वत्र दिखाई देती है| 
सन्दर्भ सूची- 
  1. लीलाधर जगूड़ी – नाटक जारी है- पृ. 48  
  2. लीलाधर जगूड़ी – बची हुई पृथ्वी, पृ. 61 
  3. हिन्दी के आधुनिक प्रितिनिधि कवि – पृ. 211 
  4. पृ. 211 
  5. लीलाधर जगूड़ी, नाटक जारी है, पृ. 15 
  6. लीधर जगूड़ी, इस यात्रा में पृ.  41 
  7.  समकालीन कवि: लीलाधर जगूड़ी, पृ. 50 
  8. लीलाधर जगूड़ी, रात अब भी मौजूद है, पृ. 53 
  9. बची हुई पृथ्वी, पृ. 144 
  10.  लीलाधर जगूड़ी – घबड़ाये हुये शब्द, पृ. 34  

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