सांकेतिक चित्र
एक लंबी गुलामी की जिंदगी के बाद आज़ादी की खुशी भीषण गर्मी में शीतल पेय की तरह लगी। अमृत तुल्य सुखानुभूति। पर अंग्रेजों की फूट डालो राज करो की नीति ने जाते-जाते देश के बीच एक कभी ख़त्म न होने वाले बँटवारे के जिस विष का बीज बोया वह अमर बेल की तरह पनप गया, और उसका विष आज भी लोगों के मन से निकल नहीं  पाया। बँटवारा चाहे  परिवार का हो या देश का, यह ऐसी विडंबना है कि संवेदनाएँ शून्य हो जाती हैं। सम्बन्धों के प्रति अविश्वास की स्थिति अंतर्मन के प्रेम को खत्म कर नफ़रत पैदा कर देती है। नफ़रत किस रूप में अपनी प्रतिक्रिया देगी यह अकल्पनीय ही होता है, संभवतः भयावह भी।
कोई  भी युद्ध अपने पीछे जो तबाही छोड़ कर जाता है, उस उजाड़ को बसने-बसाने में वक्त लगता है। एक सिपाही  की मृत्यु से न जाने कितने रिश्ते प्रभावित होते हैं, टूटते हैं और बिखेरते हैं। इसलिए जहाँ तक हो सके पारिवारिक विवाद हो या युद्ध; उसको टालना ही चाहिये, युद्ध के होने की स्थिति से बचने का प्रयास करना ही चाहिये ताकि परस्पर  सौहार्द्र बना रहे। युद्ध की स्थिति में नुकसान सदा आमजन को ज्यादा प्रभावित करते हैं और उसके दूरगामी दुष्परिणाम से कोई भी लंबी अवधि तक मुक्त नहीं हो पाते। 
यह 1971 की लड़ाई की कहानी है,ये उन जवानों और अधिकारियों के द्वारा सुनाई गई है, जो  स्वयं उस लड़ाई में  शामिल थे। हमारे दो सगे मौसेरे भाई उस समय मिलिट्री में थे, स्व.मेजर चितरंजन चौधरी, इन्होंने भी 1965 व 1971 की लड़ाई लड़ी पर 1971 में यह सियालकोट की ओर थे। रिटायर्ड कर्नल महेन्द्र प्रताप चौधरी उस समय कैप्टन थे और राजस्थान क्षेत्र से लड़ाई में सम्मिलित थे। इन्होंने 1965 की लड़ाई भी लड़ी और अमृतसर का ऑपरेशन ब्लू स्टार भी इनकी अगुआई  में  हुआ। 
दुःख तो इसी बात का है कि जो शख्स बाहरी दुश्मनों से लड़कर सुरक्षित बच गया उसे ऑपरेशन ब्लू स्टार में आतंकवादियों की कंधे से होती तीन गोलियों ने ऐसा घायल किया कि फिर स्वस्थ ही नहीं रह पा रहे। 3-4 ऑपरेशन हो चुके। 
1971 का युद्ध एक ऐतिहासिक युद्ध था जो तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी के समय में और उनके आदेश से लड़ा गया। इसमें भारतीय सेना ने लगभग 13000 वर्ग मीटर पाकिस्तानी जमीन पर कब्जा कर लिया था। इस युद्ध का वीडियो हमने जिस तरह देखा व सुना, एक-एक शब्द वैसा ही लिखा है।
The chachro raid of 1971
1971 के अप्रैल-मई में भारतीय उपमहाद्वीप पर युद्ध के बादल मँडराने लगे थे। भारतीय सेना ने जब अन्य विकल्पों पर विचार किया और दिसम्बर 1971 में वास्तव में युद्ध की घोषणा की गई तो भारतीय सेना ने अपनी सेनाएँ लेकर पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान पर चढ़ाई कर दी। पश्चिमी पाकिस्तान में ऑपरेशन के दो मुख्यालय थे। एक पाकिस्तान के पंजाब इलाके में था जहाँ झाड़ियों के कारण पाकिस्तानी सैन्यदल अपना बचाव आसानी से कर सकता था और दूसरा सिंध के खुले मैदान में था जो वाहन आधारित कमांडो ऑपरेशन के लिए एक सही इलाका था। इस प्रकार अजमेर के पास नसीराबाद में 10 पैरा कमांडोज को, जिन्हें ऐसे कामों के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षण दिया गया था, उन्हें पाकिस्तान के अंदर घुसकर सैन्य के महत्वपूर्ण, जो सबसे साहसिक छापे मारने का मौका दिया गया वह उन्होंने बखूबी पूरा किया। टेल्स ऑव वेल्लोर में 1971 में मारे गए छापे की वही साहसिक कहानी है।
1965 में पाकिस्तानी सेना ने राजस्थान सेक्टर में भारत से हुए युद्ध में चौंका दिया। क्योंकि भारतीय रेगिस्तानी सीमा पर सेना और सशस्त्र पुलिस यूनिट एक दूसरे से काफी अलग-अलग व दूर-दराज़ इलाकों में थी। पाकिस्तानी सेना व पाकिस्तानी रेंजर्स को भी पोस्ट्स ढूँढने में बहुत मुश्किल हुई। पाकिस्तानी सेना सिंध के हजारों अनुयायियों वाले सूफी संप्रदाय फोर्स तक पहुँच गई, जिन्हें राजस्थान के चप्पे-चप्पे की जानकारी थी और वे कट्टर योद्धाओं के रूप में जाने जाते थे। 
पाकिस्तानी जनरल्स ने इन्हें भारतीय सेना के खिलाफ़ उतारने के लिए पाकिस्तान के पीर पागारा से अपील की। उन्हें पाकिस्तान डिफेंस में मौजूद  खाली जगह भरने के लिए इस्तेमाल किया गया। लेकिन स्थानीय कमांडर्स को जल्द ही महसूस हो गया कि सीमा पार छापेमारी के लिए उर्स ज्यादा बेहतर साबित होंगे, और इस प्रकार 1965 के युद्ध के दौरान उर्स की एक डिजर्ट फोर्स भारतीय क्षेत्र में गहरे छापे मारने लगी।
3 दिसंबर 1971, शाम 5 बज कर 40 मिनट पर पाकिस्तानी वायु सेना ने भारत के 11 हवाई अड्डों को निशाना बनाते हुए तोप के हमलों के साथ कश्मीर में भारतीय पोस्ट्स पर हमले की शुरुआत की। भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी ने उसी शाम देश को संबोधित करते हुए पाकिस्तानी हमलों को युद्ध की घोषणा करार दिया। 
1971 के भारत-पाक युद्ध की औपचारिक शुरुआत हो गई और भारत के सशस्त्र बल पाकिस्तानी घुसपैठ का मुकाबला करने युद्ध में चले गए। भारत के पूर्वी मोर्चे पर भारतीय सेना मुख्य रूप से बंगाली सैन्य के साथ युद्ध में शामिल हो गई ताकि पाकिस्तानी सेना द्वारा हुए नरसंहार को रोका जा सके। 
भारतीय सेना का एक ऑपरेशन ऐसा भी था, जिसे आने वाले दशकों के लिए याद किया जाएगा, जिसकी शुरूआत पाकिस्तान से लगी राजस्थानी सीमा से होने वाली थी। पश्चिम मोर्चे पर भारत का उद्देश्य अपनी साहसी व निर्णायक कमान्डो की छापामारी से दुश्मन को हैरान करने का था। उनकी आपूर्ति लाइनों पर हमला करने के लिए उनके क्षेत्र से 80 किलोमीटर अन्दर उनके अड्डों पर अपने 10 पैरा कमान्डोज भेज कर भारत में दुश्मन के अन्दर खौफ़ पैदा कर दिया। उनका निशाना था- पाकिस्तान में स्थित पाकिस्तानी रेंजर स्पेस ‘चाचरो!’ 
चाचरो में रेंजर कंपनी और रेंजर का मुख्यालय था। चाचरो छापे का असली मकसद दुश्मन पर चोट करते हुए उसके अन्दर खौफ़ पैदा करना और चाचरो को कमजोर करना था। क्योंकि वे कमजोर पड़ गए थे। उनकी कम्युनिकेशन्स लाइन कट गईं थीं और भारतीय सेना जितनी ज्यादा हो सके तेजी से जाकर चाचरो पर कब्जा कर सकती थी। 
भारतीय सेना के एक डिवीजन को सिंध में हैदराबाद महानगर के एक शहर उमरकोट की ओर भेजा गया। 10 पैरा कमान्डोज़ के एक दस्ते को आगे बढ़कर दुश्मन के अड्डों  को खत्म करने के लिए पाकिस्तानी क्षेत्र के अंदर छापामारी करने का काम सौंपा गया था। जुलाई 1971 से यह कमान्डोज़ इस तरह ऑपरेशन के लिए गहन प्रशिक्षण ले रहे थे। इस कमान्डोज़ बटालियन का नेतृत्व लेफ्टिनेंट कर्नल सवाई भवानी सिंह ने किया था जो स्पेशल फोर्सेज में एक कमान्डिंग ऑफिसर और जयपुर के तत्कालीन राजकुमार थे।
रिटायर्ड कर्नल महेंद्र प्रताप चौधरी के अनुसार- “जोधपुर पहुँचने के बाद, हालांकि सामान्य प्रशिक्षण चल रहा था! एक दिन हमने पाया कि कर्नल भवानी वहाँ थे ही नहीं। वे दरअसल ऑफिस नहीं आए थे। वे पिछले 2 दिन से नहीं आ रहे थे, और हर कोई हैरान था कि सी.ओ. कहाँ हैं? जिस दिन वे आए थे, उससे अगले दिन लगभग 11 बजे की बात है कि यकायक जोर का शोर करते वहाँ पर लगभग 93 वाहन आए जिनमें कोई 80 जीप्स थीं, 3 एक्स्ट्रा 3 टन व 6 एक टन शामिल थे। वो सभी हमारे पास पहुँच गए। ड्राइवरों ने कहा कि हमें आदेश दे दिए गए हैं कि हमें इन्हें 10 पैरा कमान्डो में छोड़कर आना है।’
रिटायर्ड ब्रिगेडियर भवानी सिंग की पत्नी के अनुसार-
“मेरे पति कमान्डो रेजिमेंट में थे और वे क्या योजना बनाते थे,अपने परिवार को भी नहीं बताते थे। इसलिए मुझे पता नहीं था कि वे क्या कर रहे हैं या क्या करने जा रहे थे! मेरे पास रेजीमेंट की अन्य अधिकारियों की पत्नियाँ आती थीं। वे सभी मेरे अधीन थीं, इसलिए हम एक परिवार की तरह रहा करते थे। एक-दूसरे के सुख-दुख बाँटते थे, एक दूसरे के साथ वक्त बिताते थे। मैं उनसे सवाल करती रहती थी, यहाँ तक कि उनके पतियों ने भी उन्हें कभी कुछ नहीं बताया। फिर एक दिन इन्होंने कहा कि, हमें जोधपुर में तैनात किया जा रहा है, इसलिए हमें वहाँ जाना होगा।’ मेरे पति ने मुझसे कहा कि मुझे उन सभी महिलाओं की देखभाल करनी है, उनका ख्याल रखना है तो मैंने उनसे कहा कि, मैं आपसे सम्पर्क कैसे करुँगी? तो उन्होंने कहा कि, आप नहीं कर पाएँगी।’ 
इस यूनिट में तीन खोजा राजपूत भी थे जो इस इलाके को अच्छी तरह जानते थे। मगर उनको हवाई या तोपखाने के बिना ही दुश्मन के इलाके में घुसना था। उनकी विशेष रूप से तैयारी की गई- जीप्स और जौंगाज से, जो केवल हल्के हथियारों से लैस थे। 
रिटायर्ड मेजर जनरल दलवीर सिंह के अनुसार- 1971 की लड़ाई में यूनिट बनने के बाद हमें गाड़ियाँ मिलीं। अब एक प्रॉब्लम थी, इन गाड़ियों को ऐसे मॉडिफाई करना ताकि उनको ज्यादा दूरी तक ले जाया जा सके और यह एक्स्ट्रा ईंधन, गोला-बारूद और राशन ले जा सके। तो पहली जरूरत थी इन गाड़ियों को मॉडिफाई करना, दूसरी जरूरत थी इन गाड़ियों पर इन जवानों को ट्रेनिंग देना और तीसरी निश्चित रूप से उस इलाके की जानकारी थी।’ 
रिटायर्ड कर्नल महेंद्र प्रताप चौधरी के अनुसार- “हर जौंगे में हमने टैंक फिट किए। पहले इसमें 431 लीटर का टैंक लगा था। हमने ड्राइवरों की सीट के नीचे 120 लीटर के टैंक सेट किए थे। इसके अलावा हमारे पास सामने लगे 2 कंटेनर थे जिसके अंदर 40 लीटर पेट्रोल और आ जाता था, फिर हर जीप और जौंगे पर हमने लगभग 65 लीटर पानी की टंकी फिट की क्योंकि हमें यह पता था कि पानी की भी जरूरत पड़ेगी। हमें उसका भी इंतजाम रखना था। कर्नल भवानी सिंग राष्ट्रपति के बॉडीगार्ड के पास गए और उनसे उनकी मशीन गन ले लीं, जो 7.92 की थी। यानी हमारे पास सामान्य रूप से जारी की गई 6 मशीन गन थी और अब हमें 6 और मिल गईं। हर दस्ते के पास एक लाइट मशीन गन थी तो हमें गाड़ियों को मॉडिफाई करना पड़ा। हम उस लाइट मशीन गन को उनके आगे और पीछे अच्छी तरह फिट कर सकें।’ 
तीन आक्रमण समूहों में से हर एक, कंपनी के आकार का था। अल्फा और चार्ली समूह को जमीन पर दुश्मन की सीमाओं के अंदर घुसपैठ करने की जिम्मेदारी दी गई थी। उन्हें संचार लाइनों, माल-गोदाम और दुश्मन के अंदरूनी अड्डों पर छापा मारने के लिए कहा गया था। ब्रावो ग्रुप को एयर स्टेशन के लिए तैयार रहने को कहा गया था। अल्फा ग्रुप का नेतृत्व मेजर गुलशन कुमार सन्नन कैप्टन एम. पी. चौधरी के साथ मिलकर कर रहे थे, जो सेकेंड इन कमांड थे और चार्ली टीम के कमांड मेजर टी. वी. डोगरा कैप्टन वाई. एस. के गोसाईं के साथ मिलकर संभाल रहे थे जो सेकेंड इन कमांड थे। 
रिटायर्ड कर्नल एम. पी. चौधरी के अनुसार-“अब अगर हम अचानक गायब हो जाएँगे तो जाहिर है लोगों को पता चल जाएगा कि ये लोग तो निकल गए यहाँ से, तो हम लोगों ने दूसरा रास्ता अपनाया। वहाँ के सभी नाइयों को, सभी वॉशर मैन को और सभी रसोइयों को बुलाया (तब इन लोगों को एन सी ई कहा जाता था यानी बिना लड़ाकू। लेकिन अब वह सब लड़ाकू हैं) उनको पूरी ड्रेस पहनाई और हमने उनसे कहा- “जाओ, जोधपुर में घूमो खूब आराम से” और उनको कुछ पुरानी गाड़ियाँ भी दे दीं और उनसे कहा- “घूमो! जाओ शहर में! फिल्में देखो! घूमते रहो, ताकि शहर में लोगों को लगे कि रेट पैरेट अभी भी यहीं है।”
4 और 5 दिसंबर की रात, लॉन्च पैड को अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं के करीब सरूपकपडाला में ले जाया गया। यहाँ 10 पैरा कमान्डोज सूरज डूबने का इंतजार कर रहे थे। सिंध प्रांत में उनके ख़िलाफ़ पाकिस्तान की 55 इन्फेंट्री ब्रिगेड चूर में तैनात थी। दो बटालियन नयाचौर में साथ थी एक आर्म्ड फोर्स और एक बटालियन। कम से कम दो कंपनियाँ चाचरो में और दो कम्पनियाँ गदरा में तैनात थीं। 
रात के अंधेरे में कमान्डोज ने आगे बढ़ना शुरू किया, लेकिन जल्द ही उन्हें रेतीले दलदल की वजह से रुकना पड़ा। इसके बाद उत्तर में कैल्लोर और दक्षिण में पुनिया से घुसपैठ करने का फैसला किया गया। यह ऑपरेशन जौंगा जैसे वाहनों पर आधारित थे। जिनमें से एक वाहन पाकिस्तान के रेतीले इलाके में फँस गया। इसे निकालते हुए उसका एक साइलेंसर पाइप निकल गया। पता चला कि साइलेंसर पाइप निकलने से वाहन की आवाज दूर से किसी टैंक के जैसी लगने लगी थी और इसीलिए यह फैसला लिया गया कि सभी वाहनों के साइलेंसर पाइप को निकाल दिये जाएँ ताकि आगे जाकर जब यह दस्ता अपने निशाने पर छापा मारे तो दुश्मन को ऐसा लगे कि यह टैंक बल है, जो कि हमला कर रहा था। यह कोई वाहन आधारित कमांडो बल नहीं था। 
5 दिसंबर 1971 सुबह 7 बजे :  दुश्मन के इलाके में लगभग 70 किलोमीटर दूर कीटा में रेत के टीलों के ऊपर बने मोर्चों से 10 पैरा कमान्डोज पर एक जबरदस्त एल एम जी हमला हुआ। जौंगा में बैठे कमान्डोज ने रात के अंधेरे का फायदा उठाते हुए बचाव का रास्ता अपनाया। जब वह दुश्मन को जवाब देने के लिए विकल्पों की तलाश में थे, तभी मेजर सन्नन ने देखा कि एक जीप तेजी से दुश्मनों की ओर बढ़ रही थी, यह नायक निहाल सिंह था, जिसने अपनी जान की परवाह किए बिना, अपनी लाइट मशीन गन से हमला कर दिया था। दुश्मन के पास निशाना लगाने के लिए केवल मशीन गन की चिंगारियाँ थीं। इस साहसिक अभियान से  दूसरी गाड़ियों को भी गोलाबारी करने का मौका मिल गया। जल्द ही भारतीय कमांडोज ने अपनी 18 लाइट मशीन गन से दुश्मन पर हमला कर दिया और कुछ ही घंटों में कीटा पर  काबू पा लिया। 
निहाल सिंह को बाद में बहादुरी और निडरता से दुश्मनों पर हमला करने के लिए वीर चक्र से सम्मानित किया गया, जिससे 10 पैरा को इस युद्ध में यह अपनी पहली उपलब्धि मिली। 
रिटायर्ड कमांडर अब्राहम चाको के अनुसार- हमारे कम्पनी कमान्डर, ग्रुप कमान्डर ने एक फैसला लिया। उनका नाम था मेजर सन्नन। कीटा रेत के टीलों की छानबीन करके उन्हें अपने कब्जे में लेने का। इसलिए जम्वाल को उसकी टीम के साथ बुलाया गया। वह अपनी टीम को दो हिस्सों में बाँट कर कीटा रेत के टीलों तक गया। उसने निचला हिस्सा क्लियर किया और उसके बाकी लोगों ने कीटा के रेत के टीलों के पिछले हिस्से को क्लियर किया। रात को लगभग 9 बजे के आसपास कीटा के रेत के टीले पूरी तरह क्लियर हो चुके थे। वहाँ से हमारे हाथ गोला बारूद और एक एल एम जी लगी। दुश्मन वहाँ से भाग चुका था, क्योंकि हमने उन पर जिस तरह से धुँआधार फायरिंग की थी, वहाँ रुकना उनके लिए नामुमकिन हो चुका था।”
कीटा में गोलाबारी के बाद कैप्टन आर एस जम्वाल और कैप्टन अब्राहम चाको को, दो छोटे गश्ती दलों को, चाचरो में मौजूद विंग हैड क्वार्टर तक रास्ता साफ करने का काम सौंपा गया। दो अलग-अलग रास्तों की पहचान करने के बाद उन्होंने 7 दिसंबर सुबह 4 बजे हमला करने की मंजूरी दे दी। 
हम उन इलाकों में चले गए। हमने उन इलाकों की छानबीन की जहाँ हमें जाना था। हमें ख़ुद को उस इलाके के अनुसार ढालना था। हमारे कपड़े, हमारी गाड़ियाँ, हर चीज पाकिस्तानी रेंजर्स जैसी थी इसलिए किसी को कोई शक नहीं हो सकता था, और युद्ध जैसे हालातों में आपको बहुत दिलेरी से काम लेना पड़ता है तो पता नहीं चला कि क्या हो रहा है! जैसे ही अँधेरा हुआ, हम फिर चाचरो के लिए वहाँ से निकल गए। 
कर्नल भवानी सिंह की योजना के अनुसार अल्फा कंपनी ने चाचरो के आसपास पोज़ीशन लेकर बाहर जाने वाले हर रास्ते को ब्लॉक कर दिया और वह कवर फ़ायर देने को भी तैयार थे।जबकि सुबह चार्ली कंपनी हमले के लिए पहुँच गई थी। ऑपरेशन काफी जोखिम भरा था क्योंकि उस शहर में एक तहसील हेडक्वार्टर भी था। जहाँ काफी नागरिक थे। बेकसूर लोगों के मारे जाने के डर ने टीमों को रोके रखा। दुश्मनों के इलाके में आकर भी नागरिकों की सुरक्षा को जोखिम में नहीं डाल सकते थे। हालांकि दुश्मन के भारी बन्दोबस्त के बावजूद बिजली की तरह तेज़ इस हमले में चाचरो पर कब्जा कर लिया। 
हम आगे बढ़ रहे थे। 4 बजे के आसपास हम चाचरो से थोड़ी दूर थे। 5 बजे हम चाचरो के करीब थे। और यही वह टाइम था जब चार्ली कम्पनी को वहाँ पर छापे की शुरूआत करनी थी। हमने अचानक वहाँ पर जबरदस्त फायरिंग की शुरूआत कर दी थी। क्योंकि किसी ने भी नहीं सोचा था कि कोई चाचरो में इतने अंदर तक पहुँच सकता है। चाचरो सिंध प्रांत का जिला मुख्यालय है। वे पूरी तरह से हैरान थे। उन्होंने भी फायरिंग शुरू कर दी। लेकिन धीरे-धीरे उन्हें अहसास हो गया कि खेल खत्म हो गया है। 
हमारे मन में शंका भी नहीं थी कि हम यह लड़ाई हारेंगे। हमें दिल से यह बात पता थी कि उनकी अगुवाई में हम कोई भी लड़ाई जीत सकते हैं और जब भवानी सिंग हमें लीड कर रहे हों तो हमें कोई नहीं रोक सकता। 
इस कार्यवाही से दुश्मन बुरी तरह बौखला गया। कमान्डोज ने इस अफरा-तफरी वाली स्थिति का फायदा उठाने का फैसला किया और वो आगे बढ़ गए। क्योंकि अभी मिशन बाकी था। इस शहर को वहाँ पहुँचने वाली राजपूत नाम की एक वाहन आधारित बटालियन को सौंप दिया गया। राजपूतों ने 17 पाकिस्तानियों को मार डाला और 12 पाकिस्तानियों को बंदी बना लिया। 
10 पैरा कमान्डोज को रेगिस्तानी बिच्छू भी कहा जाता था और वे अपने नाम पर खरे उतरे, एकदम बिच्छू की तरह। कमान्डो छुपकर आगे बढ़ते चले गए और उन्होंने अँधेरे में एक अच्छी योजना बनाई, सफाई के साथ दुश्मन की ओर बढ़ने की। एक रास्ते से आना और दूसरे से निकल जाना। इससे दुश्मन को उन तक पहुँचने का मौका ही नहीं मिल रहा था। ऑपरेशन का मकसद था योजना बनाना और तैयार रहना। यही वजह थी कि जब लेफ्टिनेंट कर्नल भवानी सिंह और उनके ऑफिसर ने हालात का जायज़ा लिया तो देखा कि चाचरो और दूसरी जगहों पर उनके किसी भी कमान्डो की जान नहीं गई थी। चाचरो के छापे के बाद चार्ली कंपनी को अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर वापस जाने को कहा गया। जबकि अल्फा कंपनी अगले ऑपरेशन की तैयारी में लग गई।
रिटायर्ड कर्नल एम पी चौधरी के अनुसार- “अल्फा ग्रुप को केवल एक काम दिया गया था, क्योंकि इस बार छापा चार्ली ने मारा था और अल्फा ग्रुप वाकई बहुत नाराज था। तब कर्नल भवानी ने कहा- “अल्फा ग्रुप मिथी में इसलामकोट पर छापा मारेगा।” इस बार हमने दिन में चलने का जोखिम उठाया था। ख़ास उस दिन तक घुसपैठ सिर्फ़ रात में होती थी। पर हम लोग दिन में ही निकल गए बिना किसी कवर के। आगे चल रही जीप, जिसे कैप्टन दास ड्राइव कर रहा था। उसने मशीन गनों से लैस एक बड़ा 6 टनर ट्रक देखा। हमने इन हालातों से निपटने की प्रैक्टिस की हुई थी। हम तुरन्त अलग हो गए और घात लगाकर बैठ गए और हमने उन लोगों को अन्दर आने दिया। फिर एक ट्रक और दिखाई दिया। अब दो ट्रक हो गए थे।उन दो ट्रकों में कुल 40 आदमी थे। ट्रकों पर मशीन गन और लाइट मशीनगन लगी हुई थी, उसके बाद जो गोलाबारी हुई है……..।’ 
4 दिनों तक 10 पैरा ने दुश्मन के इलाके के अन्दर जाकर ऑपरेशन किए और चाचरो और विरवाँ में दुश्मन के ठिकानों पर छापे मारे। इन अभियानों के दौरान तेजी से किए गए जबरदस्त हमलों ने संख्या और स्थिति में उनसे कहीं बेहतर पाकिस्तानियों को घबराकर भागने के लिए मजबूर कर दिया। 
रिटायर्ड कर्नल एम पी चौधरी के अनुसार- “हम लोग विरवाँ से लौट रहे थे और विरवाँ दूसरा जिला था। मैं अपनी जीप में आगे बैठा था। मेरे ड्राइवर कन्हैया ने कहा- सर! ललकारने की आवाज आ रही है।” तो मैंने कहा, “कोई ललकार रहा है।” जब मैंने इशारा किया तो सब रुक गए। जाहिर है, हम अंधेरे में ही सफ़र कर रहे थे। सब कुछ बंद करके पिन ड्रॉप साइलेंस कर दिया और उस पिन ड्रॉप साइलेंस में मेरी जीप से लगभग 10 गज की दूरी पर मैंने किसी को चिल्लाते हुए सुना, ‘रुक जाओ! 
वहाँ कौन है?” 
मुझे लगा कोई बड़ी गलती हो गई है। हमने इसके बारे में नहीं सोचा था। यह हमारे लिए सरप्राइज था। मैंने अपने दो दोस्तों को साथ लिया और रेंगता हुआ आगे बढ़ा। मैंने रेंगते हुए अपने दोस्तों से कहा कि, तुम पिन को निकाल कर मुझे  ग्रेनेड दे दो।’ फिर मैंने उस गाड़ी पर ग्रेनेड फेंका और ठीक उसी समय मैं गिर गया। मैंने चाकू से, पास आए, तीन पाकिस्तानियों का गला भी काटा। 
वहाँ से वापस लौटते हुए हम जब सीमा पार कर रहे थे, तो आर डी ओ पी को लगा कि पाकिस्तानी आ गए हैं…और वे पी ओ पी पर कब्जा करने की कोशिश कर रहे हैं। अपने मोर्टार और सारे हथियार हम पर चला दिए। हमें लग रहा था कि वहाँ तो हम बच गए पर यहाँ नहीं बच पाएँगे। हम एक गाँव में घुस गए और वहाँ शरण ली। फिर विचार किया कि अब क्या करना है और फैसला लिया। हम सब ने एक बड़े पोल की तलाश की और उसमें एक सफेद झंडा लगा दिया। हमने कहा हम इसे लहराएँगे। इस पर एक बड़ी बहस शुरू हो गई। 
‘मैं जाऊँगा!’
‘मैं जाऊँगा!’ 
और तब सी ओ ने कहा  कि वे खुद जाएँगे और सब मेरे पीछे आओ! उन्होंने अपने हाथ ऊपर किए, झंडा उठाया और पी ओ पी की तरफ लहराने लगे तो पी ओ पी को अहसास हुआ कि कुछ गड़बड़ है। 
10 पैरा कमांडो को 1971 के लिए बैटल ऑनर से सम्मानित किया गया और 10 वीरता पुरस्कार भी दिए गए। जिनमें से एक महावीर चक्र, दो वीर चक्र, तीन सेना पदक और डिस्पैच में 5 पेंशन शामिल थे। 
बटालियन को दिल्ली के राजपथ पर सम्मिलित करने के अभूतपूर्व सम्मान से भी सम्मानित किया गया। 1972 के गणतंत्रा दिवस पर परेड में वे उन्हीं वाहनों पर सवार हुए जिन्हें 1971 की लड़ाई के दौरान इस्तेमाल किया गया था। चाचरो  रेड वह पहली ऐसी वाहन आधारित कमांडो कार्यवाही थी जो कि आजादी के बाद भारतीय सेना ने पाकिस्तान में संचालित की थी। इस अभियान की सफलता भारतीय सेना द्वारा भविष्य में किए जाने वाले ऐसे अभियानों के लिए एक पिंच मार्क बन गई। क्योंकि लेफ्टिनेंट कर्नल भवानी सिंह ने एक बेहतरीन योजना बनाकर उसे एग्जीक्यूट किया था। युद्ध की कम अवधि के कारण 10 पैरा के इस अभियान को उस वक्त उमरकोट में ही रोक देना पड़ा। लेकिन तब तक भारतीय सेना कुल मिलाकर 13000 वर्ग मीटर पाकिस्तानी जमीन पर कब्जा कर चुकी थी, जो कि उस वक्त पश्चिम पाकिस्तान का हिस्सा था। रिटायर्ड लेफ्टिनेंट कर्नल भवानी सिंह को युद्ध में अपने व्यक्तिगत साहस व नेतृत्व के लिए भारत के राष्ट्रपति द्वारा महावीर चक्र से सम्मानित किया गया। साथ ही 10 पैरा के कई अधिकारियों और जवानों को भी कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।
नीलिमा करैया

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