सुनते आए हैं हमेशा से कि
भोर के उनींदे सपने, अक्सर जाग कर
काल्पनिक दुनिया से बाहर चले आते हैं।
कोई स्वप्न शास्त्र भी रहता है
जो बेशक चेताता है उन्हें अपने ज्ञान से कि
यदि कोई महल दिखा हो किसी को सब्ज़ बाग़ में खड़ा
तो ऐसे में सारी इच्छाएं तो पूरी करनी ही हैं
साथ में धन भी लाना है जमानत में, उसकी रखरखाव के लिए।
खैर, यह तो हुई पलायनवाद की विचारधारा
मगर जागी आँखों के सपने पलायनवादी नहीं होते;
वे होते हैं कर्मठ जो यथार्थवाद को ही जीते हैं।
इन सपनों की उड़ान के अपने पंख भी होते हैं
इरादों की मंज़िल की परवाज़ करने।
बेशक, सुबह की नींद भरी आँखों में कैद, अलसाए सपने
जहां भुगत रहे होते हैं सज़ा झूठ और भ्रम फैलाने की,
वहीं, जागी आँखों की वास्तविक दुनिया में पलते सपने
निरकुंश विचरते हैं,
उपलब्धियों की अपनी मंज़िल को नापते।
सच है, अपनी टाँगों पर खड़े दृढ़-निश्चयी कर्म
कभी भी यथार्थ से मुँह मोड़
भाग्य की चादर ओढ़े
चैन से सोये नज़र नहीं आते।  
बिमल सहगल
ई-602, पंचशील अपार्टमेंट्स, प्लॉट 24, सैक्टर 4,
द्वारका, नई दिल्ली 110078
ईमेल:  bimalsaigal@hotmail.com
फोन  9953263722

1 टिप्पणी

  1. हम तो इसे कविता नहीं गद्य काव्य ही कहेंगे विमल सहगल जी!लेकिन कुल मिलाकर अच्छा लगा।
    वास्तव में स्वप्न का भी कोई शास्त्र तो होता ही होगा।
    आपकी रचना पलायनवादी विचारधारा के विरुद्ध जागतीआँखों से देखें जाने वाले स्वप्न का समर्थन करती है।
    क्योंकि यही स्वप्न वर्तमान की धरातल पर परिश्रम और प्रयास से स्वयं को सत्य साबित करने में सफल होते हैं।
    बहुत-बहुत बधाइयाँ आपको। इस सकारात्मक रचना के लिए।

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.