Saturday, May 11, 2024
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प्रो. कन्हैया त्रिपाठी का लेख – आंबेडकर होने की चुनौती

डॉ. भीमराव आंबेडकर के किए गए कार्य विश्व व्यवस्था में अपनी अमिट छाप छोड़ रहे हैं लेकिन आंबेडकर होने की अपनी चुनौतियाँ हैं, जिसे आंबेडकर जैसा व्यक्ति ही सह सकता है, और विपरीत परिस्थितियों में भी अपने समाज के लिए कुछ करने की हिम्मत कर सकता है. एक तो उनका जन्म दलित परिवार में हुआ था. उस समय की सामाजिक व सांस्कृतिक स्थितियां किसी भी दलित वर्ग के बच्चे के विकास व विस्तार के अनुकूल नहीं थीं. डॉ. आंबेडकर यह चाहकर भी कि वे सबके बीच प्रिय हो सकें, उन्हें वह पर्याप्त लोकप्रियता व स्वीकारोक्ति नहीं मिल सकती थी.
उनके बड़े होने पर आर्थिक रूप से क्षमतावान न होना भी उनके सामने एक बड़ी चुनौती थी. परिवार में सबकी ज़रूरतों के साथ ही उनकी ज़रूरतें पूरी हो सकती थीं. यह भी एक चुनौती थी. लेकिन इन सबमें उन्हें जो सबसे ज्यादा पीड़ादायक चुनौती लगी वह अपनी नहीं थी बल्कि एक ख़ास समाज को अस्पृश्य समझकर उनके साथ किया जा रहा दुर्व्यवहार, उनके सामने बड़ी चुनौती थी. डॉ. आंबेडकर चाहते थे गुलामी की जंजीरें टूटें और समाज में बराबरी आये. वह इसके लिए किसी भी स्तर पर अपने समाज के लिए कुछ करना चाहते थे. विडंबना यह है कि जिस समाज को वह खड़ा करना चाहते थे, वह इतना पढ़ा लिखा भी नहीं था. दरअसल, वह केवल सबको मौखिक रूप से सुनकर समाज का हिस्सा बनने वाले समाज को लेकर चिंतित थे.
भारत का औपनिवेशिक शासन और उसमें भी सवर्ण समाज की रुढ़िवादी व्यवस्थाएं उनके चुनौतियों को और बढ़ा रही थीं. सबसे अहम् बात यह है कि उस समय गाँधी स्वयं दलितों के लिए अपने आपको मुख्य रूप से चिन्तक बनाने की होड़ में थे. डॉ. आंबेडकर जिन लोगों को लेकर जिन लोगों के लिए कार्य करना चाहते थे, उसमें से भी कुछेक गाँधी के ही छुआछुत वाले अभियान को मुख्य अभियान मानते थे. गाँधी के ही आन्दोलन को राष्ट्र का आन्दोलन मानते थे. आंबेडकर का इस प्रकार गाँधी के समय में अपने समाज को समझा पाना बहुत कठिन हो रहा था. बंटे हुए समाज की तरक्की नहीं होती, ऐसी कहावत है. डॉ. आंबेडकर को यह बात नागवार लगती थी कि उनके लोग उसके मुख्य आन्दोलन से नहीं जुड़ रहे हैं और गाँधी के प्रति इनका झुकाव ज्यादा हो रहा है.
गाँधी बनाम आंबेडकर के इस विमर्श को तत्कालीन दलित नहीं जानते थे. अपितु वे इतने भावनाओं में विश्वास करने वाले लोग थे कि उन्हें लगता है कि गाँधी ही देश के सबसे बड़े नेता हैं. उनके माध्यम से ही देश में आज़ादी आएगी लेकिन यह पूर्ण सच नहीं था. डॉ. आंबेडकर को इस प्रकार उन दिनों एक बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा था कि वे कैसे समझाएं कि वही दलित समाज की लड़ाई के मुख्य जन-नेता हैं. वही उनकी लड़ाई लड़कर अस्पृश्यता से छुटकारा दिला सकेंगे. फिर भी डॉ. आंबेडकर ने गोलमेज सम्मलेन व दूसरे अपने आन्दोलन से अपनी बात कहने की कोशिश की. उन्होंने जिस अख़बार के माध्यम से गाँधी के सनातन होने और उसमें व्याप्त सामाजिक रुढियों का परोक्ष रूप से समर्थन के बारे में साफगोई से लिखकर अपने लोगों को संबोधित करने की कोशिश की, उससे यह साफ पता चलता है कि वे खुश नहीं थे. अपने सामाजिक न्याय कि लड़ाई में कभी कभी अवसाद में जाने का मुख्य कारण उनके लोगों द्वारा उनका प्रतिकार भी रहा है.
यह एक बड़े विमर्श का हिस्सा इसलिए आज है क्योंकि आज भी यह कहा जा रहा है कि देश में दलितों की स्थितियां चिंताजनक हैं. जो लक्ष्य सरकारें लेकर चल रही हैं, वे दलित समाज को न तो पूरी तरह न्याय दे सकीं और न ही देने में पूरी  तरह आज भी सक्षम हैं. भारत में नरेंद्र मोदी सरकार ने जब पञ्चतीर्थ बनाए. अंतरराष्ट्रीय केंद्र के रूप में दिल्ली में एक स्थान सुनिश्चित किया और आंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर से वंचितों के भीतर गौरव बोध कराया, तब से इस वर्ग को ख़ुशी मिली है. डॉ. आंबेडकर के जीवन में यह चुनौती थी कि वे जब कानून मंत्री बने तो उस दौरान हिन्दू कोड बिल भी पास नहीं करा सके और उनको इस्थीपा देकर सरकार से मुक्त होना पड़ा. बाद में भले हिन्दू कोड बिल पास हुआ हो और अब उससे बहुतेरे लाभान्वित हुए हों, लेकिन उस दौर की चुनौतियों को विस्मृत नहीं किया जा सकता.
एक ही समय में कई चुनौतियों से जूझते हुए भी डॉ. आंबेडकर के अवदान आज वैश्विक सभ्यता को संबोधित कर रहे हैं और दुनिया में सामाजिक न्याय के लिए खड़े हो रहे हैं, यह गर्व का विषय है. पर्याप्त अभाव में जीवन के शुरुआती क्षण और उनके अंतिम क्षण को स्मरण करें डॉ. आंबेडकर इस बात से जूझते हुएं मिलते हैं कि उन्हें हिन्दू धर्म में रहना चाहिए या उसे त्याग देना चाहिए? वह खुद से सवाल करते हैं. खुद से उत्तर तलाशते हैं. खुद से भारतीय धर्म को समझकर बौद्ध धर्म को अपनाते हैं. यह उनका अपना सामर्थ्य है ही कि वह कभी खुद से दुखी होकर खुद से पीछा नहीं छुडाते. उनकी मंशा बहुत साफ़ है कि समष्टि का भला हो. सृष्टि कि सुन्दर स्वीकृत चीजें, मूल्य समाज का हिस्सा बनें. वह चाहते हैं कि स्त्रियाँ सशक्त बनें. वह चाहते हैं कि उनके समाज की स्त्रियाँ सशक्त बनें और स्वस्थ रहने के लिए शुचिता का ध्यान रखें.
यह जो समाज निर्माण करने की मुहिम है उसमें वह भारत का असली स्वाभाव देखते हैं. उस स्वाभाव की परख बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर में थी, यह बात आज सभी को माननी पड़ेगी. कदाचित ऐसी परख न होती तो वह समाज को कोई सही मार्ग न सुझा पाते. न ही उसके खिलाफ कभी प्रतिरोध कर पाते. आज उनके इस गुण ने उनका आदर करवाया है. उनके इस स्वाभाव ने उन्हें महान बना दिया. पृथक्करण से प्रतिरोध करते डॉ. आंबेडकर ने समाज के सभी लोगों में समान गरिमा की उपस्थिति को ही सबसे बड़ी सामाजिक व्यवस्था कहा है. उन्होंने कभी भी लोकतंत्र की चर्चा की, चाहे नैतिक मूल्यों की. उन्होंने चाहे अमीरी गरीबी के कारणों का मुल्यांकन किया, सबसे पहले उन्होंने आर्थिक बराबरी के लिए अपनी दृढ़ता को बताया. 
विडंबना यह भी रही है कि सार्थक व शिक्षित समाज से उन्हें इसका सामना करना पड़ा. उन्हें न मानने वाला समज दोनों धड़ों में था. एक जो उनके साथ था और एक जो व्यवस्था के साथ था. इन दोनों से डॉ. आंबेडकर जूझते हुए मिलते हैं. प्रतिकूलता को चुनौती देने वाले डॉ, आंबेडकर को जब हम पढ़ते हैं और उनके स्संघर्ष को देखते हैं तो लोग आज भले डॉ. आंबेडकर को स्मरण कर लें. उन्हें महान बना दें लेकिन दृढ़ता के प्रतिमूर्ति डॉ. आंबेडकर को ‘आंबेडकर बनने की चुनौती’ का जो सामना करना पड़ा है वह कुछ ज्यादा ही कठिन है. 
आज भले ही डॉ. आंबेडकर हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनका सौहार्द व शीलता भरा जीवन उन चुनौतियों में जूझकर भी हमारे लिए सहयोगी रूप में हमारे साथ खड़ा है, यह बड़ी बात है. यदि उस महान व्यक्तित्व को भारत व दुनिया समझ ले तो समाज में कोई असमानता होगी ही नहीं.
लेखक भारत गणराज्य के महामहिम राष्ट्रपति जी के विशेष कार्य अधिकारी रह चुके हैं। आप केंद्रीय विश्वविद्यालय पंजाब में चेयर प्रोफेसर, अहिंसा आयोग व अहिंसक सभ्यता के पैरोकार हैं।
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1 टिप्पणी

  1. अंबेडकर के लिये यह एक बेहतरीन लेख है इसमें कोई दो मत नहीं आदरणीय कन्हैया त्रिपाठी जी!
    बहुत-बहुत बधाइयाँ आपको।

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