‘आप उतना जानते हैं, जितना पढ़ा या सुना है, लेकिन 1992 में आखिर क्या हुआ था? हकीकत हम बताते हैं…’ ये डायलॉग है ‘अजमेर 92′ फिल्म का। पिछले महीने चुपके से आकर चली गई इस फिल्म ने कश्मीर फाइल’ (साल 2023 के नेशनल अवॉर्ड में ‘द कश्मीर फाइल्स’ को राष्ट्रीय एकता पर बनी बेस्ट फिल्म का नरगिस दत्त पुरस्कार देने की घोषणा हुई है) और ‘द केरला स्टोरी’ जैसा कोई तुफ़ान बॉक्स ऑफिस पर नहीं मचाया।
फिल्म में एक और संवाद है ‘लड़कियों की इज्ज़त से बड़ी समाज में कोई इमेज नहीं होती।’  ऐसे कई और संवादों से सजी यह सच्ची घटनाओं वाली कहानी आखिर केरला स्टोरी और कश्मीर फाइल की तरह दर्शकों तक क्यों पहुँच नहीं पाई इस पर भी विचार करना चाहिए।
कहानी ज्यादा पुरानी नहीं है ले देकर 30 बरस ही बीते हैं। लेकिन साल 1987 से 1992 तक तब की राजस्थान सरकार में भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्री रहे भैंरोसिंह शेखावत की नाक तले ये सब होता रहा और पुलिस प्रशासन तथा जनता भी मूक दर्शक बनी रही। पुलिस और सरकारों का काम होता है ऐसे संवेनशील मुद्दों पर गंभीरता से काम करने की… खैर
यह फिल्म अजमेर 92 जिन सच्ची घटनाओं को कल्पना के सहारे परोसती है वह भी अब पूरे देश को मालूम है ही फिर भी बता दूं कि इस सिलसिलेवार गैंगरेप के कुचक्र के पीछे अजमेर सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह और दुनिया को रचने वाले ब्रह्माजी के पुष्कर धाम में साल 1992 में हुए गैंगरेप कांड के पीछे अजमेर दरगाह तक के पहुंचे हुए लोगों के हाथ होने की खबरें भी आईं।
अजमेर के नामी स्कूल-कॉलेजों में पढ़ने वाली लड़कियों की नग्न तस्वीरें लीक करने वाले एक गैंग ने इस कांड को अंजाम दिया। जिसकी चपेट में प्रतिष्ठित सोफिया कॉलेज भी आया। एक  लड़की को फंसा कर फिर उसी से आगे और लड़कियों की डिमांड करने वाले ये लोग लड़कियों को फार्महाउस पर बुलाते और बलात्कार करते।
सरकार, पुलिस, पत्रकारों के अलावा उन्हीं लड़कियों के घर वाले भी इस हकीकत को जान रहे थे। लेकिन किसी को कानों कान खबर न पड़ी। फिर उन लड़कियों से यह भी कहा जाता कि वे अगर वह किसी को कुछ बताएंगी तो वह उनकी नग्न तस्वीरें लीक कर देंगे या उन्हें और उनके परिवार को जान गंवानी पड़ेगी। इस कांड में बड़े-बड़े आला अधिकारियों के घरों की लड़कियां भी बाद में सामने आई और उन्होंने बताया कि उनके साथ यह सब होता रहा।
DNA की रिपोर्ट के मुताबिक, 250 से भी ज्यादा लड़कियों को ब्लैकमेल किया गया। और उसी का हवाला यह फिल्म भी देती है लेकिन कोर्ट केस के दौरान कुल 30 परिवारों के ही सामने आने की बात भी यह फिल्म बताती है। खबरें बताती हैं कि इन बच्चियों की उम्र 11 से 20 साल की हुआ करती थी। और अश्लील तस्वीर की आड़ में आरोपियों ने महीनों तक उनका रेप किया। उनमें से कुछ लड़कियों ने स्कूल कॉलेज में ही छत से कूद कर जान दे दी।
फिल्म इस कांड को बिल्कुल ठहरते हुए बताती है। मानों इसे लिखने, बनाने वालों को इस बात की कोई जल्दी नहीं कि वे इसमें गैर ज़रूरी मसाले मिलाकर इसकी सत्यता को बदले और फटाफट अपना काम कर जाए। पहले हाफ के खत्म होते तक इस गैंगरेप के बारे में दर्शकों को तब पता चलता है, जब लोकल न्यूजपेपर ‘नवज्योति न्यूज’ के एक पत्रकार संतोष गुप्ता खबर छापता है। वह इस रिपोर्ट में बताता है कि कैसे राजनीतिक, सामाजिक और बड़े ओहदे पर बैठे लोग शहर में गंदगी मचा रहे हैं। वह स्कूल-कॉलेजों में पढ़ रही बच्चियों को ब्लैकमेल कर रहे हैं। फिल्म के दूसरे हाफ तक आते-आते इसी रिपोर्ट के बाद प्रशासन से लेकर राजनीतिक गलियारों तक में हड़कंप मचता दिखाई पड़ता है।
फिल्म के माध्यम से दावा किया गया है कि अजमेर में रसूखदार लोगों ने जिन लड़कियों के साथ दुष्कर्म किया। उनके बारे में जब शहर भर को मालुम हुआ तो वहां कर्फ्यू जैसे हालात पैदा हो गए। आत्महत्या कर रही लड़कियों की मौत पर भी खूब राजनीति हुई। तथा पुलिस की कार्रवाई पर भी सवाल उठाए गए।
एक तथ्य यह भी ज़रूरी है कि इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, इस केस के बारे में पुलिस और प्रशासन को पता तो चल गया था लेकिन वह डर रहे थे कि शहर में दंगे न हो जाए।  शांति व कानून व्यवस्था में चूक न हो जाए। लेकिन क्या इस एक डर से भी वे उन लोगों को ये सब करने देने के लिए छूट नहीं प्रदान कर रहे थे? क्या पुलिस और सरकार उनके हौसलों को बढ़ावा नहीं दे रही थी? फिर रिपोर्ट के मुताबिक, ज्यादातर आरोपी मुस्लिम और पीड़ित हिंदू बताए गए। खैर  एक समय बाद उनकी चेतना जगी और तत्कालीन समय में पूरे राजस्थान में लोग सड़कों पर उतर आए थे। और अंत में कई आरोपियों को पुलिस ने गिरफ्तार किया।
गिरफ्तार आरोपियों को सजा भी हुई उम्रकैद की लेकिन वे सभी जल्द ही बाहर भी आ गए। उनमें से एक मुख्य मास्टर माइंड फारुख चिश्ती ने खुद को पागल घोषित कर सजा होने से बचा तो लिया लेकिन बाद में खुद ही उसने आत्महत्या भी कर ली थी। बाकि अन्य आरोपियों में नफीस चिश्ती और अनवर चिश्ती के तार यूथ कांग्रेस से जुड़े होने की भी खबर सामने आई। कहते हैं अजमेर दरगाह के प्रमुख का दर्जा रखने वाला फारुक न सिर्फ राजनैतिक बल्कि धार्मिक रूप से भी काफी पावरफुल था। जिसकी पहुंच दरगाह के केयर टेकर्स तक थी।
खबरें बताती हैं कि साल 1992 में ही इस गैंगरेप का भांडा फूटा था। तब खूब बवाल भी हुआ। जिसमें कुल जमा 8 लोगों को गिरफ्तार किया गया। इसके बाद ये मामला डिस्ट्रिक्ट, हाईकोर्ट से लेकर फास्ट ट्रैक, सुप्रीम कोर्ट से लेकर पॉक्सो कोर्ट के बीच घूमता रहा। साल 1994 में इन आरोपियों में से एक पुरुषोत्तम नाम के आदमी ने जेल से रिहा होने के बाद सुसाइड कर लिया था। अजमेर कोर्ट ने साल 1998 में इन आठों आरोपियों को उम्रकैद की सजा सुनाई थी। फिर साल 2001 में चार आरोपियों को कोर्ट ने बरी कर दिया था। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में जब ये मामला पहुंचा तो तमाम जांच और पक्षों को देखने के बाद अदालत ने बाकि बचे चारों दोषियों की सजा को घटाकर 10 साल कर दिया गया। इस बीच फारूक चिश्ती ने खुद को दिमागी रूप से पागल बताया। साल 2012 तक आते आते बाकि आरोपी भी जेल से जमानत पर बाहर आ गए।
फिल्म में हालांकि सुप्रीम कोर्ट तक के और हाईकोर्ट के सीन नहीं दिखाए गए हैं। लेकिन इसमें प्रमुख रूप से अभिनय करने वाले करण शर्मा, सुमित सिंह, जरीना वहाब, बृजेंद्र काला, सैयाजी शिंदे और मनोज जोशी फिल्म के माध्यम से बांधे रखते हैं। पहले हाफ में कुछ ढीली पकड़ के साथ चलती इस फिल्म के दूसरे हाफ में तेज और कसी हुई कहानी देखने को मिलती है। बृजेंद्र काला और मनोज जोशी दोनों सिनेमा जगत के मंझे हुए खिलाड़ी हैं लिहाजा जब भी ये पर्दे पर नजर आते हैं फिल्म में प्राण फूंकते नजर आते हैं।
अपने समय की बल्कि कहें तो अभी तक कुछ ताजी और कुछ बासी हो चुकी यह घटना आम जन मानस को जगाने का वो काम करती है जो इसे करना चाहिए था। कश्मीर फाइल और केरला स्टोरी की तरह भी एक महत्त्वपूर्ण फिल्म है अपने समय में। कश्मीर फाइल और केरला स्टोरी को फिल्मी, राजनितिक और एक धर्म विशेष के प्रति नफरत भरने वाला वितंडा बताने वाले तथाकथित वामपंथी सोच रखते हुए देश में इन बच्चियों तथा उन बच्चियों जैसी होने वाली घटनाओं को आम घटना मान उन्हें धत्ता बता देने वाले लोगों को यह फिल्म जरूर देखनी चाहिए। उन्हें इसे देखना ही नहीं बल्कि इस घटना के बारे में छपी खबरों को भी ध्यान से और बिना किसी पूर्वाग्रह के पढ़ना चाहिए।
विचार करना चाहिए कि आखरी क्यों हमारे देश में ये सब घटनाएं आज भी होती रहती हैं। गाहे-बगाहे खबरों में नजर आने वाले लव-जिहाद को हंसी में उड़ा देने वाले उन बुद्धिजीवियों को जिन्हें कायदे से मंदबुद्धि कहा जाना चाहिए उन्हें यह फिल्म अवश्य देखनी चाहिए। साथ ही उन्हें यह भी सलाह देते रहना चाहिए कि वे ऐसी फ़िल्में और ऐसी घटनाएं अकेले में पढ़ने, देखने, सुनने के बजाए अपने घरों की बहन बेटियों को भी दिखाए, बताए। उन्हें जागरूक करे।
कायदे से यह फिल्म अजमेर 92 किसी तरह की एकपंथीय सोच नहीं रखती बल्कि यह उस सच को ठीक उसी तरह पेश करती है जैसे किया जाना चाहिए था। हालांकि कई तकनीकी खामियों के बावजूद भी ऐसी फ़िल्में देखना ज़रूरी हो जाता है। इसलिए लगभग एक महीने पहले आई इस फिल्म को देखिए, दिखाइए और सदियों से अपने छोरी होने का हर्जाना भुगत रही लड़कियों की इज़्ज़त करना सीखिए। उन्हें केवल अपने पांव की जूती और अपनी दो टांगों के बीच के खूंखार जानवर से मसलने का इरादा ही ना रखा करें।

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