विश्व के सभी राष्ट्रों में आरम्भ से ही लोक-संगीत का महत्व रहा है। आचार्य रविन्द्र नाथ टैगोर ने लोक गीतों को संस्कृति का सुखद सन्देश दी जाने वाली कला कहा है।
          जनम – मरण, तीज – त्यौहार, ब्याह, सगाई, परिवार, मौसम के साथ आम आदमी की भावनाओं के संवाहक होते है लोकगीत। उनका क्षेत्र व्यापक है। लोकगीत यानि आम आदमी या आम समाज द्वारा गाया जाने वाला गान। लोकगीतों के रचियता अज्ञात होते है और वो मौखिक परम्परा से आगे बढते है। इनकों विभिन्न वर्गो में रखा जा सकता है। जैसे संस्कारों से सम्बन्धित लोकगीत, ऋतुओं से संबंधित लोकगीत, त्यौहारों से सम्बन्धित लोकगीत और साथ ही अनेकों अवसरों या कहे कि हर अवसर के विविध लोकगीत। तो रंगीला राजस्थान इससे कैसे अछूता रह सकता है जिसके रज रज में, रग रग में, लोक जिंदा है, लोक से ही शूरों की धरा की पहचान है।
            राजस्थान रंग रंगीला सुरंगा प्रदेश है। यहां का खान – पान, रहन – सहन, साहित्य, संस्कृति, कला, पैहरान, तीज – त्यौहार,  और गीत – संगीत सारी दुनिया का मन मोहते है। यहां की संस्कृति में, जीवन में, लोक में, गीत – संगीत रग रग में बसा है।
            राजस्थानी लोकगीतों में जीवन का विशद चित्रण दिखाई पड़ता है। राजस्थानी लोकगीतों का संसार बहुत सुरंगा है। राजस्थानी संस्कृति में लोकगीतों का महत्वपूर्ण व जगचावा स्थान है। यहां हर छोटे बड़े अवसर पर लोकगीतों की धूम उड़ती नजर आती है।
            बात करें सबसे पहले बच्चे के जन्म की तो बच्चे के जन्म के सातवें दिन सूरज पूजा करती मां गाती है कि …
            “दादीसा रै खौळै में म्हारौ हालरियों खैलै जी…”
और
‘हिलो रै हालरिये रो हिलो सा, थै तो दूध पतासा पियो पियो सा…’
नवजात शिशु के लाड कोड करती मां उसकी बलाया लेती है।
साथ ही वही बच्चा जब थोड़ा बड़ा हो जाता है तो मां उसे लोरी रुपी गीत सुनाती कहती है कि…
       ‘ऊँचो घाल्यो पालणो,यो जल जमना रे तीर,
       झोटा देसी सायबो म्हारी लाल ननद रो बीर,
       गीगा सोज्या म्हारा लाल,
       थारे बाप ने राजी कर दू, हँस हँस के बतलाय..’
बच्चे को वो कहती है कि थोडी देर तू सो जा तो मैं तेरे पिता और मेरी ननद के भाई से कुछ देर हंस बतला लू। यानि कुछ देर प्रेम प्रीति की बातें कर लूं।
         बेटी को राजस्थानी लोकगीतों में चिड़कली यानि उस चिड़िया जैसा माना है जिसे अपने घर जाना ही जाना है। उसके लिये गाया जाता है कि..
         ‘मायड़ थारी चिड़कली राणी बणगी आज…’
   बेटी की सहेलियां मां को उसके बडे होने का संकेत देती है।
वहीं बेटी की विदाई पर बेटी अपने बाबोसा को उलाहना देती हुई कहती है कि…
         ‘छोटी सी उमर परणाई ओ बाबोसा, कांई थारो करियो मैं कसूर,
         इतरा दिनां तो मानै लाड लडाया, अब क्यूं करोसा थासूं दूर…’
और उसकी विदाई पर गांव गुवाड़ की औरतें मार्मिक राग में गीत अगैरती यानि गाती है कि…
     ‘ऐ आम्बा ऐ पाकियां आम्बली, माऊड़ी लूण लूण जायं, कोयल चाली सासरिए…’
यानि अब बिदा होने का समय आ गया है और मां बेटी को विदा करती दुख में है।
वहीं बेटी बाबा की लाडली है तो उसे चिरमी भी कहां जाता है और उसे गा कर कहते है कि…
     ‘चिरमी बाबोसा रै लाडली, चिरमी रा डाळा चार, भोली म्हारी चिरमी रै…’
इन लोकगीतों में मनुष्यों के अंतस की हिलोर और उच्छब का अनोखा चित्रण है।
महात्मा गांधी जी ने कहा था कि  ”लोक गीत जनता की भाषा है …. लोक गीत हमारी संस्कृति के पहरेदार है।”
लोकगीत लोक के गीत है जिसे कोई एक आदमी नहीं गाता है बल्कि सम्पूर्ण समाज और लोक उसे होने की मान्यता देता है। लोक ही इसका सर्जक है और सम्पूर्ण लोक का आपसी व्यवहार ही इन गीतों में गाया जाता है। लोक अपने आनंद में डूबता उतरता अपनी वाणी को छंदों से बांधता सजाता इन गीतों का सर्जन करता रहता है। ये गीत लोक में पहले से प्रचलित किसी खास अवसर के लिए सृजित और लोक विषयों को समाहित करते हुए लोक के साथ बहते है और गाये जाते रहे है‌।
राजस्थानी लोकगीतों में बेटे के ब्याह का उच्छब भी बहुत विशेष रुप से मनाया जाता रहा है।
बेटे के ब्याह पर उसे पाट बैठाते समय औरतें गाती है कि,
       ‘सोने रो बाजोटियों रै मोतिडा़ सूं जड़ियो…
घी गुड़ री घूंट भरावै ओ लाडैसरा थानै बाजोटै बैठावा…’
और उसी बेटे को दूल्हा बना देख उत्साह में गाया जाता है कि,
          ‘म्हारों केसरिया हजारी गुल रो फूल, हजारी गुल रो फूल, केसरिया नै नीजर ना लागै ओओ…’
यानि इस केसर के फूल जैसे दूल्हे को किसी की नजर न लगे।
             इन लोकगीतों में शादी ब्याह में सबसे ज्यादा बन्ना – बन्नी गीत, नेगचार के हर रीत पर गीत, जमाई पावणा के स्वागत के गीत, देव रात जगाने के गीत, सुहाग सेज के गीत, बहू स्वागत के गीत, सगे – सम्बंधी से मजाक मसखरी के गीत और उलाहने और प्रशंसा रुपक गीतों की अधिकता रहती है, जिनसे शादी वाले घर की ऊर्जा ही कुछ अलग नजर आती है।
             ब्याह शादी के अवसर पर दूल्हे या दूल्हे के रिश्तेदारों तथा साथ ही नाई, मोची कामगारों तक को दूल्हन पक्ष की तरफ से ठिठोलियां में लोकगीत सुनाये जाते है कि…
             ‘काणा खोड़ा जानी लाया, कांई खायो घटको, सात सुपारी लाडा सिंगाड़ा रौ सटकौ…’
और
     ‘झाबर झोलो सगां रो नाई फूटरों राज
     बडो बरोडो सगां रो नाई फूटरों राज
     नाक चीणो सो, आंख बटण स्यी
     धमधोळो सगां रो नाई फूटरों राज…’
ये लोक की विशेषता है कि साधारण जीवन में भी वो मनोरंजन ढूंढ लेता है।  ये मसखरी का अलग रुप होते है। इनसे रिश्तों नातों में आपसी जुड़ाव और मिठास भरती रहती है।
         मांगलिक गीतों संग हंसी मजाक और उलहाने के गीतों को भी गाया जाता है। इनको आम भाषा या लोक भाषा में ‘गाळ’ या ‘सींठणा’ कहां जाता है।
         भाई बहन के प्रेम का अविस्मरणीय पल वो होता है जबकि बहन के बच्चों की शादी में भाई मायरा या कहे कि भात भरता है, उसे चूंदड़ी ओढ़ाता है। और अपनी तरफ से बहन को नेग देता है तब बहन हर्षित मन से मार्मिक होकर गाती है कि…
 ‘बीरा रीमा झिमा हो आईजो
 सिरदार भतीजा सागे ल्याजो जी
 बीरा रीमा झिमा हो आइज्यो
 बीरा थे आइज्यो भाभज ल्याई जो
 बीरा माता रो में मंड ल्याइजो
 म्हारे रखड़ी रत्न जड़ाईजो जी
 बीरा रीमा झिमा हो आईजो….’
              राजस्थानी भाषा में हर प्रांत कि अपनी भाषा या कहे कि बोली वैशिष्ट्य है और उसी अनुसार इन लोकगीतों का प्रचलन है। इनमें  हर प्रांत कि अपनी राग की ढाळ और शब्दों का उतार चढ़ाव होता है।
हर जाति के अलग अलग रीत रिवाज के अनुसार भी अलग-अलग लोकगीतों का प्रचलन है। और साथ ही विभिन्न जातियों के रहन सहन, काण कायदे, उठ बैठ, समाजु व्यवहार पर भी लोकगीत रचे और बसे है।
            राजस्थानी लोक गीत सरल तथा साधारण वाक्यों से ओत-प्रोत होते है और इसमें लय को ताल से अधिक महत्व दिया गया है।
विविध लोकगीतों में वे गीत गिनाये जा सकते है जो भक्ति, धर्म, प्रकृति, देवी देवताओं, तीर्थो, व्रतों, खेती, विदाई, मांगलिक अवसरों से सम्बन्धित है.
परिवार के लोकगीतों में पवित्र प्रेम और पतिव्रत का अनूठा मेल है तो प्रेम गीतों में विरह और मिलन का अनोखा सामंजस्य है।
पारिवारिक रिश्तों में पति – पत्नी, ननद – भौजाई, बहन – भाई, मां – बाप, सास – ससुर सभी के साथ हद्यय के भाव और कलेजे की कूक है तो वहीं अनोखे रुप से सगे – सम्बिधयों को दिये जाने वाले व्यंग्य, हंसी – मजाक और ठिठौली का अलहदा स्वरूप है।
श्रृंगार रस और भाव का राजस्थानी रंग में महत्वपूर्ण स्थान है। पति-पत्नी हो या प्रेमी युगल दोनों ही आपस में एक दूसरे को उलाहना या मसखरी इन गीतों के माध्यम से बड़े ही अलहदा रुप में देते हैं।
पत्नी पति के बाहर जाने पर कहती है कि…
        ‘बाईसा रा बीरा, जयपुर जाईजौ सा, बठा सूं लाइजौ तारा री चुंदड़ी…’
वो प्रेम की निशानी की मांग करती है। और उसी पति के देसावर से वापसी पर हर्षित हो कर‌ वो कहती है कि…
           ‘म्हारों झलालौ बिलालौ मतवालौ, म्हारौ केसरियो बलम घर आवसी…’
लोकगीतों की कड़ी में ये अनोखा लाख टके का भाव‌ है।
तीज त्यौहार पर नाच करती, घूमर डालती वही कहती है कि…
            ‘म्हारी घूमर छै नखराली ऐ मां,
            घूमर रम्मबा म्है जास्यां…’
  इसमें उसका उत्साह चरम पर होता है। साज श्रृंगार और गीत नाच उसके जीवन के उत्साह को परिपूर्ण करते है।
         विरह भी प्रेमियों के बीच का सच है जिसे बहुत ही दुख भरी राग और कुरजां पक्षी को सम्बोधित करते हुए वो कहती है कि…
        ‘सुपनो जगाई आधी रात में
          तनै मैं बताऊँ मन की बात
          कुरजां ऐ म्हारा भंवर मिलादयो ऐ
          संदेशो म्हारे पिया ने पुगाद्यो ऐ…’
      इस लोकप्रिय गीत में कुरजां पक्षी को संबोधित करते हुए विरहणियों द्वारा अपने प्रियतम की याद में गाया जाता है, जिसमें नायिका अपने परदेश स्थित पति के लिए, प्रेमी के लिए कुरजां को सन्देश देती है।
           कौवे का घर की छत पर आना मेहमान आने का शगुन माना जाता है। कौवे को संबोधित करके प्रेयसी अपने प्रिय के आने का शगुन मानती है और कौवे को लालच देकर उड़ने की कहती है कि…
           ‘उड़ उड़ रै म्हारा काळा रै कागला
           जद् म्हारा पीवजी घर आसी….’
            प्रकृति सम्बंधी लोकगीतों की भी राजस्थानी में भरमार है। ‘आंबौ मोरियो’ फलनै फूलनै का और बेटी की विदाई का द्योतक है, तो कोयल बेटी के लाड का नाम, कि जिसके मधुर कंठी होने से घर आंगन उल्लासित रहता है। पुरुष इन गीतों में सुवा यानि तोते को प्रतीक मान कर बोला गया है। और कुरजां पक्षी बहन भाई के बिछोह और प्रेम का प्रतीक है। ‘तोडड़ली’ में पक्षुओं और ‘अरणी’ में वृक्षों के साथ मनुष्य की ममता झलकती है।
राजस्थानी लोक, लोकगीत संस्कृति के अंतस के उस झीने रुप को दर्शाता है जहां समानता, प्रेम, और एकरुपता की नेह रुपी बारिश है। जीवन रुपी बगिया के सुंदर पुष्प जैसे लोकगीत लोगो के रग रग में बसे हैं।  लोक देवी देवता इसीलिए हितकारी रुप में गीतों में गाये जाते है।
             राजस्थानी लोकगीतों में लोक देवी देवताओं का भी प्रमुख स्थान है। हर वर्ग, हर प्रांत, हर जाति और अलग अलग बोलियों के हिसाब से लोकदेवताओं में आस्था को दर्शाया गया है। फसलें पकने पर, खेती करते समय, व्रत त्यौहारों पर, हारी बीमारी में लोक देवी देवताओं की, भोमिया जी, झूंझार जी, सती या बलिदानी शूरवीर के भजन और अंखड पाठ कर रात जगाई जाती है, और ये ग्रामीण जीवन का प्रमुख आधार भी है।
           राजस्थानी लोक गायन में तेजा गायन अपना प्रमुख स्थान रखता है। जब फसलें भरपूर होती है और पक जाती है तथा सामूहिक रुप से उनको काटने का समय होता है तब उत्साह, जोश और श्रद्धा भाव से तेजाजी महाराज का आह्वान किया जाता है और किसान गाता है कि…
           ‘गाज्यों गाज्यों जेठ अषाढ़ कवंर तेजा रै
           अबकालै तो गाज्यौ सावन भादवौ…’
 और
‘गांव तो खरनाळ्यो ये… साळ्यां म्हारी जाति तो धौळ्या री ओ
नानेरो आठ्यासण ओ.. आज म्हे तो रायमल जी जाटां के ओ…’
और, कहते है कि…
‘बैगा सा उठो तेजा, लाडकड़ा म्हारा ओ
बैळ्यां का बायोड़ा मोती नीपजे हई रे…’
              लोकगीतों को बढावां देने में औरतों कि महत्वपूर्ण भूमिका है। और साथ ही इन गीतों के लिखने वाले, रचने वाले लोकगायकों का भी महत्वपूर्ण हाथ रहा है।
             इन लोकगीतों में मृत्यु के दुख को भुलाने के लिये भी हरजस किये जाते है। मिथ्या संसार की मिथ्या बातें इनके द्वारा समझाई जाती है। ये भक्ति गीत है, हरजस का अर्थ है हरि का यश अर्थात हरजस ।
             लोकगीत हमारे सामाजिक जीवन का सुगठित और सच्चा अंग होते है। इन गीतों का मूल उद्देश्य फकत हंसी मजाक और मनोरंजन ही नहीं होता है अपितु ये गीत पूरे लोक को आईना होते है। अधिकांश समाजिक पहलूओं को गहराई से इसमें देखा जा सकता है।
             केसरिया बालम, मोरुड़ो, झोरावा गीत, मूमल, जीरा गीत,बिछुड़ा, पंछीड़ा, ओल्यूं, बिणजारा, बधावा, दारूड़ी, कलाली, मारूड़ी, राणा जोगी, गढ़ गीत, हिचकी, बारहमासा, मायरा, पिणहारी, मोरिया, हिचकी, गोरबंद, इण्डाणी, चिरमी, सुवटिया और अनेकों अनेक ऐसे लोकगीतों का भंडार राजस्थानी संस्कृति में रचा बसा है।
              देवेन्द्र सत्यार्थी के अनुसार ‘किसी भी देस की भाषा के इतिहास को समझने जानने के लिए लोकगीत अच्छा माध्यम है। लोकगीतों के एक एक शब्द से मानव की भाषा, संस्कृति और उसमें होने वाले बदलाव का पता चलता है।’… लोकगीतों का सीधा संबंध गांव देहात से होता है। इन गीतों में लोक का अतीत शामिल होता है और एक पीढी से दूसरी पीढ़ी ये बिना किसी लिखित विधान के सूपैं जाते है। ये गीत भूले बिसरे जीवन जगत की कहानियां सुनाते परिलक्षित होते है। जन्म से लेकर मरने परने तक के संस्कारों से लोकगीत सजे है और यही लोक की रीत है। संस्कृति है कि सभी आणै टाणै पर गीत गायै जाने चाहिए।
          बदलाव प्रकृति का नियम है। जब जीवन के सभी क्षेत्रों में बदलाव और मशीनीकरण  हुआ है तो हमारे लोक और लोकगीतों में भी  बदलाव आया है।
          अब मशीनी युग में जहां मनुष्य मशीन बनने की और अग्रसर है वहीं ये संस्कृति, ये लोक, ये गीत हमें जड़ो से जोड़े हुए हैं। संस्कृति मनुष्य का जीवन है, संजीवनी है।
          सार रूप से कहा जा सकता है कि समाज के विकास के साथ-साथ देखने और सुनने वाले संचार माध्यमों से समाज में बदलाव आया है। भूमंडलीकरण के इस दौर में मौखिक साहित्य पर खतरा है। सिनेमा, मिडिया, मोबाइल के बढ़ते रुप व नित नई इलेक्ट्रॉनिक साधनों से हमारी लोक संस्कृति पर गहरी चोट हो रही है। लोक संस्कृति जितनी समर्थ होगी उतना ही उस देश का, प्रदेश का नैतिक और सामाजिक जीवन समर्थ बनेगा। आज समय कि मांग है अपनी लोक संस्कृति, लोक गीतों के स्वरूप को बचाने की। लोकगीत लोक की धरोहर है, और लोक संस्कृति की आत्मा है और लोक की आत्मा को बचाया जाना हमारा धर्म है।
संतोष चौधरी 
संपर्क – santoshjakhar111@gmail.com

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