उस घर के बंद दरवाजे की ओर ताकते हुए वह अक्सर सोचता, ‘कभी कोई फेंस के पास, खिड़कियों के पार या बरामदे में दिखलाई क्यों नहीं देता?’
बेटा रौनक भी प्रायः पूछता, “पापा! उनके घर के दरवाजे हमेशा बंद क्यों रहते हैं?”
शाम को इस घर का मालिक सुकेश बेटे के साथ खेलने, लाॅन चेयर पर सुस्ताते हुए नजर आता। उसकी निगाहें अनायास सामने उठ जातीं। शायद किसी की परछाईं…। शाम रात में बदल जाती, वह दरवाजा नहीं खुलता। वह आठ बजे अंदर चला आता।
उस मकान के दरवाजे पर लगा बड़ा सा ताला रात गहराने पर लगभग नौ बजे खुलता। सवेरे दस बजे बाहर से बंद होता। सुकेश सात पंद्रह तक विद्यालय के लिए निकल जाता। तीन बजे तक छुट्टी। बच्चों के बीच रहते हुए वह बच्चों की मासूमियत को बेहद प्यार करने लगा था।
वह समझ भी नहीं पाया, वे आखिर कैसे लोग हैं, कितने लोग हैं? रौशनी की लकीरें बंद दरवाजे के पार से झाँक किसी की उपस्थिति की चुगली खाती रहतीं।
शुरू-शुरू में सुकेश सोचता, ‘झिर्रयों से झरती रौशनी की इन लकीरों के लिए उन्हें जाकर टोके,
“दिन भर क्यों लाइट जलाते हैं? सेव पावर।”
एक बार गया था। बेल बजाई, तो अंदर से ही किसी ने रूखाई से कहा था,
“कौन है? क्या चाहिए?”
“कुछ नहीं चाहिए। मैं आपका पड़ोसी। बस, मिलना…।”
“मुझे नहीं मिलना। जाइए वापस। न जाने कहाँ से…। दूसरे के घरों में ताक-झाँक…?”
प्रतिप्रश्न से उदास, अपना सा मुँह लेकर उसका मिलनसार मन लौट गया था। आते ही रिया से कहा था,
“कैसे हैं ये लोग! घर आए अतिथि के साथ कोई ऐसे विहेव करता है। इतना रूखा स्वर!”
पर उसे अक्सर आवाजें परेशान कर डालतीं। रौनक के साथ खेलते हुए भी,
“गों ऽऽ! गों ऽऽऽ!!”
“अरे! कोई तो अंदर छूटा रह जाता है।”
“शायद डाॅग है पापा!”
सिक्कड़ के खिसकने, मेज-बर्त्तन खड़कने की आवाज़ें! वह नहीं चौंकता…आम घरों से उठनेवाली आवाज़ें।
उसके चौंकने की वज़ह थी, बंद मकान से भी उठा करती थीं वे आवाज़ें!
किसी की बंद ताले के पार से उपस्थिति का आभास! फिर मन को समझा लेता।
रिया कहती, “किसी के फटे में झाँकने की आदत तो तुम्हें थी नहीं, इस नए मकान में ऐसा क्या अजूबा…?”
“कुछ… कुछ तो है। अजूबा ही है रिया।”
“चलें अंदर? कुछ भी ऐसा-वैसा नहीं है। ये फ्लैट कल्चर के लोग हैं। बड़े क्वार्टर में आ फँसे हैं, बस!”
“इतना भी क्या कटना!… इतनी भी क्या प्राइवेसी!”
“भूल गए संतोष को? फ्लैट में केवल बीवी, बच्चे और मेड को जानता-पहचानता था। एक फ्लोर पर पाँच फ्लैट लेकिन किसी ने किसी का चेहरा नहीं देखा था।”
वह नहीं भूला था।
संतोष के पत्नी-बच्चे नाना के घर गए थे। अकेला संतोष बाथरूम में गिरकर बेहोश पड़ा रह गया था।फोन करने पर भी भनक नहीं लगी उसकी ऊषा को। वह दो-दिन तक आॅफिस, घर में फोन घुमाती रह गई। जब तक ट्रेन घर पहुँचाती गुमनाम सी लाश पड़ी रही थी।
अब तक उसे सालती है संतोष की ऐसी मौत।
सुकेश दोपहर को लौटते ही एक दिन उस घर के फेंस की ओर बढ़ गया, अप्रत्याशित। चारों ओर की खिड़कियाँ , दरवाजे बंद। पिछवाड़े गया।
“गों ऽऽ! गोंऽऽऽ!!”
कौन सा पशु है भई। पीछे के द्वार की झिर्री से उसने आँखें जोड़ लीं।
पिछला दरवाजा एक आँगन में खुल रहा था, उसके क्वार्टर की तरह। आँगन का बड़ा भाग सामने। उसके पार से बड़ा बरामदा भी झाँक रहा था। आँगन में वहीं पड़े मेज से बँधा सिक्कड़, बड़ा सा लुढ़का कटोरा भोजन से लिथड़ा था। बरामदे पर एक बेड भी किनारे पड़ा था।
बहुत देर खड़ा रहा सुकेश सुगबुगाहट को पकड़ने की कोशिश करते हुए। कोई भी नजर नहीं आया। अंततः वह लौट आया।
रिया सुनकर चौंकी जरूर पर इसमें कुछ अस्वाभाविक नहीं लगा उसे।
“पालतू के घर में रहने पर सब स्वाभाविक है।”
वह शाम की तैयारियों में व्यस्त रहते हुए बोली।
शाम को रौनक के साथ क्रिकेट खेलते हुए भी सुकेश का ध्यान वहीं था।
दूसरे दिन सुकेश फिर बगलगीर के पिछले दरवाजे पर। आज भी दरवाजा अंदर से बोल्ट। कुछ तो नया नहीं। थोड़ी देर बाद आज भी लौटा।
लेकिन तीसरे दिन उसने अजूब देख ही लिया।
वही सिक्कड़ !… सिक्कड़ खड़का और एक चौपाया एक तरफ से सरकता दूसरी तरफ चला गया। वह चौंका। उसकी आँखें झिर्री से चिपक रहीं। चौपाया पुनः उस ओर आया। सुकेश ठीक से देख नहीं पाया। थोड़ी देर बाद वापस लौटना ही चाहता था कि चौपाया एकदम सामने आ, दरवाजे की ओर एकटक देखने लगा।
सुकेश की ऊपर की साँस ऊपर, नीचे की नीचे।
एक किशोर था वह। कृशकाय। विकलांग और अर्द्धविक्षिप्त।
“गों ऽ ! गोंऽऽ !!” – उसके मुँह से अस्फुष्ट आवाज़ निकलने लगी फिर। सुकेश थोड़ी देर में लौट गया।
‘नहीं। अब और नहीं।… मेरा इंट्यूशन एकदम सही था।’
उसी क्षण उसने ठान लिया। उस दिन उसने गोल-मटोल, घुँघराले बालोंवाले बेहद खूबसूरत रौनक को और प्यार किया। पप्पी से उसका मुँह भर दिया। उसके साथ देर तक खेलता रहा…खूब देर तक।
कल पार्क घूमने ले जाने और आइसक्रीम खिलाने का वादा भी। शाम क्षितिज के ललहुन सूर्य को विदा कह चुकी थी, वह वहीं बैठा रहा। विदा होते सूर्य ने अपना पीला, गुलाबी दुप्पटा समेट लिया, वह बैठा रहा। रात का खामोश अँधेरा गहराया, वह बैठा रहा। रिया तीन-चार बार अंदर आने का निमंत्रण दे चुकी थी। उसने हाथ के इशारे से मना कर दिया। वह टकटकी लगाए रहा।
नौ बजे दो सायों को जैसे ही उसने फेंस पार करते देखा, वह उठ गया। साए बरामदे की ओर बढ़े, वह लपकता वहाँ जा पहुँचा। वे दरवाजा खोलकर अंदर दाखिल हो रहे थे, अंदर से किलकारी की आवाज आने लगी थी। सिक्कड़, मेज के खिसकने की भी।
स्त्री आगे बढ़ चुकी थी। मर्द भी आगे बढ़ा।
“संजू, डोर बंद करो।”
एक स्त्री स्वर सुना सुकेश ने, जब वह दरवाजे से अंदर प्रवेश कर रहा था। स्त्री ने आहट से चौंककर पीछे देखा। देखती रह गई विस्फारित नेत्रों से। पुरुष अपने बैग को टेबल पर रख, उस पतले-दुबले विक्षिप्त किशोर के सर पर हाथ फेर रहा था। गोरे लेकिन झँवलाए किशोर की नजर सुकेश पर पड़ी।
“संजू, इसने तंग तो नहीं किया। खाना खाया था?”
पास ही खड़ी एक अधेड़ महिला से वह पूछ रहा था। उसका ध्यान अंदर घुस आए अजनबी आगंतुक की ओर एकदम नहीं था। फिर अचानक वह पलटा।
सब हतप्रभ हो गए। दोनों पति-पत्नी कुछ देर गुस्से, शर्मिंदगी, अफसोस से सुकेश को देखते रहे। फिर पहले पति की नजरें नीची हुईं, तब पत्नी की। वे सुकेश की नजरों से छिपना चाह रहे थे।
सुकेश ने एक निगाह उस बेतरतीब कमरे पर डाली। सबके उदास, लज्जा से झुके चेहरे को देखा। आगे टी. वी. स्टैंड के पास गया, ठिठका और फिर बाहर।
इस बीच उसने न एक शब्द कुछ कहा, न पूछा। लौटते हुए एक निगाह उन लोगो पर पुनः डाली, बस!
“अरे! यह कागज कैसा? रितेश, उसने रखा है।”
पत्नी ने साश्चर्य कागज उठाया। पढ़ा। उसकी आँखें नम हुई। हाथों में थरथराहट भर गई। काँपते हाथों से खत पति की तरफ बढ़ा दिया। पति ने भी पढ़ा। वह बेजान कागज नहीं, एक पत्र था… जीवंत —
कुछ गुम जाने से ये जीवन खत्म नहीं हो जाता दोस्त। जीवन तो चलता ही रहता है। आप चलो, न चलो…वह रुकेगा नहीं। फिर हम क्यों रुक जाएँ!
इस मासूम को इसके हिस्से की धूप, हवा, पानी लेने दो। देखना, यह कैसे फलता-फूलता है। कुदरत के इस खेल में तुम्हारा, इसका या किसी भी मनुष्य का क्या दोष?
क्यों बाँधकर रख दी इस कोंपल की बढ़त?
तुम्हारे एक हमदर्द पड़ोसी ने तुम्हारे दर्द को जानने की जुर्रत की है। अंदर से आनेवाली किलकारी या आह की अनदेखी नहीं कर सका वह। क्षमाप्रार्थी!
पड़ोसी के घर का गेट तुम्हारे लिए सदा खुला है। मेरा बेटा रौनक अभी छोटा है। खेलने-कूदने की उम्र है उसकी। तुम्हारे बेटे की भी। रौनक तुम्हारे बेटे का इंतजर करेगा। आओगे न?

10 टिप्पणी

  1. बहुत मार्मिक कहानी है। समझ ही नहीं आ रहा कि इस कहानी की प्रतिक्रिया किस तरह से दी जाए। जन्म लेना अगर इंसान के हाथ की बात होती तो हर शख्स बहुत सुंदर होता, स्वस्थ होता। पर जो चीज हमारे हाथ में नहीं है उसके लिए किसी को सजा नहीं दी जा सकती वह भी अपने बच्चे को!!!!
    वाकई सुकेश बहुत अच्छा इंसान रहा और उसने जो भी किया बहुत सही किया।
    हृदय परिवर्तन सहजता से नहीं होता।
    अंत तक जिज्ञासा और परिणाम जानने की उत्सुकता बनी रही। यही किसी कहानी की सार्थकता है।
    बेहतरीन कहानी के लिए बहुत-बहुत बधाइयाँ आपको

  2. बहुत सुंदर और मार्मिक कहानी। सच किसी के वश में नहीं जो कार्य उसे हम कौन होते हैं आगे बढ़ने से रोकने वाले? अंत बढ़िया
    बधाई अनिता जी

  3. ओहो बहुत मार्मिक कहानी दिल अंदर तक भर आया! सुकेश ने एक अच्छे पड़ोसी का धर्म निवहाया! शारीरिक विकलांगता के लिए माता-पिता दोषी नहीं होते फिर शर्म कैसी ?..किन्तु अक्सर यह देखने में आता है माता पिता या परिवार खुद शर्मिदगी महसूस करते है !

  4. मन को झकझोर गई कहानी दी, पढते पढते यूँ लगा *उस घर* के कुदरत की उस बेबस कृति और उससे जुड़े इंसानों का कृत्य सजीव देख रही हूँ! बहुत मार्मिक कहानी

  5. बहुत सुंदर कहानी रश्मि जी.मन कौ छू लेने वाली .आंखें नम हो जाती हैं पढते.समय..उत्सुकता. . जिज्ञासा .चरम होती है पाठक जानना चाहता.है और आगे .इसलिए कहानी की तारतम्यता टूटती नहीं.प्रेरक कहानी..बहुत बहुत बधाई

  6. बहुत मर्मस्पर्शी कहानी, हम क्यों विक्षिप्तता को स्वीकार कर उन्हें एक नया आयाम देने का साहस नहीं कर पाते हैं। एक सजा बना देते हैं उनका जीवन। बहुत अच्छा संदेश दिया है अंतिम पंक्तियों में।

  7. इस तरह के विकलांग(दिव्यांग) बच्चों कोई कोई भी सहजता स्वीकार नहीं कर पाता है । न तो उसके माता-पिता न ही समाज। पर इस सोच से बाहर आना बहुत ही आवश्यक है। इसमें किसी का दोष नहीं है न ही बच्चे का ना ही जन्म देने वालों का। बल्कि स्तिथि को स्वीकार करने से बच्चे की अवस्था में सुधार भी लाया जा सकता है। और उसकी यातना और पीड़ा को कम किया जा सकता है। अनिता रश्मि जी ने जो अक्सर किया जाता है ऐसे बच्चों के साथ उसका मार्मिक चित्रण किया।

  8. आह! ऐसा सृजन मेरी आँखों से कैसे बचा रहा। मुझे मेल कीजिये। संकलन में रखने के लिए।

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