बुंदेले हरबोलो के मुख हमने सुनी कहानी
खुब लडी मरदानी वह थी, झाँसी वाली रानी
उपरोक्त पंक्तियाँ कानों पर पड़ते ही भारत की वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई अपने दत्तक पुत्र को पीठ पर बांधे घोड़े पर सवार हुई प्रति साक्षात रूप में आंखों के सामने आ पड़ती हैं। जिसे हम सभी छुटपन से जानते और सुनते आये हैं। लेकिन बुंदेलखंड के इतिहास में एक और महिला योद्धा वीरांगना का नाम बड़े ही आदर-सम्मान के साथ लिया जाता है जिसने अंग्रेज़ों के खिलाफ राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास में समाज के सामने अपनी वीरता का सांस के अंतिम छोर तक लडाई का प्रमाण दिया है। यह महिला योद्धा कोई और नहीं वीरांगना झलकारीबाई कोरी थी जिसने १८५७ की पहली जंग-ए-आजादी में झाँसी की रानी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लडी थी। झलकारीबाई कोरी रानी लक्ष्मीबाई के पति राजा गंगाधर राव की सेना में एक सैनिक पूरनसिंह कोरी की धर्म पत्नी थी।
झाँसी के पास भोजला गाँव में २२ नवम्बर १८३० को मेघवंशी दलित समाज में झलकारीबाई ने जन्म लिया। उनके पिता का नाम सदोवर सिंह और माता का नाम जमुनादेवी था। मां की मृत्यु उनके बचपन में ही हो गई थी। इस गाँव के अधिकांश लोग बुनकर का काम करके अपनी रोज़ी रोटी चलाते थे। परिवार की आर्थिक स्थिति ठिक ना होने के कारण झलकारीबाई प्रारंभिक शिक्षा भी ग्रहण नहीं कर पाई थी। झलकारीबाई के पिता ने एक बेटे की तरह उनका पालन पोषण किया था। उन्हीं के समाज के पूरनसिंह कोरी झाँसी के सेना में एक तोपची सैनिक थे और जो राजा गंगाधर राव के ही तोपखाने की रखवाली किया करते थे। झलकारीबाई का विवाह पूरनसिंह कोरी के साथ हुआ था। पूरे गांव वालों ने झलकारी बाई के विवाह में भरपूर सहयोग दिया। विवाह पश्चात वह पूरनसिंह के साथ झांसी आ गई थी। वो झाँसी किले के दक्षिण में उन्नाव द्वार के करीब रहते थे। झलकारीबाई का भी अपने पति जैसे झाँसी की रक्षा करने तथा देश की स्वतंत्रता की लडाई में भाग लेने का जुनून सवार था।
झलकारीबाई बचपन से ही बहुत साहसी और दृढ़ थी। उन्होंने घुड़सवारी और शस्त्र की शिक्षा ग्रहण की और खुद को एक अच्छा योद्धा बनाया। उनकी वीरता के किस्से पूरी झाँसी में मशहूर थे। बचपन में एक बार जंगल में लकडियाँ तोडते समय उनकी बाघ से भिड़त हो गयी थी। दोनों के भिड़त में झलकारी बाई को बाघ ने अपने पंजों से झलकारी के शरीर पर घाव बना दिए थे। लेकिन झलकारी बाई ने हिम्मत नहीं हारी और कुल्हाडी से बाघ के सर पर कई वार किए। कुछ ही देर में आदमखोर बाघ निर्बल होकर गिर पड़ा। इस तरह बडी कुशलता के साथ झलकारी बाई ने उस बाघ को मार गिराया था।
एक अन्य अवसर पर जब डकैतों के एक गिरोह ने गाँव के एक व्यवसायी पर हमला किया। गाँव के लोगों में भगदड़ मच गयी और सभी लोग डाकुओं के डर से अपने ही घर में दुबक कर बैठ गये थे। पर झलकारी बाई ने बडी निडरता और साहस से अपने घर में रखी हुई तलवार निकाली और उन डाकुओं पर टूट पड़ी। उस छोटी सी पर निडर और निर्भय झलकारी ने बडी ही फुर्ती से डाकुओं के सरदार को पटक कर उसके गरदन पर अपनी तलवार धर दी। उस डकैत के बाक़ी डाकू लोग जिसे अब तक छोटी और नादान बच्ची समझ रहे थे उसका खुंखार रूप देखकर दंग रहब गए और उन्होंने अपने अपने हथियार डाल दिए। उनमे से कोई आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं कर रहा था। झलकारी बाई की निर्भयता देखकर बाक़ी गाँव वालों को भी जोश और हिम्मत आ गयी और वे सभी लाठी-भाला-तलवार  लेकर डाकुओं से लड़ने आ खड़े हुए। सारे डाकुओं ने वापस जाने में ही अपनी भलाई समझी। पर बात इतने पर बात यहाँ नहीं रुकी थी। उस छोटी महिला योद्धा झलकारी बाई ने उस डकैत प्रमुख से इस गाँव की तरफ़ क़दम ना रखने की भी क़सम ली। उस डकैत प्रमुख ने झलकारी बाई की बहादूरी और साहस को देखते हुए उसके सामने नतमस्तक होकर हाथ जोडे और कभी इस गाँव की तरफ़ न आने का वचन भी दिया।
बहादूरी और वीरता के साथ उन्होंने अपने पति पूरनसिंह से तीरंदांज़ी, कुश्ती, निशाने बाजी, घुड़सवारी, युद्ध क्षेत्र के दाँव पेंच सब सीख रखे थे। वह कभी-कभी अपने पति के साथ राजमहल भी जाया करती थी। झलकारी बाई की शक्ल रानी लक्ष्मी बाई से हूबहू मिलती थी। एक बार गौरी पूजा का अवसर था और झलकारी बाई बाकी महिलाओं के साथ मिलकर रानी लक्ष्मी बाई का सम्मान करने पहुंची। उस समय झांसी की रानी उन्हें देखते ही अवाक रह गई थीं क्योंकि झलकारीबाई बिल्कुल उनकी तरह दिखती थी। शुरूआत में वहाँ एक नौकरानी के रूप में काम करने लगी। रानी लक्ष्मीबाई को उनकी बहादुरी के बारे में पता चलने के बाद, वे उनकी अच्छी सहेली बन गयीं। कुछ महीनों पश्चात उनकी देशभक्ति तथा स्वतंत्रता की लडाई के जुनून को संदर्भित करते हुए उन्हें अपने विश्वसनीय सलाहकारों की टुकडी में एक महिला सैनिक की भांति भर्ती कर लिया। एक बार अंग्रेज़ों के खिलाफ मुठभेड में पूरनसिंह शहीद हो गए। इसी बात का दुख और क्रोध अपने मन में रख कर अंग्रेज़ों के खिलाफ संघर्ष में उन्होने झाँसी के रानी के साथ कंधे से कंधा मिला खड़े रहने का निश्चय कर लिया।
रानी लक्ष्मीबाई के पति गंगाधर राव के मौत के पश्चात अपने झाँसी को बचाने रानी ने अपनी कमर कस ली। लार्ड डलहौजी की हड़प नीति के कारण रानी लक्ष्मी बाई अपने उत्तराधिकारी को गोद नहीं ले सकती थी। इसी के विरोध ने रानी लक्ष्मीबाई और उनकी सेना ने अंग्रेज़ों के खिलाफ विद्रोह (१८५७ का स्वतंत्रता संग्राम) का निर्णय लिया। जिसके साथ साथ आसपास के छोटे-बड़े राजाओं और सामंतों से अंग्रेज़ों के खिलाफ संघर्ष की गुहार लगायी पर किसी की मदद करने की हिम्मत नहीं हुई। ऐसे में जो इतिहास में कभी नहीं हुआ वह होने जा रहा था। उन्होने झलकारीबाई की मदद से दलित और पिछडे समाज के लोगों को जोडना शुरू किया और एक मज़बूत सेना की टुकडी का गठन किया। जिसका झलकारीबाई को इस सेना का सेनापति बनाया गया और सेना दल का नाम ‘दुर्गा दल’ रखा गया। माता दुर्गा के समान दानवों और शत्रुओं का सर्वनाश करने वाला दल।
झलकारीबाई की शारीरिक रचना, चेहरा, मोहरा, काफ़ी कुछ रानी लक्ष्मीबाई से मेल खाता था। उनके साथ रहने की वज़ह से झलकारीबाई उनके ही तरह चाल-ढाल भी सीख गयी थी। लक्ष्मीबाई का चरित्र काफ़ी जनोन्मुख चरित्र था। झलकारीबाई का रानी के इतने करीब आना नामुमकिन क़तई नहीं था। झलकारीबाई के उन्मुक्त स्वभाव के कारण रानी कहती थी, “काश! हमारे देश में ऊँच नीच का भेद भाव नहीं होता तो सब जातियों के चुने हुए लोगों को तोप और बंदूक चलाने का प्रशिक्षण देकर अपने देश की रक्षा करना कितना लाभ दायक होता।” रानी लक्ष्मीबाई के सानिध्य में झलकारीबाई का चरित्र इतना सशक्त बनता जा रहा था कि वह भी अपने देश की रक्षा के बारे में सोचने लगी थी।
१८५७ में भारत आजादी का विद्रोह शुरू हो चुका था। ब्रिटिश जनरल ह्युरोज ने अपनी विशाल सेना के साथ २३ मार्च १८५८ को झाँसी पर आक्रमण कर दिया था। पूरे झाँसी में तनाव और दुख का माहौल था। परंतु रानी लक्ष्मीबाई की सेना वीरता पूर्वक अपने सैन्य दल से उस विशाल सेना का सामना कर रही थी। रानी कालवी में पेशवा द्वारा सहायता की प्रतीक्षा कर रही थी। लेकिन दूर-दूर तक कोई शुभ समाचार और सहायता नहीं मिल रही थी। उस वक़्त तात्या टोपे भी अंग्रेज़ों के जनरल ह्युरोज से पराजित हो चुके थे। रानी अपने ही दम पर लडाई लडने की सोच रही थी। चारो तरफ़ बम गोलो की बौछार हो रही थी। झाँसी की प्रजा को बचाने की रानी भरसक कोशिश किए जा रही थी। अब ब्रिटिश सरकार की सेना झाँसी के उन्नाव दरवाजे तक आ पहुँची थी। स्थिति गम्भीर होती जा रही थी। रानी के काफ़ी सैनिक धराशायी होकर भूमि पर गिर रहे थे। रानी ने तत्काल एक गुप्त बैठक बुलाई जिसमें नाना साहब, झलकारी बाई और कुछ विश्वस्त सामंत उपस्थित थे। रानी ने अपनी विशाल सेना लेकर अंग्रेजों का सामना करने का प्रस्ताव रखा। लेकिन अंग्रेजों की रणनीति और सेना देखकर सभी ने रानी को युद्ध में ना उतरने का सुझाव दिया। सेना के सामने जानबुझ कर अपने प्राणों को दाँव पर लगाना यह समझदारी नहीं होगी। ब्रिटिश सरकार यही चाहती हैं कि आप महल से बाहर निकल कर युद्ध भूमि में जाए और उनका मनसूबा काम कर जाए। पूरे बैठक में सन्नाटा छाया हुआ था। किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था और यहाँ रानी युद्ध भूमि में जाकर लड़ने की जिद् पर अड़ी हुई थी। उन्होंने अपने सलाहकारो से कहा, “अंग्रेजों के भेदी महल के अंदर भी है। ये गद्दार छोटी-छोटी बात वहाँ तक पँहुचा रहे है। ऐसी स्थिति में चूहे की तरह बिल में चुपे रहने से तो अच्छा है कि हम शेर की तरह उन शत्रुओं पर टूट पड़े।” इस पर झलकारी बाई बोल पड़ी, “आप जैसी वीरांगना को हम यह नहीं करने दे सकते। आपका यह निर्णय वीरोचित तो है पर रणनीति के दृष्टि से उचित नहीं हैं। आपकी पराजय पूरे झाँसी की पराजय होगी और इतने आसानी से हम यह क़बूल नहीं कर सकते।” रानी ने अतिचिंतित होकर झलकारी बाई से पूछा, “तुम्हारे पास अन्य कोई हल या रणनीति हैं? “झलकारी बाई ने तुरंत जवाब दिया,” जी हाँ, पर कुछ कहने से पहले आपसे माफी चाँहुंगी। मुझे इस निर्णायक युद्ध के लिए आपके वस्त्र, पगडी और कलगी चाहिए। मैं आप बनकर अंग्रेज़ी सेना को चकमा दूंगी और उसी समय आप पीछे के गुप्त द्वार से अपने पुत्र को लेकर झाँसी से बाहर निकलकर अधिकाधिक सेना का गठन करें।”  
युद्ध की भयानक स्थिति को देखते हुए झलकारीबाई ने रानी से महल और झाँसी से बाहर चले जाने की विनती की। रानी के मना करने पर झलकारीबाई रानी से बोल पड़ी, “महारानी! आप रही तो झाँसी फिर से खड़ी हो सकेगी और अगर आप को कुछ हो गया तो हमारा होना न होना दोनों एक बराबर ही है इसलिए आप यहाँ से चले जाइए। मैं यहाँ अंग्रेज़ी सेना को चकमा देकर गुमराह करने की कोशिश करती हूँ। तब तक आप सुरक्षित झाँसी की सीमा से निकल जाए।” अपनी प्रजा को ऐसी हालत में और लड़ाई अधूरी छोड़ कर जाने के लिए रानी क़तई तैयार नहीं थी। झलकारीबाई भी रानी के साथ कंधे से कंधा मिला कर दुश्मनों के इरादो को पस्त करने का वादा दिया। कई जगह पर उन्हें लडाइ के अशुभ समाचार मिल रहे थे और असफलता हाथ लग रही थी। बाजी हाथ से निकलती दिखाई दे रही थी। झलकारीबाई ने उन्हें विश्वास दिलाया कि वह यहाँ सम्भाल लेगी। अगर जान भी देनी पड़ी तो पीछे नहीं हटूंगी पर झाँसी की रानी पर कोई आँच नहीं आने दूंगी। झलकारीबाई के इस वीरता और कर्तव्यप्रेम को देखकर आख़िर ४ अप्रैल, १८५८ की रात को झाँसी से निकलने का फ़ैसला किया।
रात बहुत गहरी होती जा रही थी। चारो तरफ़ सैनिकों के लड़ने और तलवारे टकराने की आवाज़ सुनाई दे रही थी। माहौल पुरा डरावना-सा लग रहा था। एक तरफ़ लक्ष्मीबाई की झाँसी को लेकर चिंता बढ़ती जा रही थी और दूसरी तरफ़ उसने झलकारीबाई से की हुई बातों का परिणाम परेशान किए जा रही थी। आखिरकार झलकारीबाई का विश्वास देखकर रानी महल के पीछे वाले गुप्त रास्ते से अपने पुत्र को पीठ पर बांधकर घोड़े पर सवार होकर निकल गई।
झलकारी बाई की हिम्मत को देख कर कुछ पंक्तियाँ इस तरह से अपने आप मुख से फुट पड़ती हैं,
लक्ष्मीबाई का रूप लेकर, झलकारी खड्ग संवार चली,
वीरांगना निर्भय लश्कर में, शस्त्र, अस्त्र तन धार चली
लक्ष्मीबाई के जाने के पश्चात झलकारीबाई ने अपना शृंगार किया। रानी लक्ष्मीबाई जैसे बढ़िया से कपड़े पहने, ठीक उसी तरह जैसे लक्ष्मीबाई पहनती थी। गले के लिए हार न था, परंतु काँच के गुरियों का कण्ठ उसके गले की शोभा बढ़ा रहा था। पौ फटते ही घोड़े पर सवार होकर अपने सेना की टुकडी के साथ अंग्रेज़ी सेना पर टुट पड़ी। अपनी तलवार बाजी के हुनर से कई अंग्रेज़ी सैनिक मार गिराए और जनरल ह्युरोज के साथ-साथ पुरी अंग्रेज़ी सेना को स्वयं रानी लक्ष्मीबाई होने का भ्रम रखा। आख़िर कार एक गुप्तचर से सूचना मिली की रानी झाँसी से सुखरुप झाँसी से बाहर निकल गयी है। ख़बर मिलते ही झलकारीबाई की हिम्मत और बढ़ गई और पूरे जोश के साथ शत्रुओं का समना करने में जुट गयी। परंतु उसकी हिम्मत ज़्यादा देर तक अंग्रेज़ी सेना के सामने नहीं टिक पायी और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। हालांकि उसे अपने पकड़े जाने का और जान की कोई परवाह नहीं थी इसलिए वह ख़ुद-ब-ख़ुद ब्रिटिश जनरल ह्युरोज की छावनी में जा पहुँची। उसे बाहर ही रोक लिया जिससे वह बौखला गयी और शेरनी जैसे दहाडने लगी कि उसे जनरल से मिलना है। यह ख़बर सुनकर जनरल ह्युरोज बहुत खुश हुआ। उसने तुरंत झलकारीबाई को बंदी बनाकर उसके सामने पेश करने का हुक्म दिया। झलकारीबाई को जनरल की छावनी के सामने पहुँचाया गया। वहा पहुँच कर भी वह अपने घोड़े से नीचे नहीं उतरी। उसका वैसा ही अभिमान, हेकडी दिख रही थी जैसे रानी लक्ष्मीबाई में होती थी।
जनरल ह्युरोज और पूरी अंग्रेज़ी सेना बहुत खुश थी कि उन्होने रानी लक्ष्मीबाई को पकड ही नहीं लिया बल्कि वह जीवित ही उनके हाथ लगी। परंतु उन अंग्रेज़ों को यह नहीं पता था कि यह तो झलकारीबाई की ही रणनीति थी कि वह अंग्रेज़ी सेना को उलझाए रखे और रानी को झाँसी से बाहर निकलकर अपनी ताकत जुटाने का समय मिल जाए। अंग्रेज़ी सेना में ख़ुशी का माहौल था और झाँसी पर मातम का साया। झलकारीबाई जनरल के सामने पहूँचते ही ललकार पड़ी, “रानी को कहाँ ढुंढते फिर रहे हो? मैं ख़ुद तुम्हारे पास आयी हूँ।” जनरल ह्युरोज ने उसकी बात सुनते ही उसे जान से मारने का हुक्म सुनाया। इस पर झल्लाकर झलकारीबाई बोल पड़ी, “मार दे, मैं का मरबे को डरात हैं? जैसे इते सिपाही मरे तैसे एक मैं सई।” उसकी बात सुनकर जनरल ने झलकारी बाई के वीरता और त्याग की प्रशंसा करते हुए कहा, “यदि भारत में एक प्रतिशत महिलायें भी इसके जैसी हो जाए तो ब्रिटिश सरकार को जल्द ही भारत को छोडना होगा। और फिर भारत को स्वतंत्र होने से कोई भी नही रोक पायेगा। ” उन्हीं अंग्रेज़ों की छावनी में झाँसी का एक गद्दार रहा करता था जिसका नाम था राव दूल्हाजू। उसे जैसे ही रानी पकड़े जाने की ख़बर मिली वह तुरंत झाँसी वासियों की नज़र बचाकर जनरल की छावनी में आ पहुँचा। झलकारीबाई को बेडियों से जकड़ा हुआ था चारों बाजू सैनिक तैनात किए गए थे। बेडियों में जकडी हुई झलकारीबाई किसी घायल शेरनी कि तरह आंखें लाल करके गुर्राह रही थी। दूल्हाजू ने थोड़ी हिम्मत करके आगे आकर रानी को ग़ौर से देखा। उसे देखते हुए दूल्हाजू पर झलकारीबाई झपट्टा मारने के लिए आगे बडी पर वह वहाँ से दूर होकर जनरल के सामने मस्तक झुकाकर खड़ा हो गया। जनरल के पूछने पर उसने बताया “यह झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई नहीं हैं। जनरल साहब! यह तो सैनिक पूरनसिंह की जोरु झलकारीबाई कोरीन है। इसका नयन नक्ष रानी के जैसे है पर यह रानी हो ही नहीं सकती।” यह सुनकर जनरल के पैरो तले ज़मीन खिसक गयी और अति गुस्सैल आवाज़ में उससे पूछा, “तुम्हें कैसे पता की यह रानी नहीं हैं?” तुरंत दूल्हाजू ने कहा, “साहब, रानी लक्ष्मीबाई कभी इस तरह सामने नहीं आ सकती। वह अपने उसूलों की बहुत पक्की और बहादूर है। वह जान दे देगी पर आत्मसमर्पण कभी नहीं कर सकती। जनरल ह्युरोज की तो हालत ऐसी हो गई कि काटो तो ख़ून ना निकले। फिर दूल्हाजू ने आगे कहा, “मायबाप, इसे मैं जानता हूँ यह कोरीन रानी की दासी के साथ-साथ दुर्गा दल की सेनापति भी हैं।” इस तरह उसने झलकारीबाई की पूरी वास्तविकता समझायी। पूरी बात सुनकर उनके साथ धोखा हुआ है यह जानकर जनरल ह्युरोज बहुत गुस्से में आ गया और उसने तुरंत झलकारीबाई का क़त्ल करने की आज्ञा दी। 
परंतु कुछ किवदंतियों के अनुसार यह भी कहा जाता है कि युद्ध के समाप्ति के पश्चात उन्हें रिहा कर दिया गया और फिर उनकी मृत्यु १८९० में हुई। जब की कुछ इतिहासकारों का मनना है कि जनरल ह्युरोज के हुक्म के अनुसार झलकारीबाई को ४ अप्रैल १८५८ की सुबह ही मार दिया गया। 
हालांकि वीर और साहस की प्रतिमूर्ति झलकारीबाई की मृत्यु को लेकर इतिहास में कोई ख़ास प्रमाण नहीं मिलते हैं। झलकारी बाई ने प्रथम स्वाधीनता संग्राम में झाँसी की रानी के साथ ब्रिटिश सेना के विरुद्ध अद्भुत वीरता से लड़ते हुए ब्रिटिश सेना के कई हमलों को विफल किया था। यदि रानी लक्ष्मीबाई के सेना में से एक ने उनके साथ विश्वासघात न किया होता तो झाँसी का क़िला ब्रिटिश सेना के लिए प्राय: अभेद्य था।
इसे अनुकरणात्मक रूप ही कहा जा सकता है कि झाँसी और अपने देश के लिए प्राणों की आहुति देने वाली भारत की इस बेटी झलकारीबाई कोरी का इतिहास बहुत जगह पढ़ने नहीं मिलता है। झलकारीबाई भारतीय महिलाओं में वीरता और साहस का प्रतीक हैं। उनके सम्मान में भारत सरकार ने एक पोस्ट टिकट और टेलीग्राम स्टैंप जारी किया है साथ ही भारतीय पुरातात्विक प्रावधान के अनुसार पंच-मल के संग्रह में झलकारीबाई कोरी के तस्वीर के साथ उनके दिए गए बलिदान का भी उल्लेख हैं। उनकी प्रतिमा और एक स्मारक अजमेर, राजस्थान में है। उत्तर प्रदेश सरकार ने उनकी एक प्रतिमा आगरा में स्थापित की है। लखनऊ में झलकारीबाई के नाम से एक हॉस्पिटल भी है। झलकारी बाई की एक समाधी स्थल के रूप में भोपाल के गुरु तेगबहादुर कॉम्प्लेक्स में स्थापित की गयी हैं। जिसका अनावरण भारत के मौजूदा राष्ट्रपति रामनाथ कौविंद द्वारा १० नवम्बर २०१७ को किया गया। 
इतिहास के पन्नों से लुप्त एक महान दलित महिला योद्धा पौराणिक लोक कथाओं से वंचित रह गयी हैं। हालांकि बुन्देलखंड के लोगों की लोक स्मृति का वह एक हिस्सा आज भी है। उनके स्मृति में और उनके बहादूर करतब वहाँ आज भी सुनाए जाने वाली लोक कथाओं में उनका ज़िक्र बार-बार आता है। वहाँ के मेघवंशी दलित समुदाय में आज भी उन्हें भगवान के अवतार के रूप में देखते हैं और उनके सम्मान में हर साल वीरांगना झलकारीबाई कोरी जयंती मनायी जाती हैं। इस प्रकार झलकारीबाई कोरी बुंदेलखण्ड की लोक स्मृति में महिला योद्धा बनकर ‘अमर शहीद’ हो गई है।
कवि मैथिलीशरण गुप्त जी ने उनके शौर्य का वर्णन करते हुए लिखा था:
जाकर रण में ललकारी थी,
वह तो झाँसी की झलकारी थी,
गोरो से लड़ना सिखा गई
हैं इतिहास में झलक उठी,
वह भारत की ही नारी थी 
_____
सूर्यकांत सुतार ‘सूर्या’
दार–ए-सलाम, तंजानिया, इस्ट अफ्रिका
फोन: +255 712 491 777
ईमेल : surya.4675@gmail.com 

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