Saturday, July 27, 2024
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बाप रे! फिर आ गई होली…??

शाम के साढ़े चार बजे थे, ऑफिस से घर के लिए निकलने की तैयारी कर ही रही थी कि “बॉस” नाम का प्राणी, अपने केबिन से बाहर आया, शक्ल देख कर रहा था, फोन पर बड़े अधिकारी की डांट खाकर आया है । बिना किसी भूमिका के मेरे ऊपर गरजा । होली के अंक के लिए एक लेख लिख कर लाओ । मैंने कहा सर घर जाने का टाइम हो गया, तो घर से लिखकर लाओ । बॉस की इतनी गरजना के बाद क्या कोई लेख लिख सकता है, वह भी होली पर…? मैं खिसियानी सी, मन में होली के लेख का प्लॉट सोचती हुई घर के निकल पड़ी । घर के नजदीक पहुंचते ही देखा, सामने से मिसेस चंबलवाला, सामान से लदी-फ़दी चली आ रही हैं । मैंने सोचा, चलो इनसे 2-4 बातें कर लूँ, शायद होली के अंक के लिए कुछ मसाला मिल जाए । उनसे बात करते ही कुछ मसाला तो क्या, मसाले की पूरी दूकान ही मिल गई । मजे की बात यह है कि मुझे कुछ बोलना ही नहीं पड़ा, मिसेस चंबलवाला स्वयं ही बोलती चली गईं । तो लीजिये प्रस्तुत है, मिसेस चंबलवाला के होली के रंगीन अनुभव ….. 
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मैंने कहा, नमस्ते मिसेस चंबलवाला जी, कहा से आ रही हैं…?
बोलीं, “ बाजार गई थी और क्या, आ गई न होली … आ गई न मुसीबत…”
“…अरे…अरे … अरे…ये क्या, इतने अच्छे त्यौहार को आप मुसीबत और पता नहीं क्या-क्या अपशब्द कह रहीं हैं”। 
“…अब न कहूँ तो क्या करूँ…?
“ क्या आपको कुछ कटु अनुभव मिला है …?
“… और नहीं तो क्या, दुश्मनों को गले लगाओ, जिन पड़ोसियों की शक्ल देखने की इच्छा नहीं होती, (हमें देख-देख कर जलते हैं न) उनसे हंस-हंस कर बातें करो, उन्हें चाय के लिए बुलाओ…”
“एक मिनट सुनिए तो…” वे बिना सांस लिए बोले जा रहीं थीं । शायद पूरे वर्ष की भड़ास होली पर निकालना चाह रहीं थीं । 
“…. हमारे वो बड़े सोशल हैं, कहते हैं, इस दिन वर्ष भर के सब गिले-शिकवे भूल जाना चाहिए। अब गिले-शिकवे क्या भूलने वाली बातें हैं …” । मैं इंतजार कर रही थी कि वे सांस लें और मैं कुछ बोलूँ । मेरा सोचना खत्म भी नहीं हुआ था कि वे फिर शुरू हो गईं “…हमारे पहचान वाले अमुक साहब हैं, उनकी बीवी बड़ी खराब हैं एक दिन कहने लगी, पिछले साल हमने सभी कमरों में कूलर लगवा लिया । अब लगवा लिया तो लगवा लिया, हमें बताने की क्या जरूरत थी । मैं भी फटाफट मार्केट गई और सारे घर के लिए एयर कंडीशनर का आर्डर दे आई । भले ही उसकी किश्त भरने के लिए हमें दूध दो लीटर की जगह डेढ़ लीटर करना पड़ा । अब तुम्हीं बताओ….”
“… मिसेस चंबलवाला आप होली के कुछ कटु अनुभव बता रहीं थीं न…”
“… अब एक अनुभव हो तो बताऊँ भी, हर साल तो एक नया अनुभव मिलता है । पिछले साल का ही किस्सा लो, सारे लोग तो रंग में रंगे हुये थे । पता ही नहीं चला, कितने शर्मा-वर्मा, अनावकर-बनावकर,  द्विवेदी-त्रिवेदी आए और रंग लगाकर, मिठाई खाकर चले गए । इन रंगे मनुष्यों में तो कितनों को तो मेरे पति भी नहीं पहचान पाये ।  … और तो और… मेरी वह पड़ोसिन भी गले मिलकर चली गई, जिससे मैंने दीवाली से बोलना ही बन कर दिया था । 
“… अच्छा ? क्या वजह थी नहीं बोलने की…?”
“…आप भी वजह पूछती हैं न बोलने की । दीवाली पर उनके खरीदे गए हीरे के ईयर रिंग के आगे मेरे सोने के ईयर रिंग की चमक ही फीकी पड गईं । ऐसी औरतों से कौन बात करेगा …? और आगे सुनो, एक मोटा-ताजा, बड़ी-बड़ी मूछों वाला आदमी आया,  मुझे लगा, श्याम गंज से मेरे फूफ़ा जी आए हैं । मैंने काजू-बादाम से भरी खीर, पूरी और कचौरी से थाल सजाकर भोजन कराया । खाना खाने के बाद जब उसने ज़ोर से डकार ली तब पता चला, ये फूफ़ा जी नहीं, ये तो पिछली गली का लौंड्री वाला है, जो होली की बक्षीश मांगने आया था । 
“… होली खेलकर आए बच्चों को नहलाने बैठी तो, अपने बच्चों को ढूँढने के लिए मुहल्ले के दर्जन भर बच्चे नहलाने पड़े, तब कहीं जाकर अपने बच्चे मिले । ऐसी है ये होली, आप कहती हैं कि होली की बुराई मत करो, तुम तो लिख देती हो, होली बड़ा अच्छा त्यौहार है, लिखने में क्या जाता है । सहन करो तो जाने, ऐसी-ऐसी होलियां सहन करो तो जानो …” थैंक गॉड, मिसेस चंबलवाला ने मेरा काम आसान कर दिया । मेरा काम तो ही हो ही गया था । इससे पहले कि वे आगे कुछ और बोले, मैं उनको धन्यवाद कहते हुए जल्दी से अपने घर की तरफ मुड़ गई । 
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