जून का आखिरी हफ्ता, अपने- अपने ननिहाल से लौटे बच्चों की बानरी सेना का उत्साह  आज कुछ ऐसा था कि कोई रोके न तो उड़ के लंका फतह करले। मंगई बो झुल्लन पर बिगड़ उठी–
” एतना मंहगा झोला लाने की बबुआ को का जरूरत थी। अभी पिछला भी तो ठीके था।”
मंगई पत्नी से तुनक कर बोले-“तुम्हारे बाप के घर से तो लाया नहीं, काहे तुम्हारी सुलग रही है? हमारा लड़का, हम खरीदें, हम पढ़ाएँ, तुमको का ?अपने काम से मतलब रखो अउर जाओ तनी चा बना कर लाओ। कपार दुखा रहा है।”
मंगई बो क्रोध में तमतमाती भीतर चली गयींं। चूल्हे  में जैसे लकड़ी सुलगती है वह  खुद भी वैसे ही सुलग रही थीं। भनभनाती चाय का पतीला आग पर चढ़ा सूखी लकड़ी खपरैल पर से उतार रही थीं। मीनू बाहर खेलने गयी थी,  अभी-अभी पिता की डांट खाकर लौटी थी। आकर माँ से शिकायत करने लगी “अम्मा! हमको भी नया बस्ता चाहिए, भइया को हर साल किनाता है अउर हम उनका पुराना लेकर जाते हैं। वह पैर पटक- पटक कर कह रही थी – “हमको भी चाहिए तो चाहिए।”
माँ पहले से गुस्से में थी मीनू की जिद सुन और क्रोध चढ़ गया। खपरैल से  उतारी लकड़ी का सिटकुन ले उसे धमधमाने लगींं- ” सबको नया चाहिए,हमको ही खा लो सब लोग, मिल जाएगा सबके कलेजे को चैन । अरे! हमको नइहर  जाने के लिए नयी साड़ी कभी नहीं जुड़ती लेकिन बबुआ का दिमाग चढ़ा कर  जरूर रखा जाएगा।”
वह “मार-पीट, रो- धो कर चाय पति को दे  चारपाई पर आकर लेट गयींं।  मीनू को समझ नहीं आ रहा था कि इसमें उसका क्या दोष की माँ ने उसे दम भर पीटा और रोती- धोती रही। वर रोते- रोते  आकर आजी की खटिया पर बैठ गयी। रोते-रोते हिचकियाँ बंध गयी’ थीं। आजी घुंचाइल खटिया में धसी , मैली लेवनी पर गठरी बनी लेटी हुई थीं। वह पायताने की रस्सी पर बैठी हचक-हचक रो रही थी। आजी ने पास में रखी अपनी लाठी से उसे ठेलते हुए पूछा – काहें  रगना गा रही हो एतना? काहें  थुराई हुई हैं?” 
मीनू और ज़ोर-जोर से रोने लगी। पिता दुआर पर मड़ई में बैठकर चाय पी रहे थे। उसका रोना सुनकर अन्दर आए– “ऐ भाई ! काहें रो रही है बुचिया ?”
पापा! हमहूं को नया बस्ता चाहिए, हम पुराना नहींं लेंगे।”
 मीनू  ने हचकते हुए कहा। पिता ने उसे चुप कराते  हुए कहा- “अच्छा चुप हो जा,  इस बार नया काम मिलते तुमको नया बस्ता ले लेंगे।” 
“नहीं ,आप झूठ बोल रहे हैं, आप पिछले साल भी इहे कहे थे और नहीं लाए। हमको चाहिए तो चाहिए।”
 मीनू जिदियाइ हुई थी, रो-रो कर कहे जा रही थी। लड़की की जिद सुन पिता तुनक गये, गाल पर एक चाँटा लगा, खैनी हथेलियो पर मलते ,भनभनाते घर  में से बाहर चले गये ।
मीनू के पिता राजमिस्त्री थे, तीन भाइयों की अकेली बहन मीनू को वैसे तो सभी प्यार करते थे पर पढ़ाने के नाम पर उसे हमेशा प्राइमरी पाठशाला में और भाइयों को प्राइवेट स्कूल में पिता डाल देते थे ।भाई ड्रेस, जूता- मोजा पहन साइकिल से पढ़ने जाते और वह उनका पुराना बस्ता ले प्राइमरी स्कूल। वैसे तो नया बस्ता उसे स्कूल मे सरकारी भी मिलता पर दो महीने में ही फट जाता और ऊपर से उस पर सर्व शिक्षा  अभियान लिखे रहने से सभी लोग सहज ही जान जाते कि वह सरकारी स्कूल में पढ़ती है का हीनता बोध उसे अखर जाता।
रात को खा-पी कर सभी सो गये, मीनू रोते- रोते बिना खाये सो गयी थी, आजी ने उसे खाने के लिए खटिया पर बैठे-बैठे आवाज दिया– वह उसे पुचकारती पुकारती रहीं और वह तकिया में मुँह चिपकाए  निखहरी खटिया पर पड़ी रही। आजी ने उसकी माँ को गुस्से में दस बातें सुनाईंं पर वह अलग हठ लिए बैठी थी।
“ऐ अम्मा !  लड़की जात खाने से रिसिएगी तो हम नहीं मनाएँगे।इहे चाल रहेगा तो ससुरा मेंं सास – ननद से लड़बाज कर मुँह फुला कर खाना छोड़ेंगी। इ खाना छोड़ने की आदत को हम नही बढ़ावा देंगे।रसोई में थरिया में परोस कर धर दे रहे हैं। भूख लगेगी तो खइबे करेगी।”
बूढ़ी औरत भनभनाती हुई सो गयी। सुबह की किरन फूटते सभी खेतों की तरफ निकलने लगें। वैसे तो इधर गाँव में घर – घर शौचालय बन रहे थे पर लोग फिरभी सुबह खुले में जाना ज्यादा पसन्द करते। मीनू ने इस मामले में बागी तेवर दिखाया- अम्मा ! हमारी टीचर जी कहती हैं कि खुले में शौच जाना कानून  अपराध हैं, इससे बीमारी फैलती हैं। इसी लिये सरकार घर-घर , शौचालय बनवा रही हैं। हम खेत मे नही जाएंगे । हार कर माँ ने शौचालय पर  लटका ताला खोल दिया। शौचालय बनने से सबसे ज्यादा आराम बूढ़ी आजी को मिला, नहीं तो अक्सर खेत में जाते- जाते बेचारी का कपड़ा बिगड़ जाता और बहू पूरे टोले को रो- गा कर सुनाती कि हम तो इनका गू-मूत धो-धो कर ही मर जाएँगे।
मीनू को माँ का हमेशा क्रोध में रहना  बहुता अखरता था। एक दिन सुमन मैडम से उसने पूछा भी कि आखिर उसकी माँ बिना किसी कारण के बिना बात के काहें  किसी पर चिल्लाने लगती है? सुमन मैडम ने उसे समझाया और उसकी माँ से एक दिन मिलने गयीं। आधा कच्चा आधा पक्का मकान ,दुवार पर एक भैस, बूढ़ी सास और तीन बच्चों के पीछे सुमन की माँ दिनभर डोलती, पिता सुबह तड़के टिफीन ले काम पर निकल जाते और अक्सर देर रात में शराब पीकर आते और बिना किसी बात के माँ से मार-पीट  करते। तीनो बेटोंं को सिर पर चढाए रखते और जो माँ टोकती उसे या तो पीटते या झगड़ा करके घर से निकल जाते। दो  बड़े भाई शहर में रहकर कालेज में पढ़ने चले गये थे। मीनू सबसे छोटी पाँचवीं में और छोटा भाई आठवीं में था।
सुमन मैडम ने मीनू की माँ से देर तक बात की और  समझाया ,उन्हें पास के ब्लाक के अस्पताल में डॉक्टर से मिलने की सलाह दे लौट गयीं। मीनू रात भर सब सपने में देखती सुबह उठी तो उसकी आँखें सूज कर लाल हो गयी थी। माँ ने उसे पुचकार कर उठाया और बड़े  दुलार से नहला-धुलाकर पुराने बस्ते संग स्कूल भेजा। दरअसल माँ भी रात भर  सो नहीं पाई थी, घर के काम निबटा अपने बक्से में धरे  चोरिका को टटोला और बजार से मीनू के लिए नया बस्ता लेकर आई। मीनू पूरे दिन उदास रही, सुमन मैडम को बच्चा हुआ था और वह छुट्टी पर थीं , वह होतींं तो उनसे अपनी बात जरूर कहती | खैर जो होना था वह जानती थी ,पापा उसे नया ड्रेस और  नया बस्ता नहीं लेकर देगें क्योंकि उसे स्कूल से मिलता था। वह उदास मन से घर पहुँची। माँ ने उसे प्रेम से हाथ मुँह धुलाकर खाना खिलाया और नया बस्ता दिखाया ।वह ख़ुशी से उछल पड़ी। भाई को यह बात नागवार गुजरी क्योंकि उसने सुबह माँ से कॉपी के लिए पैसा माँगा तो माँ ने यह कह कर मना कर दिया कि  उसके पास पैसे नहीं है, शाम को पापा से ले लेना| वह मन ही मन कुढ़  रह था, शाम को पिता से आते लहराया” पापा! अम्मान ने मुनिआ को नया बस्ता खरीद कर दिया है और हमको कॉपी के लिए पैसा नहीं दीं।”
पिता के जीवन में यह पहला अवसर था जब पत्नी उससे पूछे बगैर बाजार जाकर कुछ ले आई थी। वह गुस्से में रसोई में गये और बिना कुछ कहे पास में चूल्हे का जलावन रखा लकड़ी का चईला ले उसे मारने के लिए आगे बढ़े। बेचारी मोनू की माँ बचकर आगन में भागी। वह बचाने की गुहार लगा रही थीं – मीनू इस रोज़- रोज़ के अत्याचार से आजी़ज आ गई थी।  उसे सुमन मैडम की बात याद आ रही थी कि ” घर में औरतो को मारना घरेलू हिंसा होती है और इसे सहना अपराध को बढ़ावा देना है।” सुमन  मैडम “मीना मंच” कार्यक्रम में अक्सर समझातींं कि आस- पास जहाँ भी बच्चों औरतों के साथ  हिंसा हो उसका विरोध करना चाहिए। पिता माँ को मारे जा रहे थे, मीनू ने चार्जिंग में लगे पिता के मोबाइल फोन को निकाला और धीरे से लेकर बाहर निकल गयी। दस नब्बे पर फोन कर पुलिस को सूचना दी , थोड़ी देर में महिला पुलिस की टीम उसके घर के.बाहर आ धमकी । पिता दरवाज़े पर पुलिस देख सकपका गये। महिला कांस्टेबल उसे ढ़केलकर घर में घुसी, मीनू की माँ चोटिल आँगन में  बैठी रोए जा रही थी। आज ना जाने कहाँ से उसमें इतनी हिम्मत आई थी कि पुलिस को देखते चीख-चीख  कर पति की ज्यादती कहने लगींं – 
“मैडम जी, एगो बेटी के बस्ता  के नाम पर हमको एतना मारा इस आदमी ने, ले जाइए इसको थाने और रपट लिखिए वह पोक्का फाड़कर रो रही थी। मीनू का पिता मारे डर के दीवार से सटा खड़ा था, भाई की हवाईयाँ उड़ी थींं। बाहर टोले भर के लोग इक्टठा  हो गये थे। महिला दरोगा  मीनू के पिता का कालर पकड़ कर बाहर लाई और डण्डे से पीटने लगी, वह बाप-बाप चिल्ला रहा था। ओर साहब!, हमको छोड़ दिजिए ! हाथ जोड़कर अनुनय कर रहा था ।
 
दरोगा ने डपट कर कहा- काहे, जब मेहरारू को मार रहे थे तब तो बड़ी ताकत थी तुममें, वो इन्सान नहीं है ?उसको चोट नहीं लगती ? उसको दर्द नहीं होता है?
 मीनू का पिता हाथ जोड़ कर बैठ गया, “कान पकड़ते हैंं साहब! अबसे दूब से नही छुएंगे। हमको माफ कर दीजिए।
 चारों तरफ खड़ी भीड़ में औरत फुसफुसा  रही थीं, बहुत बढ़िया हैं ,अब मारे अऊर किसी का मरद तो अइसही पुलिस बुलादो, मन हरियर हो जाएगा।
 
मीनू की माँ को पति की बेइज्जती बर्दाश्त नहीं हो रही थी। दरोगा ने पूछा – इसे थाने ले जाएँ?
मीनू की माँ ने पति की तरफ देखा, वह कान पकड़ कर माफी माँग रहा था। मीनू की माँ ने दरोगा से “कहा– साहब ए बार छोड़ दीजिए फिर मारे तो ले जाईयेगा । “
दरोगा हँसने लगीं– देखा! ये औरत का मन है जो माफ कर देता है और एक तुम लोग हो कि उसे जानवर की तरह समझते हो। 
भीड़ की तरफ देखकर दरोगा ने कहा इस टोले में अगर कोई महिलाओं के साथ  मार-पीट करता है तो  इस नम्बर पर तुरन्त फोन करिए। मीनू की सहेली माधवी,काजल, रीना ने जोर से कहा– हा हमारी सुमन मैडम भी कहती हैं औरतों के साथ मार-पीट घरेलू हिंसा है और यह कानूनी अपराध है। दरोगा ने बच्चियों के सिर पर हाथ रखकर शाबाशी दी और एक कोने में खड़ी मीनू का गाल  थपथपाकर पुचकारा। अपना और अपनी माँ का ख्याल रखना, हमे जब बुलाओगी तुरन्त आएँगे। मीनू के पिता को आज माफी मागने पर चेतावनी देकर छोड़ दिया।
रात घिर आई थी।जुलाई का महीना होने से अक्सर बादल उमड़-घुमड़ आते और गरज -चमक कर  बरसेन लगते। आज मीनू के पिता रसोई में भाई संग रोटियाँ  सेंक रहे थे , आजी मौन धरे घटिया में चिपकी हुई थीं। माँ चारपाई पर दवा खा लेटी थी, मीनू ने माँ के सिर पर तेल लगाया और आकर अपनी चारपाई पर बैठ गया।
 बाहर मूसलाधार बारिश हो रही थी , उसने चारपाई पर पड़े बस्ते को हथेलियों से छुआ और उठाकर चूम लिया। आज नये बस्ते ने उसके अन्दर नया जोश भर दिया था,उसने हिम्मत से काम लिया था जिसके कारण घर में कुछ नया घट रहा था , पिता रसोईं  बना रहे थे, उसकी आँखें बरबस बरस उठींं और उसने माँ के पास जाकर उसके गालों को चूम लिया, माँ की हथेलियाँ उसके सिर को स्पर्श कर रही थी। दोनों की नजरें मिली और दो स्त्रियों ने एक-दूसरे के हाथ को कसकर थाम लिया।

9 टिप्पणी

  1. बढ़ियां कहानी ।सोनी की कहानियों में लोक की सोंधी खुशबू के साथ स्त्रियों की चिर यातना के मुखर स्वर होते हैं

  2. लोक की मिठास लिए हुए स्त्रियों की यातना की अंतहीन कहानी का सटीक चित्रण, इस कहानी में खास बात इसका सकारात्मक अंत है | कहानी बदलाव की वाहक है | “ऐसा ही चलता आ रहा है, इसलिए ऐसा ही चलेगा” की चुप्पी तोड़ने से ही परिस्थितियाँ बदलेगी | अच्छी कहानी के लिए बधाई सोनी जी

  3. वाह! सहज भाषा और सरल प्रवाह में रची प्रभावशाली कहानी। सोनी जी को बधाई।

  4. लोक परंपराओं के बहाने स्त्री सदा भेदभाव की शिकार होती आई है, इस बात का रोना हम सभी रोते हैं किंतु बस्ता कहानी में डॉ सोनी पांडेय जी ने उसका सहज और सरल मार्ग सुझाया है जो शिक्षा की पगडंडी पकड़ कर चलता है। मीनू के बहाने कोमल बालमन का वर्णन दिल छू गया।

  5. बहुत खूब आपने तो ग्रामीण गरीब महिला कीसच्आ ई के साथ मीना मंच को भी प्रमोट किया इस कहानी के माध्यम से

  6. बहुत प्यारी कहानी, पर कहानी लेखन और उसकी बनावट में जो लोक आता उसी के अनुरूप भाषा और देशज शब्दों का जरूरी इस्तेमाल कहानी को चलचित्र की तरह प्रस्तुत करता है। कहानी जीवंत हो उठती है। विषय और कहानी का लक्ष्य सीधे समाज के ज्वलंत मुद्दे को ही नही उठाता अपितु उस का निराकरण का फिलवक्त में उपाय भी देता है। सुंदर कहानी।

  7. अच्छी कहानी , लोक को जागृत करती कहानी । बस्ते के माध्यम से सहज भाव से अपनी और माँ या हर स्त्री की अधिकारों को उजागर करती है यह कहानी।

  8. ‘बस्ता’ (कहानी ) स्त्री मुक्ति का रास्ता
    ———————————————-
    सोनी पांडे कथा कहने में माहिर हैं । कथन की वक्रता से ज्यादा कहानी का घटित होना उनके कथानक को अतिरिक्त मजबूती देता रहता है । यहां गल्प के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। जो है सो है और सच्चा है सीधा है बेलाग बेलौस है।
    मोहपाश डॉ. सोनी पाण्डेय का तीसरा कथा संग्रह है जिसमें यह कहानी ‘बस्ता’ शामिल है।
    बस्ता जैसे पात्र को केंद्र में रखकर विमर्श की कहानी लिखी जा सकती है इसका बढ़िया और बड़ा उदाहरण यह कहानी है। यद्यपि बस्ता शब्द शीर्षक से उत्कंठा इतनी तीव्र नहीं होती कि किसी को कहानी पढ़ने के लिए तत्क्षण प्रेरित करें।
    प्रथम दृष्टया ऐसा लगता है कि किसी छोटे से बच्चे के लिए यह कहानी लिखी गई है या फिर कोई बालकथा होगी ऐसा अनुमान लगा सकता है कोई भी पाठक। किंतु कहानी का घटना क्रम शीर्षक से बिल्कुल इतर है।

    बस्ता तो फकत शीर्षक है जिसके बहाने सोनी पांडे ने दो पीढ़ी की स्त्रियों द्वारा स्वतंत्रता को प्राप्त करने के लिए संघर्ष करते स्त्री विमर्श को नया आयाम दिया है।

    मां और बेटी दोनों अलग-अलग पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं। दोनों परतंत्र हैं किसी न किसी बहाने । दोनों एक साथ मिलकर संघर्ष करते हैं ।
    यहां पर दोनों स्त्री पात्र गृहस्थ जीवन को नष्ट करने वाली कलयुगी रणचंडी नहीं है।भारतीय गांव का शहरियत में बदलते परिवेश से उपजी हुई आधुनिकता का कोई शोर सोनी के पात्रों में देखने को नहीं मिलता है, उनके पात्र बेहद संयत,शालीन और विनम्र है। बड़ी विनम्रता के साथ अपने अधिकारों के लिए सचेस्ट हैं और निरंतर प्रयास करते हैं । संघर्ष करते हुए आगे बढ़ने की ऊर्जा उन्हें मिलती रहती है।
    किसी भी रूप में दोनों स्त्री पात्र तथाकथित आधुनिक नहीं कहे जा सकते हैं। दोनों पहली बार अपने अधिकार का प्रयोग करते हैं। प्रयोग नहीं बल्कि प्रतिरोध का सदुपयोग करते हैं।

    कहानी का एक स्वर यह भी है कि पक्षपात पूर्ण व्यवहार माता पिता के द्वारा ही किया जाता है, यही ग्रहण कर पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है। इससे मुक्ति के लिए रास्ता बनाती यह कहानी पुरुष सत्ता को चुनौती देते हुए मजबूत स्थिति के साथ नारी स्वतंत्रता के जरूरी मुद्दे को उठाती है। कि क्या कोई स्त्री अपने बचा कर रखे हुए पैसे का उपयोग भी नही कर सकती है वह भी अपनी बेटी के लिए। संतान भेद और स्त्री पुरुष भेद को भी यह कहानी रेखांकित करती है जिसमें एक पुरुष स्त्री को सिर्फ इसलिए पीटता है कि वह उसका पति है और मारना उसका अधिकार । यह अद्भुत और विचित्र संयोग है कि
    मार खाने के बाद भी

    मीनू की मां ने पति की तरफ देखा वह कान पकड़कर माफी मांग रहा था मीनू की मां ने दरोगा से कहा, ” साहब ए बार छोड़ दीजिए फिर मारे तो ले जाइएगा।”
    दरोगा हंसने लगी, “देखा यह औरत का मन है जो माफ कर देता है और एक तुम लोग हो कि उसे जानवर की तरह समझते हो।”
    यह प्रसंग कहानी में परिवार को जोड़ें रहता है और टूटने से बचा लेता है। यहां पर स्त्री अपने परिवार से स्नेह करती है अपने पति से भी स्नेह करती है किंतु पति की मनमानी के खिलाफ उठ खड़ी होती है और खुद वही नहीं बल्कि अपनी बेटी के साथ।
    बस्ता कहानी स्त्री मुक्ति का आगाज है जहां आर्थिक स्वतंत्रता स्त्री के विकास के लिए परम आवश्यक है।
    कहानी में कुछ देर के लिए बस्ता नेपथ्य में चला जाता है किंतु कहानी के अंतिम हिस्से में लेखिका बस्ता को बड़े ही शिद्दत से स्मरण कराती है।
    “बाहर मूसलाधार बारिश हो रही थी उसमें चारपाई पर पड़े बस्ते को हथेलियों से छुआ और उठाकर चूम लिया आज नये बस्ते ने उसके अंदर नया जोश भर दिया था। उसने हिम्मत से काम लिया था जिसके कारण घर में कुछ नया घट रहा था।”

    बस्ता के बहाने लेखिका सोनी पांडे ने स्त्री मुक्ति के लिए नया रास्ता तैयार किया है। जहां पर परिवार की एकता को छिन्न-भिन्न किए बिना प्रतिरोध में एक स्त्री मजबूती के साथ अपनी बेटी को लेकर खड़ी है।
    — डॉ. विन्ध्यमणि

    ( ‘मोहपाश’ कथा संग्रह की यह तेरहवी कहानी है। )

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