टोरंटो, कनाडा, के युवक कवि अनिल की काव्य कृति ‘सीता का सफर‘ एक सुंदर भावनात्मक संवेदनशील लंबी कविता है। इसका प्रारंभिक प्रसंग है लक्ष्मण का सीता को वन में अकेला छोड़ कर चला जाना। सीता के मन में अनेकों प्रश्न उठ रहे हैं, वह समझ नहीं पा रहीं कि लक्ष्मण को राम ने ऐसा करने के लिए क्यों कहा। उनके मन में विचार आ रहे हैं किपंचवटी में तो लक्ष्मण ने रेखा खींचकर उनकी सुरक्षा का प्रबंध किया था जाने से पहले परन्तु आज बिना कुछ कहे उन्हें असुरक्षित छोड़ कर कैसे चले गए। नदी का किनारा है और सायंकाल की वेला है। फिर वे स्वंयप्रश्नोत्तर ढूँढने की सोचती हैं और विषम परिस्थिति को बदलने की सोचती हैं:-
ओझल हो गये लखन लला ! करना ही है सामना – मुझे इन प्रश्नों का तलाशना उत्तर ! मुझे ही बदलनी होगी, परिस्थिति
ऐसी उधेड़ बुन में सीताजी का मन अयोध्या पहुँच जाता है और वह श्री राम के बारे में अनेकों विचार आने लगते हैं। मन पूछता है :-
छोड़ दिया विषम वन में इस समय जब पल रहा भविष्य अयोध्या का बीज रघुकुल वंश का- मेरी अभागी कोख में । ऐसे समय तो पशु भी नहीं छोडते – और आप तो मर्यादा पुरुषोत्तम ! क्या दूर थी जनक नगरी ? वनवास – से कब था भय मुझे ? मैं ही साथ चली उस वक्त जब हर ली मंथरा की मति……
फिर सीता का मन राम के प्रतिप्रेम में विह्वल कर देता है। कवि के अनुसार वह सोचती हैं :-
मेरे ही कहने पर – भाग चले लेने स्वर्ण मृग । कहीं देखा है – कभी किसी ने स्वर्ण मृग ? ……कैसे रह पायेंगे प्रभु बिना मेरे ? वो तो होंगे ज्यादा अधीर – राजकार्य कैसे करेंगे पूर्ण ? ……मैं ही जानती, क्या वो सोचते, क्या वो चाहते जो न वो कह पाते वो मैं समझ लेती – यही तो थी हमारे प्रेम की डोर एक मेरा वियोग, दूसरा संकोची स्वभाव विचलित हो, दुगुने मुझसे ।
फिर हनुमान प्रति, अयोध्यावासी प्रति प्रेम अनुभूति और आस-पास के पशु पक्षियों की सराहना करती हुई विपिन में बढती हैं। सहसा एक पथिक का आगमन देख वह उससे पूछने लगती हैं। वह कौन है और उसके निर्जन वन में आने का क्या प्रयोजन है। वह कहता है :
मैं ही हूँ वह मूढ़ जो बना – इस हालत का कारण। आपका वनवास, मेरे अहं का परिणाम ओछी बात कही भामिनी को अपनी…..
और अनिलजी की कविता बड़े सुंदर संवाद के साथ बढ़ती है। जब सीताजी से यह धोबी क्षमायाचना करता है तो वे कहती हैं:
तुम मेरे नहीं क्षमाप्रार्थी, तुम मेरे नहीं क्षमाप्रार्थी, तुम तो उसके उत्तरदायी, तुम उसके हो चिरऋणी….. ……नारी ह्रदय को समझा ही नहीं तुमने ना ही जाना उसका मान, कोमलांगी नारी का, नहीं कठोर मन जाओ वत्स विलंब ना करो मान रखो पत्नी के प्रेम का – मेरा तो आशीर्वाद, तुम दोनों को रहो सुखी युग – युग तक ।
इस प्रकार सीताजी उसे सांत्वना देती हैं और धोबी कृतार्थ होकर लौट जाता है। यह भावना कवि अनिल के कोमल उर की अनूठी अनुभूति का दर्शन कराती है।
कविता आगे बढ़ती है। लक्ष्मण सीता को छोड़कर लौटते हैं और श्रीराम से उनका लंबा संवाद चलता है। सब प्रकार के भावावेश का चित्रण इसमें कवि करता है। राम- लक्ष्मण के संवाद में राम का अपना निर्णय सही या गलत है के विषय में राम स्वंय कहते हैं:
…….सत्य-असत्य की छानबीन कहाँ हो पाती – न्याय की कसौटी पर ? सबूतों की बाती पर – जलती न्याय की लौ तर्कों की सीढ़ी चढ़ – न्याय चढ़ता नये शिखर निर्णय नहीं होता – सिर्फ सही – गलत का फैसला फिर छिप जाता समय की आगोश में जो भी घटता – न्याय के समरांगण में । धर्म का रथ – चलता शास्त्रार्थ पर पंडित, ज्ञानी, ऋषियों के बदलते स्मृतिपटल पर बदल जाते धर्म के पटलेख नये धर्म पनपते – देख समाज की सोच । सिर्फ प्रेम की गंगा – आशा विश्वास के दो पाटों बीच कर सकती मन का दर्पण पावन उसी में पनपता मेरा यह निर्णय । प्रेम जगत का आधारभूत इसी पर टिका सारा संसार नहीं होता प्रश्न कोई – प्रेम में सिर्फ अनुरक्तता अगाध समर्पण । न्याय, धर्म के चक्षु से मत देखो मेरा निर्णय जो लिया मैंने प्रण, प्रेम में होकर अनुरक्त ।
कविता आगे बढ़ती है – अन्धेरा हो रहा ही। एक वाल्मिकी शिष्य सीता जी के पास आता है। सीता जी को रावण का मुनी रूप में आना याद है। दूध का जला छाछ फूंक फूंक कर पीता है। सीता जी आश्वस्त होकर ही वाल्मिकी स्थान को प्रस्थान करती हैं और वाल्मिकी जी उनका स्वागत करते हुए लंबी चर्चा करते हैं। सीता की आशंका धर्म- अधर्म के संबंध में दूर करते हुए वे उन्हें आश्वस्त कर देते हैं। सीताजी कहती हैं:-
हे महर्षि ! कहाँ देख सकती मैं समय की यह गूढ़्ता ? …..बहुत कुछ सीखना मुझे– हे महर्षि रह आपकी पावन भूमि ।
वे आगे कहती हैं कि रावण मन से ब्राह्मण था, पर वचन और कर्म से राक्षस था। अवधवासियों के लिए कहती है :-
….कर्म से ब्राह्मण – अवधवासी पर मन और वचन से राक्षसी । रावण ने वचन और कर्म से बींधा प्रभु के ह्रदय को – तो अवधवासियों ने मन और वचन से । दोनों ही प्रभु के भक्त दोनों ही प्रभु के अनुरक्त दोनों ही प्रभु के अनुगामी । एक ने लांछित किया दूसरे ने लांछन लगाया – दोनों ने परे किया मुझे एक कोतार कर दूसरे को त्याग कर ।
वाल्मीकि जी भी राम की महत्ता की पुष्टि करते हैं :-
…..धर्म से करो हर कर्म- तभी रम सकोगे प्रभु राम में । कर्म ही तय करेगा – सीढ़ी सफलता की, कर्म ही देगा नये शिखर समाज को । प्रभु ने भी धर्म से निभाया अपना कर्म । कर्म से ही मैं बना वाल्मीकि अब शरणागत मैं प्रभु चरण की । तभी तो भेजी – प्रभु ने माता सीता और संग रघुवंश की, कोंपले नूतन रह इस आश्रम में पाएँगे ज्ञान, धर्म, कौशल।…
वे कहते हैं की घोर परिस्थिति से पार करने के लिए धैर्य, धर्म, ज्ञान और कौशल की आवश्यकता होती है। सीता जी को ग्लानि हो रही है कि राम विष पान कर रहे हैं लोगों के आरोपों का और इस कार्य से उन्होंने सीता जी को पूजनीय बना दिया है। अंत में वाल्मीकि जी के जनक और सीता को आश्वासनपूर्ण वचनों से कवि अनिल कविता इति श्री करते है। वाल्मीकि जी के शब्द:-
….हे सीते ! तुम्हारे अधीनस्थ हम सबके मन प्राण। जो सारे ब्रह्मांड के आराध्य तुम हो उनकी आराध्य साधना हो तुम उनकी । फिर कैसा तुम्हारा अपमान ? कैसा हमारा अभिमान ? ….तुम्हारे समक्ष कोटि-कोटि रावण नहीं डाल सकते कोई कुदृष्टि तुम नहीं अनभिज्ञ – शक्ति से अपनी । नारी शक्ति पर ही टिका समाज निर्माण का प्रशस्त पथ वही सींचती समाज की नींव उसीकी सहिष्णुता देती अपराजेय शक्ति।
इस तरह सरल शब्दों में लय और गति से अनेक भावनाओं को समेट कर अनिल पुरोहित काव्य सरिता बहा रहे हैं। उनको मेरी बधाई।
आशा है साहित्यिक समाज उनकी यह कृति का आदर सहित स्वागत करेगा। अपनी पहली पुस्तक ‘अन्तःपुर की व्यथाकथा‘ में
उन्होंने द्रौपदी, कुन्ती, और गांधारी की व्यथा वर्णन की और यहाँ सीता-राम की। एक पुरुष कवि में नारी के उर की इस तरह पहुँचने की अनिल की कला अद्भुत और असाधारण है।