पंजाब में संगरूर के एक छोटे से गाँव भदौड़ में जनमे देवेंद्र सत्यार्थी लोकगीतों की खोज में घर से निकले, और अहर्निश लोकगीतों की तलाश करते-करते खुद एक ऐतिहासिक शख्सियत बन गए। महात्मा गाँधी और गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर का आत्मीय सान्निध्य उन्हें मिला, और अपनी इस निराली धुन में उन्होंने देश की असंख्य परिक्रमाएँ कीं। यह एक नई पहलकदमी थी। एक ऐसा काम जो उनसे पहले कभी किसी ने नहीं किया था। लाखों लोकगीत उन्हें मिले, जिन पर लिखे गए उनके लेख लोक संस्कृति की अमूल्य धरोहर बन गए हैं। 
अमृता प्रीतम ने लिखा है कि लोकगीतों की खोज करते-करते देवेंद्र सत्यार्थी खुद एक लोकगीत बन गए। मैं समझता हूँ कि विलक्षण लोकयात्री सत्यार्थी जी की बीहड़ लोकयात्राओं और उसके पीछे छिपे उनके बेहिसाब दुख-तकलीफों और फकीरी को बयान करने के लिए इससे खूबसरत अल्फाज कुछ और नहीं हो सकते।
सच तो यह है कि लोकगीतों की खोज में सत्यार्थी जी ने इस महादेश का चप्पा-चप्पा छान मारा। गाँव-गाँव, डगर-डगर और दूर तक जाती धूल भरी पगडंडियों पर चलते उनके पैर इस देश का एक नया सांस्कृतिक इतिहास लिख रहे थे। फिर कुछ जगहों पर तो वे बार-बार गए और हर बार एक नया खजाना उन्हें हासिल हुआ। जेब में चार पैसे नहीं, पर उनकी अनवरत यात्राएँ जारी थीं। हर जगह किसी खेत की पगडंडी या पेड़ तले बैठकर किसी राहगीर से लोकगीत सुनकर अपनी कॉपी में तल्लीनता से लिखना, और साथ-साथ उनकी भावगंगा में डुबकी लगाना। फिर उसी राहगीर की मदद से वे उसका अर्थ भी लिख लेते। 

बाद में किसी सहृदय पाठक या प्रशंसक के घर रुकने का सुयोग मिलता, तो जरा तसल्ली से कॉपी में सँजोए गए उन सुंदर और मर्मस्पर्शी लोकगीतों पर लेख लिखे जाते। ऐसे लेख जो हृदय से निकलते और सीधे हृदय तक जाते थे। देश के अलग-अलग जनपदों के लोकगीतों पर लिखे गए सत्यार्थी जी के वे भावनात्मक लेख माडर्न रिव्यू, विशाल भारत और हंस सरीखे पत्रों में छपते, तो पूरे देश का ध्यान उनकी ओर जाता। यहाँ तक कि महात्मा गाँधी, रवींद्रनाथ ठाकुर, मदनमोहन मालवीय, जवाहरलाल नेहरू, राजगोपालाचार्य, के.एम. मुंशी और राहुल सांकृत्यायन तक उनके मुरीद थे।
सत्यार्थी जी की धूल भरी यात्राओं ने उन्हें चाहे कितने अभाव और कष्ट दिए हों, पर उनके प्रति वे यह कहकर कृतज्ञता जताए बगैर नहीं रहे कि इन यात्राओं ने ही उन्हें देश के बड़े से बड़े कर्णधारों, राजनेताओं, चिंतकों, लेखकों और कलाकारों से मिलवाया। जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों के मूर्धन्यों ने भी उनकी इन लोकयात्राओं के लिए खासा आदर प्रकट किया और उत्सुकता से उनके बारे में जानना चाहा। बेशक इनमें से बहुत-से दिग्गजों और मनीषियों ने खुद आगे बढ़कर उनकी मदद भी की। इससे सत्यार्थी जी की ये यात्राएँ आनंदपूर्ण और कुछ आसान भी हो गईं।
इस तरह के मूर्धन्यों में एक ओर प्रेमचंद और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे अपने-अपने क्षेत्रों के दिग्गज थे, तो अज्ञेय और जैंनेद्र सरीखी बड़ी साहित्यिक प्रतिभाएँ भी थीं। बलराज साहनी और साहिर जैसे हरदिल अजीज शख्स थे जिन्होंने आगे जाकर फिल्मी दुनिया में बड़ा नाम कमाया तो पाब्लो नेरूदा भी, जो उस समय विश्वविख्यात शख्सियत बन चुके थे। फिर गुरुदेव टैगोर और महात्मा गाँधी का तो सदैव उन्हें आशीर्वाद मिला ही। और सत्यार्थी जी के उनसे जुड़े अनेक प्रसंग अब ऐतिहासिक थाती बन चुके हैं।
इनमें प्रेमचंद से उनकी मुलाकात लखनऊ में हुई थी। सुबह कोई दस बजे का समय। पहले वे लमही गाँव गए थे, पर वहाँ प्रेमचंद नहीं मिले तो लखनऊ में उनके निवास पर जा पहुँचे। प्रेमचंद से उनकी यह मुलाकात बड़ी अनोखी और यादगार थी। हालाँकि शुरू में वे उन्हें पहचान ही नहीं पाए। प्रेमचंद की सादगी और मामूली वेशभूषा ने उन्हें धोखे में डाल दिया। असल में हुआ यह कि सत्यार्थी जी तो अपनी आदत के अनुसार बगैर सूचना दिए ही पहुँच गए थे। उन्होंने किसी बच्चे से कहा कि मुझे प्रेमचंद जी से मिलना है। वह उन्हें उनके घर तक छोड़ गया। 

सत्यार्थी जी सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर पहुँचे तो देखा, एक व्यक्ति एक डेस्क के आगे बैठा कुछ लिख रहा है। एकदम साधारण-सी धोती, साधारण-सा कुरता…बिल्कुल गँवई रंग-ढंग। सत्यार्थी जी कल्पना ही नहीं कर सके कि यही प्रेमचंद हैं। वे एकदम सीधे-सरल इनसान उन्हें लगे, जिनमें लेखक होने का जरा भी घमंड नहीं था। शायद इसीलिए वे धोखा खा गए। लेकिन इससे वार्तालाप का प्रारंभ बड़ा विनोदपूर्ण था।
जिस समय सत्यार्थी जी पहुँचे, प्रेमचंद अपने उपन्यास पर काम कर रहे थे। बोले, “जरा रुकिए, मैं जरा यह प्रसंग पूरा कर लूँ, फिर जमकर बातें होंगी।
कुछ देर वे चुपचाप लिखने में लीन रहे, फिर प्रसंग पूरा होने पर पेन बंद करके रखा और सत्यार्थी जी की तरफ मुखातिब हुए। मुक्त अट्टहास के साथ खूब खुलकर बातें हुईं। यों भी प्रेमचंद खूब खुश-खुश और जिंदादिल आदमी थे। बड़ी सजहता से बातें करते थे और सत्यार्थी जी तो इसी के मुरीद थे। उन्होंने पूछा, “उपन्यास लिखते-लिखते जहाँ आप किसी दिन काम खत्म करते हैं, वहीं से अगले दिन शुरुआत करने में मुश्किल नहीं आती?” 
प्रेमचंद हँसकर बोले, “नहीं, भीतर कहानी रची-बसी रहती है, इसलिए कोई मुश्किल नहीं आती। फिर अब तो आदत पड़ गई है, कलम अपने आप चल पड़ती है।
इस पर सत्यार्थी जी को पंजाब की चरखा कातने वालियों की याद आई। वे चरखा कातती हैं और साथ-साथ त्रिंजन गीत गाती भी जाती हैं। पूनी से पूनी जोड़ते हुए वे धागे में इतनी बारीकी से गाँठ लगाती है कि कहीं कोई जोड़ नहीं पता चलता। उनके त्रिंजन गीतों के स्वर और सूत की कताई एकदम साथ-साथ चलती रहती है। 
सत्यार्थी जी ने यह बात प्रेमचंद को बताई तो सुनकर वे खूब खुश हुए। हँसकर बोले, “यह तो आपने बहुत अच्छा उदाहरण दिया। आपकी यह बात मुझे हमेशा याद रहेगी।
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सत्यार्थी जी को राजनेताओं से मिलने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी। उन्हें आम लोगों, लेखकों, कलाकारों और जनता के बीच काम कर रहे समाजकर्मियों से मिलना कहीं अधिक पसंद था। पर गाँधी जी की तरह सत्यार्थी जी पंडित जवाहरलाल नेहरू के भी प्रशंसक थे और उनसे उनकी कई अंतरंग मुलाकातें हुई थीं। 
कांग्रेस के फैजपुर अधिवेशन में बैलगाड़ी पर नेहरू जी का जुलूस निकला था। सत्यार्थी जी ने उसका वर्णन फैजपुर अधिवेशन पर लिखे गए अपने सुप्रसिद्ध लेख कांग्रेस गोज टु ए विलेजमें किया है, जो न्यूयार्क से निकलने वाली पत्रिका एशियामें छपा था। 
उस सम्मेलन में गाँधी जी की तरह नेहरू जी और पटेल ने भी उनकी लोकयात्राओं के प्रति उत्सुकता प्रकट की थी। साथ ही सम्मेलन में सत्यार्थी जी को कुछ ऐसे अनोखे लोकगीत सुनने को भी मिले, जिनमें नए जमाने का असर था। हालाँकि लोकगीतों का असली रंग भी बरकरार था। कुछ लोकगीतों में इस बात का जिक्र था कि सरदार पटेल की पहले बड़ी-बड़ी मूँछें हुआ करती थीं जो अब गायब हो गईं। कुछ लोकगीतों में बैलगाड़ी पर यात्रा कर रहे नेहरू जी का बड़ा ही मजेदार वर्णन था।
सत्यार्थी जी के लिए ये बड़ी अद्भुत चीजें थीं। इसलिए कि इन लोकगीतों में सीधे-सरल ग्रामवासियों की भावनाएँ थीं। अपने नायकों को अपने अंदाज में देखना और उसी रूप में प्रस्तुत करने में लोगों को आनंद आता है। वही आनंद इन लोकगीतों में फूट पड़ा था। सत्यार्थी जी ने अपने लेख में कांग्रेस अधिवेशन की राजनीतिक गतिविधियों के साथ-साथ इन लोकगीतों का भी वर्णन किया है, जो आम जनता के बीच से पैदा हुए थे, पर आज दिग-दिगंत को गुंजारित कर रहे थे और एक बदले हए इतिहास के गवाह बन चुके थे। 
जाहिर है, एशिया सरीखी अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका में छपे सत्यार्थी जी के इस लेख की दूर-दूर तक चर्चा हुई और उसने उन्हें रातोंरात प्रसिद्ध कर दिया।

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मैं इनसे शांतिनिकेतन में मिल चुकी हूँ
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नेहरू जी से सत्यार्थी जी की खासी लंबी और अंतरंग मुलाकात तब हुई, जब वे अंतरिम सरकार में प्रधानमंत्री थे। तब पं. जवाहरलाल नेहरू के घर पर सत्यार्थी जी की उनसे कोई डेढ़-दो घंटे तक बातचीत चली। उनमें एक फ्रेंच पत्रिका के फ्रेंच संपादक भी शामिल थे। आतिथ्य श्रीमती इंदिरा गाँधी ने किया था। जब वे चाय लेकर आईं, नेहरू जी ने सत्यार्थी जी का परिचय कराया। इस पर इंदिरा जी ने मुसकराते हुए कहा, “मैं इनसे शांतिनिकेतन में मिल चुकी हूँ, गुरुदेव टैगोर के साथ!” 
और जब नेहरू जी ने इंदिरा को पास बैठकर चाय पीने को कहा, तो उनका विनम्रतापूर्वक साफ इनकार। इंदिरा जी का कहना था, “मैं भला अपने गुरु जी के सामने कुर्सी पर कैसे बैठ सकती हूँ?”
इस घटना की पृष्ठभूमि भी सत्यार्थी जी से ही पता चली। असल में सत्यार्थी जी अकसर शांतिनिकेतन में जाते थे और वहाँ हजारी बाबू से उनकी मुलाकात होती थी। एक बार द्विवेदी जी अस्वस्थ थे तो उन्होंने सत्यार्थी जी से कहा कि आज मेरी जगह आप जाकर पढ़ा दीजिए।
सत्यार्थी जी हैरान। बोले, “आपकी जगह मैं कैसे पढ़ा सकता हूँ? मैं तो आपके विषय का विद्वान नहीं हूँ।
इस पर द्विवेदी जी का जवाब था, “आपको इसकी क्या जरूरत है? आप तो जो विषय अच्छा लगे, उसी को लेकर बच्चों से बातें करें। वही विद्यार्थियों के लिए आनंददायक विषय बन जाएगा।
और सत्यार्थी जी ने जिस कक्षा में पढ़ाया था, उसमें इंदिरा गाँधी छात्र के रूप में मौजूद थीं।
हालाँकि यायावर साहित्यकार का पढ़ाना भी क्या था! उन्होंने लोकगीतों की चर्चा करते हुए, अपनी घुमक्कड़ी के रोमांचक प्रसंगों का जिक्र किया था और बच्चों को यह खासा रुचिकर लगा था। फिर तो ऐसा अकसर होता कि द्विवेदी जी सत्यार्थी जी को अपनी कक्षा में बुला लेते और फिर यायावर को अपनी यात्रओं के दुर्लभ प्रसंग और अनुभव सुनाने के लिए कहते। बच्चे बड़े कौतुक और आदर के साथ सुनते। इस अद्भुत लोकयात्री के लिए उनके मन में सम्मान और श्रद्धा का भाव उत्पन्न हो गया था।
यही बरसों बाद इंदिरा गाँधी को भी याद रहा। और सत्यार्थी जी के लिए उनके मन में जीवन भर एक गुरु जैसा ही आदर रहा। 
नेहरू जी बाद में प्रधानमंत्री हुए, तब भी उनसे सत्यार्थी जी की कई मुलाकातें हुईं। 1956 में पी.ई.एन. सम्मेलन में सोफिया वाडिया ने नेहरू जी का सत्यार्थी जी से परिचय कराया, तो वे हँसकर बोले, “कॉल हिम फोकलोर इंडिया…!
बांग्ला के महान कथाकार शरतचंद्र से भी सत्यार्थी जी की बड़ी अंतरंग मुलाकात हुई थी। सत्यार्थी जी बर्मा की यात्रा से लौटे थे, उसके कुछ ही अरसे बाद उनका शरत से मिलने का संयोग बना। उस मुलाकात में सत्यार्थी जी देर तक बर्मा-यात्रा के अपने दुर्लभ अनुभव उनसे शेयर करते रहे थे। उसी में शरत ने दिलीपकुमार राय को लिखे अपने एक पत्र का भी जिक्र किया था कि तुम लिखना तो जानते हा, ‘न लिखनानहीं जानते।
सत्यार्थी जी ने अपनी बर्मा-यात्रा पर इरावतीशीर्षक से संस्मरण लिखा था। उन्होंने वह शरत को पढ़ने को दिया तो वे इस बात से प्रसन्न हुए कि इसमें अनावश्यक विस्तार नहीं है। रचना सुनकर प्रसन्न होकर बोले, “सुंदर, अति सुंदर!” 
इस तरह सत्यार्थी जी को अपनी रचना पर महान कथाशिल्पी शरत का आशीर्वाद प्राप्त हुआ। 

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तुम यह गलती मत करना
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उस दौर की चर्चित हस्तियों में बनारसीदास चतुर्वेदी के साथ तो उनका लंबा सान्निध्य था। चतुर्वेदी जी द्वारा विशाल भारतमें छापे गए लेखों ने ही सत्यार्थी जी को हिंदी साहित्य में प्रतिष्ठित किया। दूर-दूर तक उन लेखों की चर्चा हुई। गाँधी जी और गुरुदेव ने भी उन्हें पढ़ा और बड़े प्यार से उनका उल्लेख किया है। फिर गाँधी जी से सत्यार्थी जी को मिलवाने वाले भी बनारसीदास चतुर्वेदी ही थे जिन्हें उनके मित्र प्यार से चौबेजी कहकर बुलाते थे। सत्यार्थी जी से उनके संबंध बहुत कुछ घरेलू किस्म के थे। चौबे जी की शख्सियत और अंतरंग क्षणों के बारे में चर्चा चलने पर सत्यार्थी जी अकसर कहा करते थे, “बनारसीदास चतुर्वेदी कुछ अलग ही कद-काठी के लेखक-पत्रकार थे। मैंने तो उन्हें नि:स्वार्थ भाव से लोगों का भला करने वाला ही पाया। बड़े कठिन दिनों में उन्होंने मेरी मदद की।
चतुर्वेदी जी के मन में इस बात को लेकर बड़ा मलाल था कि उन्होंने अपनी पत्नी के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया। सत्यार्थी जी के आगे यह कनफेस करते हुए वे अकसर कहा करते थे, “देखो महाराज, मैंने तो अपनी पत्नी के साथ बहुत कठोरता का बर्ताव किया, उनका ज्यादा ध्यान नहीं रखा, पर तुम यह गलती मत करना।
उन दिनों सत्यार्थी जी की बड़ी इच्छा थी कि हिंदी में प्रकाशित उनके लेखों की एक किताब छप जाए! किताब छपवाने के लिए वे घर से पाँच सौ रुपए लेकर आए थे। जब उन्होंने चतुर्वेदी जी से इसका जिक्र किया और उनसे प्रकाशक ढूँढ़ने में मदद करने के लिए कहा, तो जवाब मिला, “न-न, ऐसी गलती मत करना! पैसे देकर किताब छपाना ठीक नहीं है। जब लेखक के रूप में तुम्हारी प्रसिद्धि हो जाएगी, तो वे खुद-ब-खुद किताब छापेंगे। ये रुपए वापस घर भेज दो।
सत्यार्थी जी ने कहा, “लेकिन चतुर्वेदी जी, घर से पाँच सौ रुपए लेकर मैं चला था। उनमें से कुछ रुपए तो खाने वगैरह पर खर्च हो गए, तो अब…?” 
इस पर चतुर्वेदी जी का जवाब था, “जो पैसे खर्च हो गए, उन्हें मैं पूरा कर देता हूँ। तुम कल ही घर पर मनीआर्डर कर दो।
कुछ समय बाद सत्यार्थी जी ने उन्हें घर पर भोजन के लिए आमंत्रित किया। लेकिन चौबे जी ने शर्त रखी, “जब तुम्हारी पत्नी के हाथ में सोने की चूड़ियाँ और गले में सोने का हार होगा, तभी मैं भोजन करने आऊँगा।” 
बड़ी कड़ी शर्त थी। सत्यार्थी जी की समझ में नहीं आता था कि वे क्या करें? भला सोने की चूड़ियाँ और सोने का गलहार कहाँ से लाएँ? चतुर्वेदी जी ने कहा तो नेकनीयती से ही था कि इसी बहाने शायद घर में कोई चीज जुड़ जाए, पर लोक यायावर की हालत खस्ता थी। सो उनकी शर्त पूरी होने का सवाल ही नहीं था। इधर चौबे जी भी अपनी जिद के पक्के थे। 
हारकर सत्यार्थी जी ने एक रास्ता निकाला। लोकमाता ने एक दिन के लिए पड़ोस की अपनी एक मुँहबोली बहन मालती से गहने माँग लिए। और तब चौबे जी उनके घर भोजन के लिए आए!
गाँधी जी से सत्यार्थी जी की पहली मुलाकात चौबे जी ने ही करवाई थी। बहुत संक्षिप्त सी मुलाकात थी। पर उसमें गाँधी जी से खूब खुलकर बातें हुई थीं। उसमें विशाल भारतकी भी चर्चा हुई जिसके संपादक चतुर्वेदी जी थे। बातों-बातों में चतुर्वेदी जी ने गाँधी जी से कहा, “बापू, मैं विशाल भारतमें आपके खिलाफ भी बहुत कुछ लिखता रहता हूँ।” 
इस पर गाँधी जी हँसकर बोले थे, “कोई सुनता भी है?” सुनकर बनारसीदास चतुर्वेदी झेंपकर रह गए थे।… 
यह पूरा प्रसंग मुझे सत्यार्थी जी ने खूब रस लेकर सुनाया था। फिर बात को गाँधी जी की ओर मोड़ते हुए उन्होंने कहा, “आपने गौर नहीं किया! चौबे जी की बात सुनकर गाँधी जी ने यह नहीं कहा कि कोई पढ़ता भी है? उन्होंने कहा, कोई सुनता भी है! यह था खुली भाषा का एक्सप्रेशन, जिसे गाँधी जी से सीखा जा सकता था।
विशाल भारतके दफ्तर में ही बृजमोहन वर्मा हुआ करते थे। अपाहिज थे, बैसाखियों के सहारे चलते थे, लेकिन बड़े ही जिंदादिल इनसान थे और सत्यार्थी जी का खूब उत्साह बढ़ाया करते थे। विशाल भारतमें सत्यार्थी जी के इतने लेख छपे, इसका श्रेय उनको भी जाता है। 
शुरू में मैं सोचता था कि बनारसीदास चतुर्वेदी ये लेख मुझे पर कृपा करने के लिए छापते हैं, ताकि मुझे पारिश्रमिक मिलता रहे और इस तरह मेरी झोली में थोड़ी भीख डाल देते थे। पर बाद में बनारसीदास चतुर्वेदी ने विशाल भारतमें खुद एक लेख लिखा कि सत्यार्थी जी के लेख छापकर हम उन पर कोई अहसान नहीं कर रहे हैं, बल्कि वे अपने लेख विशाल भारतमें छपने के लिए देते हैं, यह विशाल भारतपर उनका अहसान है। हालाँकि इस प्रशंसा से मेरा कोई सिर कहीं फिर गया। इसलिए कि मैं तो खुद को साहित्य का विद्यार्थी मानता था, आज भी मानता हूँ। और एक छोटे बच्चे से भी सीखने को तैयार हूँ।सत्यार्थी जी की विनम्र आत्मस्वीकृति!
फिर एक मजेदार प्रसंग उन्होंने और सुनाया। बनारसीदास चतुर्वेदी ने एक पत्र में सत्यार्थी जी डॉ. देवेंद्र सत्यार्थीकहकर संबोधित किया था। यायावर सत्यार्थी ने सोचा, मजाक में उन्होंने यह लिखा होगा। सो टाल गए। कुछ रोज बाद एक पत्र फिर आया उनका। उसमें उन्होंने लिखा, “आपने ध्यान दिया, पिछले पत्र में मैंने आपको डॉ. देवेंद्र सत्यार्थीकहकर संबोधित किया था। असल में आपका लोकगीतों पर जो काम है, उस पर आपको कब की डॉक्टरेट मिल जानी चाहिए थी। मुझे उम्मीद है, कोई न कोई यूनिवर्सिटी इसके लिए आगे आएगी और जो भी यूनिवर्सिटी आपको डॉक्टरेट प्रदान करेगी, वह ऐसा करके आपको नहीं, खुद को ही सम्मानित करेगी।
इससे सत्यार्थी जी के प्रति उनके सम्मान और विश्वास का भी पता चलता है।

बनारसीदास चतुर्वेदी के आमंत्रण पर एक बार सत्यार्थी जी उनसे मिलने कुंडेश्वर गए थे। तब उनके पास किराए के पैसे कम पड़ गए थे और बड़ी अजीब हालत हुई थी। यह प्रसंग बड़े मार्मिक ढंग से उनकी इकन्नीकहानी में आया है। उसमें जिन चौबे जी का जिक्र है, वे असल में बनारसीदास चतुर्वेदी हैं। 
कुंडेश्वर की सत्यार्थी जी के मन में तमाम यादें थीं जो जब-तब उनसे सुनने को मिलती रहती थीं। बनारसीदास चतुर्वेदी के अलावा कृष्णानंद गुप्त से भी वहाँ उनकी मुलाकात हुई। टीकमगढ़ के महाराज से मुलाकात की भी एक मजेदार कहानी है। सत्यार्थी जी के कहने पर वे एक बंदी स्त्री को छोड़ने पर राजी हो गए थे। लोकगीत की विजयसंस्मरण सत्यार्थी जी ने इसी प्रसंग को याद करते हुए लिखा था। बाद में भी यह पूरा प्रसंग याद करके वे बहुत भावुक हो जाते थे।
सत्यार्थी जी की इस घुमक्कड़ी ने ही, जो एक साथ ही तकलीफदेह और शानदार भी थी, उन्हें इस तरह के तमाम कीमती अनुभवों से जोड़ा जिनकी कल्पना ही रोमांचक है। सत्यार्थी जी यों ही कहानियों पर कहानियाँ, किस्सों पर किस्से नहीं सुनाते चलते। उनके पीछे अनुभवों का विशाल खजाना है जिसमें बहुत-से आबदार मोती और सीपियाँ हैं, खुला आकाश और रंगारंग इंद्रधनुष भी!
लोकगीतों के लिए मैं फकीर बना, पर इस तरह के अनुभवों ने मुझे फकीरी में भी बहुत सुख दिया। ऐसे कष्ट और अभाव मेरी जिंदगी में न होते, तो मैं सच में बहुत दरिद्र होता।कहते हुए सत्यार्थी जी के चेहरे पर बड़ी गहरी आब महसूस की जा सकती थी। एकदम सच्चे मोतियों की तरह!
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आजकल आपकी शामें कहाँ गुजरती हैं
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अज्ञेय से सत्यार्थी जी के रिश्तों का ग्राफ बड़ा पेचीदा रहा है। एक समय वे साथ रहे, फिर दूरियाँ भी आईं। मन मिले भी, टकराव भी हुआ। पर सच्चाई यह थी कि सत्यार्थी जी अज्ञेय का काफी सम्मान करते थे और वे भी उन्हें काफी आदर देते थे! अज्ञेय विशाल भारतके संपादक बने तो सत्यार्थी जी के पास उनका बड़ा प्यारा-सा पत्र आया था कि मैं चाहता हूँ, मेरे द्वारा संपादित विशाल भारतके प्रथम अंक में आपकी रचना जरूर जाए!हरियाणवी लोकगीतों पर लिखा गया सत्यार्थी जी का लेख देसाँ माँ देस हरियाणाउन्होंने ही छापा था। प्रतीकके प्रवेशांक में भी उन्होंने सत्यार्थी जी की कहानी बहुत आग्रहपूर्वक मँगाकर छापी थी।
फिर नया प्रतीकनिकला तो सत्यार्थी जी को वह ज्यादा पसंद नहीं आया। एक बार अज्ञेय इला डालमिया के साथ कनाट प्लेस के बरामदे से गुजर रहे थे, तब उनसे अचानक सत्यार्थी जी की मुलाकात हुई थी। इसी मुलाकात में नया प्रतीकके बारे में अपनी यह राय सत्यार्थी जी ने अज्ञेय को भी बताई थी। इस पर अज्ञेय का जवाब था, “असल में अकेला आदमी कुछ नहीं होता। पत्रिका में उसे बहुत लोगों पर निर्भर रहना पड़ता है। जैसे सहयोगी होते हैं, वैसी ही पत्रिका निकलती है।
सत्यार्थी जी की वही उनसे आखिरी मुलाकात थी। हालाँकि उसके कई साल बाद हमारे दिल्ली के शास्त्री नगर वाले घर में सत्यार्थी जी की उनसे फोन पर लंबी बात हुई थी। उसमें भी अज्ञेय ने उनसे बड़े स्नेह से कहा था कि कभी मिलते हैं। सत्यार्थी जी से बार-बार वे यही पूछ रहे थे, “आजकल आपकी शामें कहाँ गुजरती हैं?”
सत्यार्थी जी ने उन्हें बताया, “आजकल तो पिंजरे में कैद परिंदे वाली हालत है। घर पर ही रहता हूँ।” 
मुझे याद है, उन दिनों हमारे घर में फोन नहीं था। तो सुनीता ने सत्यार्थी जी को पड़ोस के घर में ले जाकर बात कराई थी। फोन करने के बाद सत्यार्थी जी लौटकर आए तो उत्साहित होकर बता रहे थे कि अज्ञेय जी बहुत देर तक प्यार से पिछली बातें याद करते रहे।
अज्ञेय के व्यक्तित्व का एक पक्ष सत्यार्थी जी को अच्छा लगता था, पर उनकी बनावट सत्यार्थी जी को थोड़ा परेशान करती थी। उनका बनावटी आभिजात्य उन्हें बर्दाश्त नहीं होता था। इसीलिए सत्यार्थी जी ने अपना एक कहानी-संग्रह अज्ञेय को समर्पित करते हुए भी व्यंग्य किया है कि भला असम की सीधी-सादी बालाओं का प्यार उन्हें क्या समझ में आया होगा! अज्ञेय पर सत्यार्थी जी ने एक कहानी भी लिखी थी, ‘लीलारूप। इसमें अज्ञेय पर बहुत तीखा व्यंग्य था। यह एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जिसने सैनिकों के मनोरंजन के लिए नाट्य-मंडली बनाई है। वह इस कदर खब्ती आदमी है कि जिस दिन कोई दर्शक नहीं होता, उस दिन भी शो जरूर रहता है, फिर चाहे अकेले उसे ही दर्शकों की कतार में बैठना पड़े!
सत्यार्थी जी के कोलकाता-प्रवास में अज्ञेय कई दिनों तक उनके यहाँ खाना खाने आते रहे थे। कोलकाता में उन दिनों अज्ञेय के लिए भोजन की कुछ समस्या थी। खाना बनाने वाला रसोइया शायद कहीं चला गया था और बाहर का खाना उन्हें पसंद नहीं था। तब हमारे अनुरोध पर वे कई दिनों तक हमारे यहाँ नियमित खाना खाने के लिए आए।सत्यार्थी जी बता रहे थे, “उन दिनों उन्हें काफी निकट से देखने, जानने और बातें करने का मौका मिला।
बातें सुनकर पास ही बैठी माता जी भी मुसकरा पड़ती हैं, मानो उन दिनों की स्मृति उनके हृदय में कौंध गई हो। मैं पूछता हूँ, “क्या आपको भी तब के अज्ञेय की स्मृति है?” माता जी मुसकराकर कहती है, “हाँ, अच्छी तरह।
अच्छा, तब के अज्ञेय कैसे थे?” मैं पूछ लेता हूँ। 
सवाल सुनकर माता जी हँस पड़ती हैं, “नहीं, ऐसे चुप्पा भी नहीं थे, बोलते थे…बातें करते थे। हाँ, यह तो है कि थोड़ा कम बोलते थे।
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ओ री बाँस के पत्ते पर सोती शबनम
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चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य से हुई मुलाकात को भी सत्यार्थी जी अकसर याद करते थे। उन दिनों सत्यार्थी जी लोकगीत-संग्रह करते हुए यहाँ-वहाँ घूमते फिरते थे। उन पर उनके लेख वगैरह भी छपते थे और उनसे उन्हें काफी प्रसिद्धि मिली थी। उन्हीं दिनों की बात है, चेन्नई (तब मद्रास) में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा ने उनके सम्मान में एक आयोजन करना चाहा।
इस पर सत्यार्थी जी ने एक ही शर्त रखी, “ठीक है, मैं आ जाऊँगा। लेकिन जो भी कार्यक्रम आप रखें, मेरी इच्छा है कि उसकी अध्यक्षता राजगोपालाचार्य जी करें।राजगोपालाचार्य जी ने यह सुना तो वे खुशी-खुशी मान भी गए। 
उस कार्यक्रम में सत्यार्थी जी को अपने काम और अनुभवों को लेकर एक लंबा व्याख्यान देना था। तमिल बोलना तो उन्हें आता नहीं था। तब कुछ मित्रों ने सुझाव दिया कि मॉडर्न रिव्यूमें छपा अपना लेख ग्लिंप्सिज ऑफ इंडियन सोंग्सही वे थोड़ा फेर-फार कर परचे के रूप में पढ़ दें। पर उन्हें यह गवारा नहीं था। सत्यार्थी जी ने कहा, “मैं अंग्रेजी में ही बोलूँगा और जो भी मन में आए, बोलूँगा।
फिर कार्यक्रम हुआ तो सत्यार्थी जी कोई घंटे, डेढ़ घंटे तक अंग्रेजी में धाराप्रवाह बोले। बाद में राजगोपालाचार्य जी अपना अध्यक्षीय भाषण देने के लिए खड़े हुए। उन्होंने कहा, “सत्यार्थी स्पोक ऑन इंडियन फोक सॉन्ग्स इन द लैंग्वेज ऑफ फोक सॉन्ग्सदैट इज डिवोयड ऑफ ग्रामर!इस पर सभा में खूब तालियाँ बजीं। 
फिर राजगोपालाचार्य ने सत्यार्थी जी द्वारा उद्धृत किए गए एक तमिल लोकगीत का जिक्र किया, जिसमें ओ री बाँस के पत्ते पर सोती शबनम…!का जिक्र आता है और ओ पत्ते पर सोती शबनम को जगाते सूर्य भगवानका भी! उन्होंने कहा, “यह सत्यार्थी जी का ही कमाल है कि वह पत्ते पर सोती शबनम के सौंदर्य को देख पाए और उसका बखान भी कर सके, क्योंकि इनके पास बच्चे जैसा दिल है। मुझे भय है, अगर कोई यूनिवर्सिटी का प्राध्यापक यह काम करने निकलता, तो उसके शुष्क हृदय के सामने पत्ते पर सोती शबनम उसी तरह सूख जाती, जैसे सूर्य उसे सुखा डालता है।
यह प्रसंग सुनाने के बाद थोड़ा भावुक होकर सत्यार्थी जी कहते हैं, “मनु जी, मेरे लोकगीत-संग्रह ओर लोकयात्राओं को लेकर बहुत कुछ कहा गया। इनमें बहुत-सी बातें तो अब किंवदंतियों जैसी लगती हैं। और कुछ बातें तो ऐसी लगती हैं, जैसे मैं इसी जन्म में पिछले जन्म का हाल सुन रहा हूँ। कुछ बातें याद नहीं भी रहीं, लेकिन राजगोपालाचार्य जी के शब्दों में छिपी हुई जो प्रशंसा थी, उससे मुझे हमेशा ताकत मिलती रही। और आज भी मैं उन शब्दों को ज्यों का त्यों याद कर सकता हूँ।
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तो फिर उठिए आप भी…!
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दिनकर से भी सत्यार्थी जी की खासी प्रागढ़ता थी। हालाँकि उनसे उनकी मुलाकात सत्यार्थी जी की बड़े नाटकीय ढंग से हुई थीपटना के रेलवे स्टेशन पर। दिनकर तब विद्यार्थी थे, वीर रस की आवेगपूर्ण कविताएँ लिखते थे और उनका कुछ नाम भी हो चुका था। उन्हीं दिनों का बड़ा रोचक प्रसंग है। सत्यार्थी जी पटना के रेलवे प्रतीक्षालय में बैठे थे। उनसे कुछ दूरी पर एक गौर वर्ण का युवक बैठा था जिसके घुंघराले बालों की एक लट उनके माथे पर छूट रही थी।
फिर यों ही कुछ बात चल निकली जैसे रेलवे स्टेशन पर साथ बैठे दो अजनबियों में होती हैं। सत्यार्थी जी ने स्वभावत: लोकगीतों की बात छेड़ी। युवक ने कहा, “क्या आप लोक साहित्य को बहुत महत्त्वपूर्ण मानते हैं?” 
यायावर ने कहा, “हाँ।
इस पर उस युवक ने गुस्से में आकर कहा, “लेकिन मैं तो उसे बिल्कुल महत्त्व देने के लिए तैयार नहीं।कहते-कहते उसकी लट माथे पर और नीचे आकर थिरकने लगी। 
यायावर ने उस युवक के क्रोध को दूर करते हुए कहा, “आप कुछ भी कहिए, इससे मेरे विचार नहीं बदल सकते।
उस युवक ने और अधिक ललकार के साथ कहा, “तो विचार मेरे भी नहीं बदल सकते। लोक साहित्य में तमाम रद्दी चीजें ठुंसी हुई हैं।कहते-कहते उसके माथे के दूसरी ओर की लट भी थिरकने लगी। 
यायावर ने अपनी उसी विनम्र दृढ़ता के साथ कहा, “आप कुछ भी कहिए, मैंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा इसमें लगाया है और आगे भी यही करूँगा। यही मेरे जीवन का उद्देश्य है।” 
इस पर वह युवक तमतमाता हुआ उठ खड़ा हुआ और सत्यार्थी जी से बोला, “तो फिर उठिए आप भी…!” 
और जब यायावर सत्यार्थी खड़े हुए, उसने यायावर को दोनों बाँहों में भर लिया और देर तक छाती से लगाए रहा।
यह सज्जन दिनकर थे!लोकगीतों के अद्भुत यायावर सत्यार्थी बता रहे थे, “दिनकर से इसके बाद भी तमाम मुलाकातें हुईं, लेकिन उनसे हुई पहली मुलाकात मेरे दिमाग से कभी नहीं उतरी। बाद में दिनकर से दिल्ली में भी कई मिलना हुआ। आजकलके दफ्तर में भी वे आया करते थे। एक बार मैंने उन्हें पटना प्लेटफार्म का वह किस्सा याद दिलाया। सुनकर वे ठहाका मारकर हँसे थे।कहते-कहते सत्यार्थी जी का चेहरा थोड़ा खिल-सा गया। 
और मैं उनके खिले-खिले चेहरे में दिनकर का अक्स देख रहा हूँ। दिनकर जिनके माथे की एक लट सामने थिरक रही है…दिनकर जिनकी दूसरी लट थिरक रही है और दिनकर जिनके माथे की दोनों लटें थिरक रही हैं। वाह, क्या खूब!
इसी तरह फणीश्वरनाथ रेणु से सत्यार्थी जी की कई मुलाकातें हुई थीं। रेणु के वे प्रशंसक थे और उन्हें बड़े प्यार से याद करते थे। रेणु भी उनका बहुत सम्मान करते थे। अपनी चर्चित उपन्यास मैला आँचलउन्होंने बड़े प्यार से सत्यार्थी जी को भेंट किया था। हुआ यह कि नार्थ ब्लॉक में पत्रिकाओं की एक दुकान हुआ करती थी। सत्यार्थी जी वहाँ खड़े-खड़े कोई पत्रिका देख रहे थे। इतने में देखा, पीछे से किसी ने हाथ बढ़ाकर एक किताब मेरे आगे सरकाई है। 
सत्यार्थी जी ने पीछे मुड़कर देखा तो रेणु हँस रहे थे। यह किताब थी, ‘मैला आँचल। रेणु ने उस पर उनके लिए जो शब्द लिखे थे, वे तो उन्हें ठीक-ठीक याद नहीं थे, पर उनका भाव यह था कि सत्यार्थी जी के लिए जिनसे मैंने भाषा सीखी न होती तो मैला आँचलकभी न लिख पाता!
तो आप देख लीजिए, जो बड़ा लेखक होता है, सच में बड़ा लेखक वो कैसा होता है! इसीलिए रेणु औरों से इतना अलग है कि यह आदमी कैलकुलेटिवनहीं था! जिंदगी के मुक्त बहाव में बहता था और उसे एक उत्सव की तरह जीता था।सत्यार्थी जी भावमग्न होकर बता रहे थे।
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बलराज साहनी के साथ
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सत्यार्थी जी के अजीज मित्रों की बात करें, तो बलराज साहनी का नाम सबसे पहले आता है। उनसे सत्यार्थी जी की इतनी अंतरंगता थी कि बलराज उनकी कई लोकयात्राओं में सहयात्री रहे। इस बारे में भीष्म साहनी ने अपने एक अंतरंग संस्मरण में बड़ी आत्मीयता से लिखा है। असल में सत्यार्थी जी बलराज साहनी के आमंत्रण पर रावलपिंडी में उनके घर गए थे। उन्हीं दिनों की यह बात है कि अकसर वे बलराज को लेकर लंबी-लंबी यात्राओं पर निकल जाते थे। इससे घर पर उन्हें डांट पड़ती थी कि यह भी उस दाढ़ी वाले शख्स के साथ रहकर आवारा हो गया है। 
यों बलराज साहनी से सत्यार्थी जी की मुलाकात इत्तफाकन हुई थी। सत्यार्थी जी उन दिनों श्रीनगर गए हुए थे और वहाँ की लाइब्रेरी में बैठे थे। लाइब्रेरियन से साहित्य-चर्चा चल रही थी। सत्यार्थी जी उससे किसी ऐसे शख्स के बारे में पूछ रहे थे जो कश्मीरी भाषा, साहित्य और लोक परंपराओं की अच्छी जानकारी रखता हो। ताकि उन्हें इस क्षेत्र में लोकगीत साहित्य तथा कश्मीरी परिवेश को समझने में थोड़ी आसानी हो। 
इतने में गरम सूट पहने हुए एक लंबा-सा, शरीफ नौजवान उनके पास खिसक आया जो बड़ी देर से उनकी चर्चा सुन रहा था। उसने सत्यार्थी जी से परिचय की इच्छा प्रकट की। सत्यार्थी जी उसके साथ चल पड़े। रास्ते में उसने अपने बारे में काफी कुछ बताया। नामबलराज साहनी। वह एक संपन्न परिवार का बेटा था। माता-पिता के साथ वह श्रीनगर घूमने आया हुआ था। पिता उसे अपनी तरह बिजनेसमैन बनाना चाहते थे, पर वह कुछ अलग मिजाज का था और लेखक होना चाहता था। अंग्रेजी में एम.ए. कर चुका था और अब अंग्रेजी में कविताएँ लिखता था। वह सत्यार्थी जी को बड़े आदर से अपने माता-पिता से मिलवाने ले गया।
जल्दी ही सत्यार्थी जी और बलराज साहनी के मन मिल गए। और कुछ अरसा बाद ही दोनों श्रीनगर में साथ-साथ घूमने और फिर मिलकर कश्मीर के सुंदर लोकगीत एकत्र करने के लिए गाँवों की ओर चल पड़े। फिर तो तीन महीने तक उन्होंने श्रीनगर की खूब खाक छान डाली। वहाँ के जंगल, दरिया, झील, घाटियाँ कुछ भी न छोड़ा। सत्यार्थी जी के पास उनका रॉलीफ्लैक्स कैमरा था और बलराज को भी फोटोग्राफी का खासा शौक था। दोनों साथ-साथ फोटो खींचते, पर अपने साथ-साथ सत्यार्थी जी के फोटो डेवलप कराने का खर्चा भी बलराज साहनी की जेब से ही जाता। और वे खुशी-खुशी यह खर्च वहन करते थे।
वहाँ से फिर वे पेशावर गए, पश्तो लोकगीतों की तलाश में। फिर बलराज साहनी ने सत्यार्थी जी को अपने घर रावलपिंडी आने की दावत दी, जहाँ सत्यार्थी जी कई दिनों तक उसके मेहमान रहे।
बाद में बलराज साहनी की शादी हुई तो लाहौर से खासकर सत्यार्थी जी, बी.पी.एल. बेदी, फ्रीडा बेदी, मिसेज स्वाइन तथा जगप्रवेश चंद्र गए थे। बलराज जी ने अपनी पत्नी दमयंती से यायावर का परिचय कराया तो अपना मशहूर फिकरा कहा था कि, “दम्मो, इस आदमी की दाढ़ी में जादू है!
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उन्हीं दिनों की बात है, बलराज साहनी ने कहानियाँ लिखनी शुरू की थीं और काफी अच्छा लिखने लगे थे। पर साहित्य की दुनिया में अभी उनकी पहचान नहीं बन सकी थी। उन्होंने अपनी एक कहानी शहजादों का ड्रिंक विशाल भारतमें छपने के लिए भेजी, पर वहाँ से लौटकर आ गई। जाहिर है, इससे बलराज कुछ निराश थे। उन्होंने वह कहानी सत्यार्थी जी को पढ़ने को दी। सत्यार्थी जी को कहानी अच्छी लगी तो उन्होंने एक बार फिर से देख जाने के आग्रहके साथ उसे फिर से चौबे जी के पास भेजा। सत्यार्थी जी ने लिखा—
सुबह का एक प्याला चाय पीकर कृपया इसे एक बार फिर से पढ़ जाइए। इसके बाद भी अगर यह कहानी आपको लौटाने लायक लगे, तो बाखुशी लौटा दें।” 
इस तरह वह कहानी विशाल भारतमें छपी और पाठकों ने उसकी खूब प्रशंसा की। 
बाद में बलराज साहनी फिल्मों में गए। उन्हें एक इंटेलेक्चुअल अभिनेता के तौर पर जाना जाता था। सत्यार्थी जी जब-जब मुंबई में गए, उनसे मिलना होता था। सत्यार्थी जी के एक कहानी-संग्रह का समर्पण भी बलराज साहनी के नाम है और उन्होंने शुरू में एक लंबी कविता लिखकर बड़े प्यार से उन्हें याद किया है! फिल्म जगत में बलराज साहनी देखते ही देखते प्रसिद्धि के शिखर पर जा पहुँचे और बड़े अभिनेताओं में उनकी गिनती होने लगी। पर सत्यार्थी जी से उनके वैसे ही आत्मीय संबंध बने रहे। 
एक बार की बात, सत्यार्थी जी आर्य समाज रोड पर कहीं जा रहे थे। अचानक किसी ने उन्हें बताया कि बलराज साहनी आए हुए हैं और आर्य समाज रोड पर किसी कैफे में चाय पी रहे हैं। 
सत्यार्थी जी वहाँ गए तो बलराज साहनी दूर से उन्हें देखते ही तुरंत उठकर लपकते हुए आ गए। उनसे कहा, “चलिए घर!” 
सत्यार्थी जी ने हँसकर कहा, “तुम्हारा घर तो मुंबई में है, हमारे घर चलो।” 
बलराज सत्यार्थी जी के साथ घर आए तो उन्हें दरवाजे पर कविता दिखाई दी। वही कविता जब छोटी थी तो उनकी गोद में खेली थी। पर तब वह दो साल की थी। सालों गुजर चुके थे और अब वह बड़ी हो चुकी थी। बलराज साहनी ने जेब से उसे दस रुपए निकालकर दिए। फिर कहा, “हक तो तुम्हारा एक सौ एक रुपए का बनता है, पर मैं इस समय सफर में हूँ।
बाद में बलराज साहनी सत्यार्थी जी को अपने ईस्ट पटेल नगर वाले घर में ले गए। तब उनके पिता जीवित थे, पर वे एक्टिंग को कुछ खास पसंद नहीं करते थे। लिहाजा उन्होंने कुछ व्यंग्य से पूछा था, “बलराज, तू फिल्माँ विच एक्टिंग करदा एँ, ताँ कुड़ियाँ दा पार्ट वी करदा ही होएँगा।
इस पर बलराज साहनी ने हँसकर जवाब दिया, “नहीं पिता जी, आजकल लड़कियाँ अपना पार्ट खुद कर लेती हैं!
यह प्रसंग सुनाते हुए सत्यार्थी जी बड़ी देर तक हँसते रहे थे। बोले, “अब आप देखिए, सवाल कितना तीखा था और जवाबनायाब! एकदम कमाल का! लड़कियाँ अपना पार्ट अब खुद कर लेती हैं! जैसे नया जमाना पिछले जमाने को यह समझा रहा हो!
इसके अलावा उस दौर में पंजाब की पृष्ठभूमि से जुड़े लेखकों में कर्तारसिंह दुग्गल से भी सत्यार्थी जी की अंतरंगता थी। दुग्गल सत्यार्थी जी की बाद की पीढ़ी के लेखक हैं और सत्यार्थी जी के मन में उनके लिए बहुत प्यार नजर आया। दुग्गल ने ही लाहौर में ऑल इंडिया रेडियो के लिए सत्यार्थी जी की किताब मैं हूँ खानाबदोशका सुंदर नाट्य-रूपांतरण किया था।
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आजकल आप की ही किताब पढ़ रहा हूँ!
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इसी तरह लोक साहित्य के की जानी-मानी हस्तियों में डब्ल्यू.जी. आर्चर से उनका बड़ा प्रेम था। डब्ल्यू.जी. आर्चर से उनका पत्र-व्यवहार तो बहुत पहले से चल रहा था। उन्होंने अपने किसी लेख में सत्यार्थी जी की बहुत तारीफ भी की थी, पर उनसे मिलने का कोई मौका लंबे समय तक नहीं आया था। फिर एक दफा आजकलके दफ्तर में सत्यार्थी जी के पास डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल का फोन आया, “आप आइए…वो आने वाले हैं जिनसे आपको मिलना है।” 
सत्यार्थी जी को बड़ी खुशी हुई कि डब्ल्यू.जी. आर्चर से मिलना होगा। वे उनकी किताब द ब्लू ग्रोवपढ़ चुके थे और उस पर उन्होंने लिखा भी था। खैर, सत्यार्थी जी वासुदेवशरण अग्रवाल के पास जाकर बैठ गए। और फिर दूर से आता दिखाई दिया उन्हें वह शख्स जिसका नाम तो उन्होंने सुना था, पत्र-व्यवहार भी हुआ पर कभी मिलना नहीं हुआ था। जब आर्चर आकर सत्यार्थी जी से गले मिले तो उन्होंने जैसे खुशी से झूमकर कहा, “इट्स इंडिया एंड इंग्लैंड एंब्रैसिंग!” 
आर्चर से हुई इस मुलाकात से कई बरस पहले सत्यार्थी जी ने अंग्रेजी अखबार द हिंदूके लिए बड़े मन से द ब्लू ग्रोवकी समीक्षा लिखी थी। हुआ यह कि जब सत्यार्थी जी 1940 में कोलंबो में थे, तो हिंदूअखबार की ओर से द ब्लू ग्रोवपर लिखने के लिए किताब भेजी गई। साथ ही शर्त थी कि रिव्यू के बाद किताब जरूर वापस कर दी जाए। हाँ, साथ में यह भी जोड़ दिया गया, ‘बट वी बिल पे यू फॉर द राइट-अप।’ 
पर किताब वापस करने की बात सत्यार्थी जी को बड़ी अटपटी लग रही थी। वे उस अखबार के दफ्तर में जा पहुँचे थे। संपादक से बात हुई तो उसने फिर से किताब वापस करने की शर्त रखी, पर कहा, “आप चाहें तो बहुत संक्षेप में रिव्यू लिख सकते हैं और चाहें तो लंबा रिव्यू लिख सकते हैं। यह आपकी इच्छा पर है।
साढ़े तीन सौ पन्ने की किताब थी जो इंग्लैंड में छपी थी। सत्यार्थी जी के पास आर्चर की चिट्ठी आई, तो उन्होंने आर्चर को लिखा, “आजकल आप की ही किताब पढ़ रहा हूँ। लेकिन यह सिर्फ दस दिन मेरे पास रहेगी और जैसे ही मैं इसका रिव्यू लिख लूँगा, यह मुझसे बिछुड़ जाएगी। तो यह ऐसा ही है जैसे कोई लड़की एक बार ससुराल जाकर फिर हमेशा के लिए मायके रह जाए और फिर लौटना चाहती हुई भी कभी न लौट पाए।
सत्यार्थी जी तो चिट्ठी लिखकर भूल गए, पर जिसे चिट्ठी भेजी गई, बात उसके दिल में उतर गई थी। 
आपको हैरानी होगी और एक लेखक का हृदय कैसा होता है, यह भी आपकी समझ में आएगा। मेरी चिट्ठी पहुँचने के कुछ ही दिन बाद डब्ल्यू.जी. आर्चर की किताब फिर से मेरे हाथ में थी। उन्होंने यह लिखकर मुझे किताब भेजी थी, ‘दिस मैरिड गर्ल शुड लिव विद यू आलवेज?’…” सत्यार्थी जी प्रसन्न लहजे में बता रहे थे।
अलबत्ता आर्चर से हुई इस मुलाकात के बरसों बाद सत्यार्थी जी की आत्मकथा का दूसरा खंड नीलयक्षिणीआया, तो उसके नामकरण के पीछे कहीं न कहीं आर्चर और उनकी पुस्तक द ब्लू ग्रोवका प्रभाव मौजूद है। जैसे सत्यार्थी जी बड़ी प्रसन्न स्मिति के साथ पूछ रहे हों कि नील यक्ष हो सकता है, तो नील यक्षिणी क्यों नहीं
आज जब सत्यार्थी जी नहीं है तो उनकी अनथक लोकयात्राएँ और निराला लोक-अध्ययन ही नहीं, वे हमसफर भी याद आते हैं जिन्होंने सचमुच इस देश की देसी पहचान यानी लोक-संग्रह और लोक-अध्ययन का एक बड़ा कारवाँ बनाया और देखते ही देखते समूचे देश में लोक साहित्य का एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया। सत्यार्थी जी की स्थिति उसमें ऐसे नायक की थी जिसने अपने खून-पसीने से उसे सींचा और गरीब किसान और स्त्रियों के दर्द से सीझे लोकगीतों को दूर-दूर तक हवाओं में गुँजा दिया। 
कहना न होगा कि जब भी हमें आजादी की लड़ाई के सामाजिक और लोक-पक्ष की याद आएगी और उसका सही-सही पुनर्मूल्यांकन होगा, तो बरसोंबरस फकीरी बाना पहने गाँव-गाँव, ठाँव-ठाँव घूमने वाले विलक्षण लोकयात्री सत्यार्थी जी के व्यक्तित्व और काम का महत्त्व हमें कहीं अधिक समझ में आएगा।

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