कविता जीवन की संगनि होने के साथ-साथ विभिन्न विविधताओं की एक ऐसी अभिव्यंजना है जो रचनाकार की संपूर्ण प्रवृत्तियों से युक्त होने के साथ-साथ भाव बोध के उन्नयन में सहायक होती है, और उसके परिणाम स्वरूप रचनाकार के जीवन को एक सार्थक दिशा प्रदान करती है! कवयित्री दिव्या माथुर की काव्य यात्रा भी उनके श्री काव्य से होते हुए श्री जीवन की अनेक विविधताओं की सार्थक अभिव्यंजना प्रस्तुत करती है जो उनके भाव बोध के उन्नयन में सहायक होने के साथ-साथ उन्हें सार्थक दिशा प्रदान करती है।
दिव्या जी की कविताओं में शिल्प, बिंब, प्रतीक विशेष आग्रह संदर्भ में आप विभिन्न विभिन्न रूपों में देख सकते हैं, काव्य शब्दों के भीतर उनकी संवेदना गहरी होती है मानवीय, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि कई संदर्भों भाव बोध के सरोकार से जुड़ी उनकी कविताएं जीवन को नया संदेश देते हुए आगे बढ़ती है उनकी कविताएं प्राय सामाजिक सरोकार के उन संदर्भों को रेखांकित करती हैं जहां वर्तमान भौतिक जीवन में मानवीय एवं निजी संबंधों में संवेदनाएं शून्य हो गयी है संबंधों में खटास पिता-पुत्र जैसे रिश्तो में स्वार्थ की स्थित का स्वरूप सामने आ गया है उनकी कविता ‘भाड़े के टट्टू’ की कुछ पंक्तियां इसकी स्पष्ट व्याख्या करती नजर आती है:
पांच मन के शव को / कन्धा देने कोई आगे नहीं बढ़ा / मरगिल्ले बेटे ने भी अपने हाथ खड़े कर दिए / भाड़े के कन्धों के लिए / आड़े समय में जो दाम भी मांगें / मिल जाएगा (भाड़े के टट्टू)
वर्तमान समय के सांसारिक मोह में संबंधों की नियत स्वार्थ के परिधि में चक्कर लगाती हुई दिखलाई पड़ती है पिता, पुत्र, बेटी दमाद यह सांसारिक संबंधों के सबसे निकट दिखलाई पड़ते हैं परन्तु इन संबंधों ने भी समाज की शर्मिंदगी की हदें पार कर दी है दिव्या जी ने समाज को बड़े करीब से देखा और अनुभव किया, मनुष्य के विकृति रूप से भली भांति परिचित है दमाद के उपमयी रूप के बहाने प्रकृति फूल को संदर्भित करते हुए उसकी व्याख्या ‘लाइलाज’ कविता में उकेरा है वह आज के सामाजिक यथार्थ के काफी करीब है वह लिखती हैं:
झूठ है दामाद सा / जिसकी ख़्वाहिशें / कभी पूरी नहीं की जा सकतीं /
एक दिन वह वह तुम्हें नंगा कर सकता है / झूठ है उस चश्मे सा /जो एक बार चढ़ा तो / आसानी से उतरता नहीं (लाइलाज)
उनकी कविताओं का रचना संसार सामाजिक, सांस्कृतिक संदर्भों के साथ माननीय संदर्भों के ना जाने कितने प्रतिमानो को आत्मसात किए हुए हैं; उन्होंने संसार को देखा है उसे भोगा और एहसास किया है, संवेदना के स्तर पर उसे परखा है इसलिए वह उसकी परिणति को भली-भांति समझती हैं। जीवन में ना जाने कितने गिले शिकवे, झूठे बखान जिद और जिरह करती अनेक संवेदनात्मक पक्षों को आत्मसात करती हुई सब कुछ भूल सीने से लग बस झूठी तसल्ली के सिवाय कुछ नहीं, उन्हीं संदर्भों के रूप को उन्होंने अपनी कविता के माध्यम से व्यक्त किया है उनकी ‘झूठी तसल्ली ‘कविता की कुछ पंक्तियां इसकी गवाह है वह लिखती हैं-
मेरी आहों पर ग़ौर न कर/मेरे ज़ख्मों से ख़ौफ़ न खा
क़तरा के निकल या आंख चुरा पर झूठी तसल्ली रहने दे
नीम समझ के पी लूंगी /होठों को अपने सी लूंगी / बस झूठी तसल्ली रहने दे!
ना रहे कोई गिला शिकवा /कुछ ऐसे मुझे तसल्ली रहने दे
वफ़ा का रोना बेशक़ रो पर झूठी तसल्ली रहने दो (झूठी तसल्ली)
प्रेमत्व के रूप को आदिकाल से लेकर आज तक की सभी रचनाकारों ने अपनी रचनाओं मे महत्वपूर्ण स्थान दिया है। यह अलग बात है कि लोगों के तरीके भिन्न-भिन्न हो पर दिव्या जी कि प्रेमा अभिव्यक्ति स्वरूप अपनत्व के भाव से गुजरती हे वह स्वयं से अपने अभिव्यक्ति रुप से जुड़ती हैं न कि वह उस के भाव संप्रेषण को संजोती है ‘लहर’ ‘गुस्सा’ ‘झूठ’ प्रतिक संदर्भों के सहारे उन्होंने प्रेमत्व के भाव को अपनी कविता’ प्रेम ‘में व्यक्त किया है वह लिखती हैं:
लहरें मुझमे है/ मै लहरों में नहीं / गुस्सा मुझ में है /मैं गुस्से में नहीं / झूठ मुझ में है / मैं झूठ में नहीं / प्रेम मुझ में है तो मैं प्रेम में क्यों नहीं (प्रेम)।
दिव्या जी की कविताओं का संदर्भ अनेक संभावनाएं लिए हुए दिखाई देता है उनके काव्य में कल्पना का रचना संसार बस वही तक सीमित है जो संसार में घट सकता है ना कि असंभव से प्रतीत होने वाली कल्पनाओ का समावेश उन्होंने ने किया है उन्होंने कविता के यथार्थ, मानव जीवन के यथार्थ संदर्भ को ही कविता के रूप में संयोजित करने का प्रयास किया है। उनके काव्य की भाषा संरचना उनके काव्य का वह आधार बिंदु है जो पाठक को पढ़ने के लिए बाध्य करती है, उर्दू के शब्दों का संयोजन हिंदी के साथ सामान्य शब्द जो समझ में आ जाए, उनका वही प्रयोग उन्हें अन्य आधुनिक कवियों से पृथक करता है!
उन्होंने समाज के उन संदर्भों को भी कविता का अभिन्न अंग बनाया है जो समाज की रीढ़ है समाज के प्रतिनिधि नही स्वयं के प्रतिनिधि बन बैठे और पक्ष और विपक्ष दोनों राजनीतिज्ञ अपने को कोई न कोई माध्यम से बचा ही लेते है बाबा नागार्जुन, रघुवीर सहाय, श्री लक्ष्मीकांत वर्मा श्रीकांत वर्मा ने अपनी कविताओं में इन संदर्भों को अनेकों बार प्रदर्शित किया है, दिव्या जी भी इससे अछूती नहीं रही है, अंतर बस इतना ही है कि उन्होंने उपमा प्रयोग का सहारा ना लेकर सीधे उन्हें संबोधित कर राजनीतिज्ञ स्वरूप को रेखांकित किया उनकी कविता’ राजनीतिज्ञ’ की पंक्तियां इसके ऐतिहासिक संदर्भ को प्रदर्शित करती है वह कहती हैं:
वे स्वयं सुरक्षित कमरों में
बैठे हैं जो निर्णय लेते हैं
मासूम मातहत क्यूं अपने
सीने पे गोलियां सहते हैं? (ढाल)
‘कफन ‘प्रेमचंद की कहानी से भी वह प्रभावित दिखती है बस अंतर इतना ही है प्रेमचंद अपनी बात कहानी के कथ्य शिल्प पर रचते है उनका सामाजिक संदर्भ आजादी के पूर्व भारत का है जहां संवेदनाएं थी पर समस्याएं संवेदना में निहित थी, परंतु आजादी के बाद ही कफ़न पर राजनीतिज्ञ संदर्भ बहुत हैं पर दिव्या जी ने उन्हें काव्य पर गढे है उनकी कविता में वाह्य आडंबरों से छुटकारा पाने, वर्तमान से लड़ने की जद्दोजहद, पिता के मृत शरीर पर फटी चादर, मां की धोती खरीदने के अभिव्यक्ति की जो परिकल्पना वक्त की है वह सचमुच इस भौतिकवादी सांसारिक लोगों के स्वार्थ परक व्यक्तित्व को व्यक्त करने का प्रयास किया है वह लिखती हैं –
पिता के मृत शरीर पर / यदि वह डाल सकता / अपनी चादर फटी / तो खरीद लाता / मां के लिए एक सस्ती धोती / ये झूठे आडंबर / दिल को क्यों देते हैं संबल (कफ़न)
दिव्या जी की कविताओं में प्रेम का भाव अनेक संदर्भ में व्यक्त हुआ है उनका प्रेम एहसास संवेदना के साथ कल्पनाओ में भी गोते लगाते हुए दिखलाई पड़ता है कह सकते हैं प्रेम उनका भाव है, संदर्भ नहीं है उसके कई उत्स रुप है जिसमें वह कभी चूड़ी, कभी मेहंदी, सूरमा ,कभी नाक कि नथनी के साथ स्त्री सौन्दर्य श्रृंगार के बहाने उसके ख्याल की कई बातों को अपनी कविता ‘ख्याल तेरा ‘में व्यक्त किया है पूरे 28 पंक्तियों में उसके संदर्भ को ऐसा व्यंजित किया है जिसमे उसके ख्यालों के सभी प्रतिमान दिखलाई पड़ जाते हैं वह लिखती हैं-
माथे पर बिंदिया सा चमके / हाथ में मेहंदी सा महके / जीवन और श्रृंगार मेरा / ख्याल तेरा / कंगन चूड़ी के संग खनके / मुदरी के नग में झलके
मुझे तंग करे निर्मोही सा / ख़याल तेरा (ख़याल तेरा)
खामोशी बहुत से प्रश्नों का ऐसा जवाब, जिसमें जीवन की कई विसंगतिया और समस्याएं समाहित होती है उसकी परिभाषा बस मूक (चुप) रहने में ही वह बहुत से संसय का समाधान है, दिव्या जी अपनी कविता’ मेरी खामोशी’ के माध्यम से एक ऐसा कैनवास खड़ा करती है जिसमें झूठ के बावजूद रिश्तो के दरमियान गर्भाशय में पल रहे जीव के वास्तविक रूप में उसे स्वीकार न कर पाने की छटपटाहट में किसी के भेंट चढ़ जाने की बात काव्य के माध्यम से जन को आगाह करती है उनकी कविता ‘मेरी ख़ामोशी’ उसी प्रतिमान को गढ़ती है वह लिखती हैं:
मेरी ख़ामोशी / एक गर्भाशय है जिसने पनप रहा है तुम्हारा झूठ / यदि मुकर न भी पाये तो तुम उसे किसी की भी गले मढ़ दोगे…. / क्योंकि मेरी ख़ामोशी / एक गर्भाशय है / जिसमें पनप रहा है तुम्हारा झूठ (मेरी ख़ामोशी)
उनकी कविता समाज के साथ उसमें व्याप्त होने वाली समस्याओं और उसके समाधान की कई उपक्रम एक साथ लेकर चलती है उनकी समझ उन्हें एक ऐसे संदर्भ की ओर ले जाती है जहां आधुनिक समाज के साथ मध्यवर्गीय की भी ऐसी समस्याएं हैं जो झूठ के रिश्तो में ख़ामोश रहती है कविताएं हदय में उत्स का भाव लिए हुए आगे बढ़ती है दिव्या जी की कविताओं का उत्स हदय और जन को सुकून तो देता ही है परंतु वह उपदेशात्मक संदर्भ में भी दिखलाई देता है उनकी कविता का उत्स बड़े के साथ तो है, उन्हें बच्चों (छोटो) की परिणति भी मालूम है उन्होंने ‘लोरी’ कविता के बहाने मम्मी, पापा, दादी के उन संदर्भ की व्याख्या की जिसमें बड़ों का दायित्व निर्वाहन में बच्चों को कितना सकून दे जाता है इसी रुप को उन्होंने सिया के बहाने समझाने का प्रयास किया है वह लिखती हैं –
पापा बजा रहे हैं प्यानो / मम्मी सुना रही है लोरी
चंदन का है बना पालना/ रेशमी की उसमें डोरी
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डरना नहीं सिया सपने में / दादी करती हैं रखवाली
चौकीदारी चांद कर रहा / टार्च लिए तारों वाली (लोरी)
दिव्या जी की कविताओं के शीर्षक भी बहुत कुछ आगाह करते हुए पाठक को उसका संकेत दे जाते हैं उनकी कविता ‘हे राम’ बहन की मृत्यु पर रची कविता है पंरतु इस कविता में उनका द्वंद्व ईश्वर से अनेक प्रश्नों में प्रतिउत्तर के बहाने धर्म ग्रंथों की दुहाई और मृत्यु के आग़ोश में बच्चों की गुहार मेधावी युवती की परिचर्चा धरा के सापेक्ष कर एक ऐसी लीक खींची है कि कविता का शीर्षक की अपने-उपमेय विधान में कई प्रश्नों की व्याख्या है वह लिखती हैं।
हे राम! / क्यों ऐसा अन्याय किया / क्यों उठा लिया एक मेधावी नवयुवती को / जो शोध करती रही / तुम्हारी धरा का / दो नन्हे बच्चों की जननी / क्या एक वही बची थी / क्या तुम्हें उसकी ज़्यादा जरुरत थी / तुमसे बेहद नाराज हूँ मैं / जब तक मर नहीं जाती / मेरी हर सांस पुकारेगी तुम्हें / हे राम (हे राम)
उनकी कविताओं की पैरोडी अनेक संदर्भों, प्रसंगों को साथ साथ लेकर चलती है विषय संदर्भ के कई रुप एक साथ समय के सापेक्ष कई उपमेय और उपमान प्रदर्शित करते हैं लेकिन काव्य का अर्थ विन्यास हमेशा उपदेशात्मक या संकेतात्मक रुप मे दिखलाए देता है यह कह सकते हैं उनका काव्य संसार विविधाओ के समूह का ऐसा पुंज है जो अणुओं और परमाणु से निर्मित है इसलिए उनका कब सरुप हमेशा से लोकप्रियता के दायरे को गुजित करता रहा है
उनका एक दायरा पारिवारिक संदर्भों के निभानी का भी रहा है जहां उनकी दूसरी और तीसरी पीढी के कुछ संदर्भ को लेकर उन्होंने बाल गोपाल के साथ अपने काव्य संसार में भी स्थान दिया है जो अत्यंत मार्मिक होने के साथ-साथ उनके बाल मनोविज्ञान की परख को बताता है ‘शैतान सिया’ कविता एक ऐसी ही कविता है जिसमें सिया के बहाने उन्हें सभी छोटी बच्चों के बाल विशेषताओं को बताने का प्रयास किया है जिसमें सिया छोटी बच्ची की बिस्तर से गिरने और रोने से लेकर उसके चुप और हंसने तक की जितनी भंगिमाएं प्रस्तुत की हैं वह उनकी बाल मनोवृत्ति के सभी रुपों की जानने का प्रमाण ही है वह लिखती हैं –
नर्म गुदगुदे बिस्तर पर थी / मीठी नींद सिया सोई / नींद-नींद में गिरी पलंग से / ज़ोर-ज़ोर से वह रोई
हई-शा कह पापा ने / ताक़त अपनी दिखलाई / ज़ोर लगाकर हई-शा बोलीं / मम्मी भी न उठा पाईं
ज़ोर लगा कर सारे हारे / ख़ूब पसीना था आया / हैरानी भी हुई सभी को / किसी को समझ न कुछ आया
बुआ को कुछ शक हो बैठा / नीचे देखा फिर झुक कर / पकड़े हुए सिया लेटी थी / पलंग का पाया इक कस कर / हंस कर लोटपोट थे सारे / वह भी रोना भूल गयी / हँसते-हँसते फिर मम्मी की / बाहों में वह झूल गयी।
सिया के बहाने उन्होंने अपना अनुभव काव्य के माध्यम से जन के समक्ष प्रस्तुत किया है वह उनके बाल मनोविज्ञान को समझने का एक संकेत भी है उनकी कविता का वैविध्य रूप अनेक संभावनाएं लिए से दिखलाई पड़ता है अप्रवासी जीवन की तीन दशक निर्वहन करनी के बावजूद वह अपनी माटी के त्योहारों को नहीं भूलती यह हो सकता है कि अपनी व्यस्तताओं के कारण उसमें कभी कभी सरीक ना हो पाती हो परंतु वह उत्सव उनके सहदय और दिमाग में हमेशा अपनत्व रूप में बना रहता है ‘होली’ त्यौहार हमारी अस्मिता की पहचान है दिव्या जी की जीवन में होली का पर्व विशेष महत्व रखता है इसलिए उसके आगमन से लेकर उसके उसके उत्सव प्रतिक संदर्भ तक गाथा प्रस्तुत करती है होली त्यौहार उन्हें बसंती हवा की तरह झूमने के लिए मजबूर करता है साथ ही साथ त्यौहार के की प्रतिमानों मानो का संदर्भ भी प्रस्तुत करता है होली त्यौहार पर लिखी कविता की कुछ पंक्तियां दृष्टव हैं।
नीली पीली लाल सुनहरी गलियों में छाए बादल
वायु में बह रहा धुपद / फागुन लाता है समय सुखद
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हवा बसंती झूम उठी/ टेसू के फूलों से सिंची
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गोबर से लिपे हैं घर आंगन / झूमीं ग्रहणी गाती होली / ढोलक पे थाप देते साजन / भांग चढ़ाए / नाचे गाएं / सूख सूख कर भीग रहे हैं
उनके काव्य संसार में प्रतिमान तो अपनी उपस्थिति दर्ज कराते है किंतु बिंब, प्रतीक स्वयं तार्किक रूप में उपस्थित हो जाते हैं दिव्या जी की कविता के संबंध में अशोक चक्रधर जी का यह वक्तव्य सटीक बैठता है ‘दिव्या की कविताओं के आवेग, रुपकालंकार एवं प्रतीक भिन्न है, भाषा सीधी सरल और सुस्पष्ट है’
प्रोफ़ेसर गंगा प्रसाद विमल जी दिव्या जी की कविता के संबंध में लिखते हैं ‘दिव्या का विधान सहज व स्वानुभूत यथार्थ से अभिप्रेरित होने के साथ साथ संगीततमक लय से भी संपन्न है…’
भेजेगा वह प्यार ढेर
और ख़त में देगा सफ़ाई फिर
सांझ हुई है बाँझ मेरी
और रूह मेरी बौराई फिर (हूक)
दिव्या जी के अभी तक के काव्य रचना संसार एक पैनी नजर डाली जाये तो साफ झलकता है कि उन्होंने अपने अनुभव एहसास और संवेदनाओं के साथ भोगे हुए यथार्थ पर काव्य रचा है कल्पना का प्रयोग नाम मात्र ही है उनकी प्रारंभिक काव्य संग्रह ‘अतःसलिला’ से लेकर ‘11 सितंबर सपनों की राख तले’ तक में उन्होंने उन संदर्भों को रेखांकित किया है जो जन के लिए आवश्यक हो चाहे वह उपदेशात्मक रूप में ही क्यों ना संकेत करता हो एक प्रकार से कह सकते हैं वह उनके काव्य श्री का प्रधान तत्व ही है जन को कुछ देने का, उनकी कविता मानव जीवन की संगनी तो है ही साथ ही साथ वह जीवन के उल्लास मन को भी समेट कर चलती है उनकी इसी काव्य रूप को परखते हुए डॉ कमल किशोर गोयनका ने अपनी टिप्पणी में लिखा ‘दिव्या जी की कविताएं जहां एक ओर मानव जीवन की हालिया, क्षणभंगुरता, छलना असंतोष की वाणी देती है वहां जीवन के उल्लास को भी मन में समेटे चलती है।’
एक बौनी बूंद ने / मेहराब से लटक / अपना क़द लम्बा करना चाहा
बाक़ी बूंदे भी देखा देखी / लम्बा होने की होड़ में / धक्का-मुक्की लगा लटकीं
क्षण भर के लिए / लम्बी हुईं, गिरीं और आ मिलीं अन्य बून्दों में / पानी पानी होती हुई नादानी पर अपनी! (एक बौनी बूंद)
उनकी कविताओं ने जन को हमेशा से आगाह किया है उनके सुंदर भविष्य के लिए, सामाजिक जीवन की तमाम विसंगतियों से रूबरू कराने का उनका प्रयास हमें शक्ति के साथ आत्मबल देता है, आगे बढ़ने के लिए सांसारिक जीवन के कई संदर्भों के व्याख्यान का पुंज है उनकी कविताएं!
आज के समय में उनकी कविताओं का भाषिक विश्लेषण किया जाए तो साफ नजर आता है कि उनके वाक्य प्रयोग, शब्द चयन कविता के अर्थ विन्यास को और पौढता प्रदान करते हैं उर्दू शब्दों के साथ हिंदी भाषा की खड़ी बोली और स्थानीय बोलियों का प्रयोग उनके कविता के संदर्भ मे और चार चांद लगाते हैं छोटे-छोटे वाक्य, देशज शब्दों की प्रधानता भी उनके काव्य गुण का विशेष संदर्भ रहा है काव्य शीर्षक और उसमें निहित विचारों का रस केवल एक रस स्वाद के लिए नहीं बल्कि उसे कई विविध रसो में परिवर्तित करने का रहा है अतः हम कह सकते हैं कि आने वाले वर्षों में उनके काव्य निर्माण से हम और भी लाभान्वित होंगे ऐसा हम सभी को विश्वास है।