मधु कांकरिया
प्रतिष्ठित लेखिका मधु कांकरिया मुख्यतः कथा-साहित्य की एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। खुले गगन के लाल सितारे, सूखते चिनार, सलाम आखिरी, हरामखोर, सेज पर संस्कृति, हम यहाँ थे उनके प्रकाशित उपन्यास हैं और चिड़िया ऐसे मरती है, काली चील, फाइल, उसे बुद्ध ने काटा, अंतहीन मरुस्थल, और अंत में यीशू, बीतते हुए, भरी दोपहरी के अँधेरे आदि कहानी संग्रहों की एक लम्बी फेहरिस्त हैं। उनकी रचनाएँ वृहत्तर समाज का संस्पर्श करती हैं, स्त्री-जीवन की परिधि में सीमित कतई नहीं हैं। वे, देश-समाज की उन बीहड़ समस्याओं से मुठभेड़ करती हैं जो देश में नासूर सदृश फैले हुए हैं और उनके समाधान का रास्ता फिलहाल दिखाई नहीं देता। इस प्रकार, कहानीकार उन विकट संदर्भों से पाठक को परिचित ही नहीं करातीं, निराकरण हेतु उनमें वैचारिक उत्तेजना पैदा करती हैं। कहना न होगा कि मधु कांकरिया समकालीन लेखन की मुख्य धारा की कथाकार हैं। उनका योगदान कथेतर साहित्य-यात्रा वृतान्त विधा में भी महत्वपूर्ण है।
’’काश आप त्रिशूल बाँटने की बजाय लोगों में दुःख-दर्द बाँट पातीं।……जो संस्कृति गिरे हुओं को उठा नहीं सकती, उन्हें क्षमा नहीं कर सकती, वह धीरे-धीरे खोखली होती जाती है और एक समय आता है जब समय के रेत पर उसके पद-चिन्ह मिट जाते है।’’ ये वाक्य हैं मधु काँकरिया के कहानी-संग्र्रह ’और अंत में ईशू’ के; जिसमें कथालेखिका ‘धर्म‘ जैसे गम्भीर और संवेदनशील मुद्दे को विवेचना के लिए केन्द्रीयता प्रदान करती हैं। धर्म की मूलभूत अवधारणा क्या है? जीवन के लिए धर्म है या धर्म के लिए जीवन? धर्म आत्मोन्नयन है या अन्त्योदय? इन विराट प्रश्नों के उचित उत्तर देने के प्रयत्न में उन्होंने मुख्यतः दो कहानियों-’और अंत में ईशू’ और ’मरी दोपहरी के अॅधेरे में‘ क्रमशः हिन्दू और जैन धर्म की कटु आलोचना करते हुए इन धर्मसत्ताओं से टकराती ही नहीं हैं, ऐसी जड़वादी कट्टर मानसिकता का बेहिचक  विरोध भी करती  हैं। उनकी दृष्टि में वही धर्म श्रेयस्कर है, जो समाज को जोडकर समृद्ध करे न कि तोडे़। गिरे हुए को उठाना उसकी प्राथमिकता होनी चाहिए, अन्यथा धर्म स्वतः संकीर्ण व निष्प्रभावी हो जाते हैं जिससे विजातीय धर्माें की पकड़ मजबूत होने लगती है; देश का इतिहास ही नहीं वर्तमान भी इस तथ्य का साक्ष्य है। धर्म-संस्कृति की गतिशीलता तथा प्रसार के लिए उसमें लचीलापन अति आवश्यक है। भक्ति आन्दोलन के आचार्य भी इस तथ्य की संवेदनशीलता को भाँप लिए थे। इस दृष्टि से रामानुजाचार्य के आचार-विचार पर दृष्टिपात किया जाना चाहिए। जातिगत अवधारणा का त्याग कर उन्होंने भक्ति- मार्ग पर शुद्रों का भी हाथ थामा। यद्यपि, भोजन के पंक्ति में दूरी बनाये रखे। उनके शिष्य रामानन्द की प्रगतिशीलता का यथार्थ भी यही रहा।
’और अंत में ईशू’ कहानी का संवेदन-बिन्दु ’धर्मान्तरण‘ हैं- खाँटी वैष्णव परिवार के ब्राह्मण युवक के ईसाई बन जाने की कहानी। सांइस ग्रेजुएट और नक्सलवादी आन्दोलन का तेज-तर्रार कार्यकत्र्ता विश्वजीत पुलिसिया दमन का शिकार होने और अंधे भविष्य की दशा में ’पत्ताखोर’ हो जाता है। बक़लम लेखिका, ’बंगाल में हेरोइन या ब्राउन शुगर की एक डोज को एक पत्ता तथा उसके सेवन करने वाले को पत्ताखोर कहते हैं।’ तदनन्तर, विश्वजीत और उसकी माँ दोनों हताशा के गर्त में चले जातेे हैं। अंततः उसे भयानक नशाखोरी से ईसाई धर्म- प्रचारक उबारते हैं और वह प्रतिदानस्वरूप उन्हें अपना धर्म देता है। इस प्रकार, धर्म को अफीम कहने वाला माक्र्सवादी-लेनिनवादी विश्वजीत का धर्म से ही पुनर्जीवन होता है। कहानी से उठता चुभता सवाल यह कि कोई हिन्दू अपने धर्म का परित्याग कर दूसरे धर्म को क्यों स्वीकरता है? लेखिका स्वतः उत्तर देती टिप्पणी करती हंै, ’’इन्होंने (ईसाइयों)’ धर्म को जीवन और रोटी से सीधा जोड़ इसे फुटपाथों और झुग्गी झोपड़ियों तक पहुँचाया है जबकि हमने धर्म की ऊँची उड़ानें भरी है।‘‘
कहानीकार यह भी स्पष्ट घोषणा करती है कि जैन धर्मावलम्बियों का समाज के लिए कोई सक्रिय योगदान नहीं है। जबकि, वे स्वयं जैन समुदाय से आती हैं। उन पर लेखिका तीखा सवाल हैं- ‘‘ये मन और तन को मारकर आखीर में हासिल क्या करते हैं?‘‘ जैनियों के मक्का मदीना समवेत शिखर जी के इर्द-गिर्द रहने वाले श्रमिकों की व्यथा-कथा लिखती हैं-‘‘भूखों मरते गाॅव से पहाड़ दौड़ते हैं और पहाड़ से खाली हाथ फिर गाँव।’’ लेकिन जैनियों के गुरु को इनसे कोई लेना देना नहीं होता। एक मज़दूर के माथा फटने पर श्रावक कहता है, ’’महराज सांसारिक पचड़ों में नहीं पड़ते। आप बार-बार उन्हें स्पर्श कर दोषं लगा रही हैं। उन्हें प्रायश्चित करना पडे़गा।’’ ज़ाहिर है, वैयक्तिक साधना से सिर्फ आत्मोन्नयन  होता है। इस तरह, मधु काँकरिया जिस वर्ग, समाज, समुदाय या परिस्थिति विशेष के पीड़ित व्यक्ति को कहानी का केन्द्रीय पात्र बनाती हैं, उसके आर्थिक सामाजिक, पारिचारिक सभी आयामों, अर्थात् परिवेशगत सच्चाई को प्रामाणिक ढंग से प्रस्तुत करती हैं; जिससे समस्या बनावटी प्रतीत नहीं होती। ’भरी दोपहरी के अॅधेरे’ में बूँद भर आशा में पूरे पहाड़ पर दौड़ लगाने वालों के अति कठोर जीवन की अभिव्यक्ति हुई है। गिरिडीह के पाश्र्वनाथ मन्दिर की सीढ़ियों पर डोली ढोने और अपंग होने वाले श्रमिकों के कठिन जीवन को उन्हीं की मुँहज़बानी में (संवाद शैली में) प्रकाश में लाया जाता है जिनके लिए भूख ही सबसे बड़ा संकट है और श्लाघ्य है उनकी जिजीविषा और आशावादिता। नाउम्मीद में भी उनका जीवन गतिशील रहता है। मगर लेखिका की प्रगतिशील चेतना में उनकी गरीबी व्यवस्थागत दोष है। प्रच्छन्न रूप से ही सही, वे उस सड़ी- गली व्यवस्था का विरोध करती हैं। दो राय नहीं कि ’और अंत में ईशू’ ‘फाइल‘ तथा ’भरी दोपहरी के अंधेरे’ जैसी कहानियाँ समय-समाज की विडम्बनाओं पर सीधे-सीधे हस्तक्षेप करती हैं और विचारोत्तेजना क लिए उर्वर ज़मीन तैयार करती हैं ताकि उस दिशा के अँधेरे दूर हों।
यह दीगर है कि आक्रान्ताओं या विदेशी शासकों के आतंक या प्रलोभनवश  हिन्दू कभी मुसलमान हुए तो कभी ईसाई। वर्ण व्यवस्था की चक्की में पिसतें हुए सामाजिक पंक्ति के निचले पायदान पर खड़े उपेक्षितों ने धर्मान्तरण इस भ्रम में किए कि उन्हें वहाँ बराबरी का दर्जा मिलेगा। हिन्दुत्व का त्याग और बौद्ध धर्म का स्वीकार भी जातिगत विभेद की ही परिणति रही है।। इस जातीय विभेद की जडें़ राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक संास्कृतिक; सभी अनुशासनों में गहरे तक फैली हुई हैं। वस्तुतः प्राचीनतम सनातन धर्म में समयानुरुप नए नए मत आरोपित किए गए, जबकि, सनातन धर्म के मूल मंे कोई असमानता है ही नहीं। ’गीता’ में कहा गया है, ’’विद्या विनय सम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनी। शुनि चैव श्वपाके य पंडिताः समदर्शिनः।’’ भारतीय चिन्तन के महान् स्तम्भ शंकराचार्य ने धर्म और दर्शन की अराजकता को दूर करने के लिए ही वैदिक-धर्म को नए ढंग से व्याख्यायित किया। उनके प्रसिद्ध वाक्य-’’ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरःः। अनेन वेद्यं सच्छास्त्रमिति वेदान्तडिण्डिमः।।‘‘ में मनुष्य-मनुष्य में ही नहीं जीव तक के भेद को अस्वीकारा गया है। इसीलिए, कालान्तर में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने वेद के निहितार्थ को स्पष्ट करने के लिए ’सत्यार्थ प्रकाश’ लिखा। वर्तमान में भी जरूरत है विवेकानन्द और गाँधी जैसे युगपुरुषों की जो वंचितों के उत्थान के प्रति आग्रही रहे और निर्धनों की बस्ती उनकी तपोभूमि रही। ऐसे उदात्त भावबोध संपंन्न हिन्दुओं को नजरअन्दाज़ नहीं किया जा सकता। एक वस्तुसत्य यह भी है; हिन्दू धर्म की उदारता के कारण ही हमसब उसकी व्यावहारिक न्यूनताओं को रेंखांकित कर पाते हैं। बहरहाल, कहानीकार का धार्मिक चिन्तन उन्हें संस्कृतिकर्मी अधिक ठहराता है। सिद्धान्त और व्यवहारों की रस्साकशी में पिसते इंसान को मानवीय गरिमा देने की कोशिश से निस्संदेह उनके लेखकीय व्यक्तित्व को उत्कर्ष मिलता है।
मधु काँकरिया के लिए कहानियाँ स्वानुभवों की मात्र अभिव्यक्ति नहीं हैं, सरोकार की बहुआयामिता के कारण वे पाठकीय अनुभव-सम्पदा की वृद्धि तथा उनमें नवोन्मेष करती हैं। प्रत्येक कहानी एक नये पहलू के साथ पाठकों के समक्ष होती हैं। कहानीकार की संवेदनशीलता घर की दहलीज पारकर उन कोने-कतरों तक भी पहुँचती है जहाँ जिन्दगी बदबू में सनी पड़ी हुई है। उन्हें सामान्य-जीवन देने की प्राथमिकता पूरे समाज की होनी चाहिए लेकिन वे उपेक्षित- तिरस्कृत हैं। जबकि, ईसाइयों में उन्हें उठाने की पहल बखूबी दिखाई देती है। ’फाईल’ कहानी में एक ऐसी ही संस्था का उल्लेख है। आयरलैंड के ईसाइयों द्वारा संचालित ’सिनी आशा’ में धूल में रेंगते-रिसते फुटपाथों पर रोते कलपते बच्चों, नशे एवं कुटेबों के शिकार किशोरों और लाल बत्ती इलाकों की जख्म खाई किशोरियों के पुनर्वास की व्यवस्था होती है। मगर प्रस्तुत प्रस्तुत कहानी में कहानीकार का उद्देश्य ईसाइयों की नेकदिली की सराहना नहीं है, वरन् उनके पुनर्वास की प्रक्रिया और व्यवस्था पर आपत्ति दर्ज़ कराना भी है। पुनर्वास हेतु अतीत से मुक्ति आवश्यक है, अतीत के दाग- धब्बे  भविष्य को भी बदरंग बना देते हैं। इसीलिए, फाइलों में दर्ज़ संदर्भों से भुक्तभोगी कभी उबर नहीं पाता, अतीत उसकी पीठ पर चिपका होता है। परिणामस्वरूप, अभागे अपने जीवन में राग-रंग का तराना छेड़ना भी चाहे तो संभव नहीं होता।
‘विकलांगता‘ एक अभिशाप है। अपंग व्यक्ति जितना व्यथित नहीं होता अपंगता से, उससे कहीं ज्यादा आसपास के लोगों से मानसिक शूल पाता है। ‘राग दरबारी‘ में तो विकलांग का नाम ही लंगड़ पड़ जाता है। समाज का यथार्थ भी यही है। प्रधानमंत्री जी उन्हें ‘दिव्यांग‘ कहें उससे फर्क नहीं पड़ता, अलबत्ता उपहास अधिक प्रतीत होता है। ‘नामर्द‘ कहानी का पात्र सोनू विकलांगता के कारण ही अपमान भरा जीवन जीने को अभिशप्त है। नामर्द होने का मिथ्या आरोप मढ़ उसकी विवाहिता जब उसका परित्याग करती है तो प्रतिक्रियावश सोनू निज पौरुष के प्रदर्शन हेतु मित्र कुबड़ी संग ही बलात्कार जैसा आचरण कर बैठता है। जाहिर है, शारीरिक विकृति व्यक्ति को आजीवन कोंचती है, वह निर्कुंठ नहीे हो पाता, अन्य उपलब्धियाँ चाहे जितनी हासिल कर ले।
‘नक्सलवाद‘ की पृष्ठभूमि पर आधारित कहानीकार की कई कहानियाँ हैं। उनमें से ’और अंत में ईशू’, ’महाबली का पतन’ और ‘और कामरेड‘ का उल्लेख करना चाहूँगी। चारू मज़ूमदार, कानू सान्याल और नागभूषण पटनायक जैसे नक्सलवादी नेताओं के समक्ष जो बड़ा लक्ष्य था वह कैसे डिगा, क्रान्तिकारियों का गुब्बारा कैसे पिचक गया तथा नक्सलवादी संगठन कैसे अराजक  और हिंसक हो गए; इन विसंगतियों पर हिन्दी-कहानीकारों की कई कहानियाँ हैं। वरिष्ठ कहानीकार काशीनाथ सिंह की ’लाल किले का बाज’ और संृजय की ‘कामरेड का कोट’ में  कामरेडों के अन्तर्विरोधों को बड़ी संज़ीदगी से उभारा गया है। ’महाबली का पतन’ में आशीष दा के बहाने लेखिका ने भी नक्सलवादियों के चारित्रिक पतन को ही मुख्यतः रेखांकित किया है। जिस व्यक्ति के जीवन में नैतिकता या रिश्तों की अहमियता न हो उसे पतनशील कहना उचित होगा। कुलीन पविार की जया पिता के अत्यधिक विरोध और निजी समस्त सुखों को दाँव पर लगाकर क्रान्ति की धूम मचाने वाले आशीषदा पर स्वयं को न्यौछावर करती है, कलान्तर में वही परित्यक्ता होती है। वह अधम बेटी जैसी उम्र की एक युवती से दुबारा विवाह रचाता है। उसका आदर्श अधेड़ावस्था में ढह जाता है। अतएव, उसकी खुद की युवा बेटी सिर्फ माॅ की होकर जीती है; पिता के नाम से भी ऐतराज करती है। दुखःद, समानता और समाजवाद का नारा देने वाले स्त्री को बरगलाकर उसे भोग- वस्तु ही बनाये रखने का षडयन्त्र रचते हैं। स्त्री वस्त्र नहीं कि जब चाहे बदल देे।
‘क्या है नक्सलवाद‘- ‘‘जमीन उसी की जो उसको जोते‘‘। ‘जमींदारों के विरुद्ध शुरू हुआ सशक्त आन्दोलन‘‘ जैसे वक्तव्य के जरिए ‘लेकिन कामरेड‘ में नक्सलवाद के इतिहास को कहानीकार ने बड़ी खूबसूरती से कथाविन्यास की शक्ल दी है जिससे सामान्य पाठक भी इस वैचारिकी और इसके संघर्ष को समझ सकता है।  इस वैचारिकी की ऐसी कौन सी नैतिकता थी जिसका असर येनकेन प्रकारेण विश्वव्यापी हुआ? बकौल कामरेड गोपालीदा ‘‘यातनाओ के बावजूद टूटे नहीं थे……..हमारे टूटते हौसले और जर्जर हुई काया में यह विचार जीवन भरता कि सारे संसार में सुप्त शोािषत जाग रहे हैं; एशिया उठ रहा है, अफ्रीका अंगड़ाई ले रहा है…… जिन्होंने सदियों तक लहू बहाया……अब हूंकार भर रहे हैं…….‘‘ कहानीकार की पक्षधरता नक्सलवाद के प्रति साफ दिखती है। आख्याता के अनुसार, यह वैचारिकी अनन्त सामाजिकता का वितान रचती है इसीलिए कहानी में मिल्की चाकलेटी लेडी मेरी टाइलर भी सम्मिलित हुईं। वस्तुतः कहानी नक्सलवाद के लक्ष्य को रेखांकित करती है। किसानों के अधिकार के लिए खुद को हिंसा उत्पीड़न के कठिन डगर पर झोंक देना, पुलिस की हिरासत में प्राणान्तक पीड़ा झेलते हुए मर जानी मगर टूअना नहीं का संकल्प का आख्यान है कहानी ‘लेकिन कामरेड‘।
बेहतरीन कहानी ‘जलकुम्भी‘ का शीर्षक अत्यन्त सार्थक है। जलकुम्भी जहाँ उगता है, वहाँ के आसपास की जमीन को अपनी जड़ो में जकड़ लेता है। इस प्रतीक के जरिए कहानी का संकेत है- शिशु का जन्म धरती के जिस भूभाग पर होता है; वहाँ के जलवायु की छाप उसके शरीर संरचना पर अमिट होती है। भारत के अनाथालय से गोद लिए प्रणीता की परवरिश नीडरलैंड के दम्पति यद्यपि बखूबी करते हैं, वह खुश भी रहती है, लेकिन उसके सहपाठी जब उससे पूछते हैं- वह भारतीय है या पाकिस्तानी या बांग्लादेशी तो उसका वजूद कमजोर पेड़ की भाँति हिल जाता है। तब उसे यह प्रतीति होती है कि उसका रंग, कद बाल और भूरी आँखें योरोपियों जैसे नहीं हैं। फिर, वह अपने जनक-जननी, विशेषरूप से जननी द्वारा ‘त्याग‘ के कुप्रसंग जानने को बेचैन होती है। भारत के अनाथालय में आकर बच्चों से मिलजुलकर अपने उपेक्षित शैशवकाल को कुरेदती सच तक पहुँचने हेतु।  वस्तुतः कहानी ज्वलन्त समस्या ‘नवजात- परित्याग‘ के अँधेरे पक्षों पर उँगली  उठाती है। प्रणीता तमाम आशंकाओं के मध्य मंथन करती है, उसकी माँ रंडी थी, रखैल थी या वे कौन से दबाव थे जिसकी वजह से उसने मेरा त्याग किया? विदेशियों द्वारा गोद लिए जन्मना भारतीय बच्चों की त्रासदी का अद्भुत चित्रांकन है कहानी ‘जलकुम्भी‘। कथा की गझिनता प्रभावित करती है।
मधु कांकरिया ने समाज के खदकते ज्वलन्त विषयों पर ही नहीं, निम्नमध्यवर्र्गीय परिवारों की व्यथा-कथा को भी उकेरने का प्रयत्न किया है। ’महानगर की माॅ’ ’कुल्ला’ और ’कालीपैंट’ जैसी कहानियों में क्रमशः ’माॅ’ पत्नी’ और ’अविवाहित युवतियों की मनःस्थितियाँ निरूपित हैं। माँ-बाप अपने सपने बच्चों को सौंपते हैं तथा इस निमित्त हर संसाधन जुटाना चाहते है; लेकिन यह सोच निम्नमध्यवर्र्गीय अभिभावक के लिए यातनाप्रद भी होती है। बच्चों की फिक्रमन्दी मंे  तनाव मंे जीने के लिए वे अभिशप्त होते है। ज़ाहिर है, पहली प्राथमिकता ‘घर‘ की होती है जो आवश्यानुरुप उनके पास नहीं होता, एक-दो कमरे में गुजर-बसर करते हैं। मगर, स्वाध्याय निमित एकान्त चाहिए जो वहाँ दुर्लभ होता है। बमुुश्किल एकान्त का आयोजन होने पर दूसरे की हॅसी ही छिन जाती है। ’महानगर की माॅ’ दो बेटो के विपरीत धु्रवों का सामंजस्य न बना पाने की स्थिति में तनावग्रस्त होती है। एक को बोर्ड का इम्तहान देना है तो दूसरे को मैच देखने की ख्वाहिश है। ’कुल्ला’ में सास बहू की भिन्न स्थितियों का वर्णन है जिसमें दो पीढ़ियों के फर्क के रेखांकन का प्रयास है। सास, पति के दुव्र्यवहारों को सहती बूढ़ी हो गयी लेकिन आज की बहू कुल्ला कर देने जैसी बद्तमीजियों पर सख्त ऐतराज दर्ज़ कराती है।  स्त्रियों में अस्मिता बोध होने से वे चुप नहीं रहतीं। वैसे, यह कहानी संवेदनात्मक धरातल पर लचर है। ’काली पैंट’ कहानी काॅलेज जाने वाली लड़कियों के रुप यौबन के गुरुर को रेखांकित करती है। हरेक को वे अपना दीवाना समझ लेती हैं। उनकी इस मनोवृत्ति पर कहानी कटाक्ष ही नहीं करती, उन्हें आत्मविस्तार के लिए प्रेरित भी करती है। रिश्तों की स्वार्थपरता और संबंध विच्छेदन की मार्मिक कहानी ’कीडे़’ है जिसमें  पिता घावों और घावों में पड़े कीडे़ से पीड़ित है, परन्तु पुत्र घोर उपेक्षा का बर्ताव करते है। बेटे, कभी उन्हें ’आकाश जितना अनन्त और सागर जितना गहरा’ चाहते थे, अब वे सबके लिए अवांछित और घृणास्पद हैं। प्रेमचन्द की ’बूढ़ी काकी की भतीज-बहू ईश्वर से डरकर ही सही अंत में भोजन का थाल सजाती है। किन्तु अब के बेटे-बहू को न समाज का भय है, न ईश्वर के प्रकोप का। सात फेरे लगाने वाली पत्नी भी दुर्दिन में साथ नहीं होती। सत्य है, भावनाएँ भी स्वार्थ की सहचरी होती हैं। सुख के साथी सभी होते हैं, बिगड़े का नहीं।
मध्यवर्गीय व्यक्ति निर्कुण्ठ हो, वर्तमान में यह स्वप्न सा लगता है। भौतिकवादी प्रतिस्यर्धा जीवन को निरन्तर साँप की तरह डस रही है। सुखोपभोग के अधिकाधिक साधन जुटा लेना जीवन का परम लक्ष्य तथा औरों की निगाह से आत्ममूल्यांकन युगधर्म हो गया है। नतीज़तन, व्यक्ति-सुख को ग्रहण लगता जा रहा है। इसीलिए, कहानी ’मुहल्ले में’ के मुख्य चरित्र डाॅक्टर योगेश अर्थहीनता की ग्रन्थि में आकंठ डूबे रहते हैं क्योंकि उनके पास न तो बंगला है और न गाड़ी। उन्हें प्रतिपल महसूस होता है कि धनाभाव के कारण लोग उन्हें सम्मान नहीं देते, अतएवः वे दुखी हैं। स्पर्घा का तनाव जिन्दगी-रस को सुखा देता हे। जाहिर है, उपभोक्तावादी संस्कृति के बढ़ते ग्राफ से आम आदमी का सुख-चैन छिन गया है, उसकी ज़िन्दगी  अभिशप्त है। वह, खुद की शर्तो पर अपनी जिन्दगी नहीं जीता।
कहानीकार मधु मेहनतकश को भले ‘श्रमदेवता‘ लिखें परन्तु उन्हें यह तल्ख बोध है कि गरीबों को अमीर वर्ग नींबू की तरह निचोड़ देता है। समाज की इस कड़वी सच्चाई का तसदीक देती हैं कहानी ‘बैल‘। शीर्षक से ऐसा प्रतीत होता है, यह कहानी पंचतंत्र की कहानियों की भाँति पशु केन्द्रित है; किन्तु  कथ्य-सत्य के केन्द्र में मनुष्य है। नेपाल के गाँव-गँवई का लालबहादुर मसि भींगने की अवस्था में पिता द्वारा कोलकाता भेज दिया जाता है गुजर-बसर के लिए और वहाँ खटते-खटते वह बूढ़ा हो जाता है किन्तु उसके वजूद में कोई परिवर्तन नहीं आता। उत्थान की जगह पतन ही होता है। जिन बच्चों का गो-मूतकर उन्हें राजा मुन्ना बनाता था, जवान होकर वे उसे जब-तब पीटते हैं।। मालिक, इस अनीति से नाराज होता है, अपने स्वामित्व के अधिकार का उपयोग करते हुए उसकी उम्र का ध्यान रखते हुए श्रममुक्त रखना चाहता है लेकिन तब वह उदास रहने लगा। जमनालाल कहता है-‘‘काम करा-कराके मैंने इसे आदमी रहने ही कहाँ दिया जो आदमी की तरह आराम करने की सोचे वह। ……बैल बना डाला।‘‘ विडम्बना यह कि बूढ़े होने पर उसे मनहूस कहा जाता है बूढ़े होने पर। नैतिकता का एक उभरा पक्ष यह कि पुरानी पीढी में मनुष्यता शेष है किन्तु नई पीढी में सद्भावना का स्रोत सुखता जा रहा है।
शिल्प योजना- कथाग्रथन, खूबसूरत भाषा, अन्तःप्रकृति और बाह्य प्रकृति के चित्रण, गहरे सामाजिक सरोकार, यथार्थ के धूसर रंगों की शिनाख्त और सत्यान्वेषी दृष्टि के कारण मधु काँकरिया की कहानियाॅ निस्संदेह पठनीय हंै और यह विशेषता कहानी की पहली शर्त होती है जिससे रचनाकार को प्रसिद्धि मिलती है। मधु काँकरिया की कथाशैली का एक वैशिष्ट्य संबोधनपरकता है; ‘कहत कबीर सुनो भाई साधो‘ की तर्ज पर। इसे संवाद शैली कहना उपयुक्त न होगा क्योंकि जिज्ञासा एक- दो बार ही व्यक्त हेाती है; तत्पश्चात् आख्याता कहानी का सूत्रधार बन जाता है और कहानी- वृत्त उसी के द्वारा पूर्ण होती है। ‘चिड़िया ऐसे मरती है‘ और ‘लेकिन कामरेड‘ का नामोल्लेख इस संदर्भ में समीचीन होगा। पहली कहानी का कथ्यार्थ में दम है कि प्रेम वायवीय हो सकता हे मगर जीने के लिए धरती की कठोरता चाहिए। जिन्दगी का आसमानी फलसफा जितना सुहाना लगता है यथार्थ ठीक विपरीत होता है। विजय जैसे अभावग्रस्त और अकेले व्यक्ति के लिए प्रेमिल स्मृतियाँ जीवन-संबल भले हों, विवाहित स्त्री के लिए पूर्व प्रेम-प्रसंग घुन सदृश होते हैं, इसीलिए, रेशमा वर्तमान साधते हुए विजय को तवज्जो नहीं देती। बच्चों के जिए वस्त्र खरीदने चली जाती है और विजय के शब्दों में कामयाब कहलाती है।
मधु की कहानियों को पढ़ते हुए एक तल्ख सवाल साहित्यकारों की संवेदना पर  उठाया जा सकता है। जिस तरह, गरीबी, बदहाली और हादसे से निस्संग होकर कलाकर्मी रचना-पथ्य जुटाने के लिए पीड़ितो की निजता में हस्तक्षेप करतें हंै क्या वह मानवीय कार्य है? ’भरी दोपहरी के अॅधेरे में इस क्रूर सत्य की स्वीकृति आख्याता ने स्वयं ’कमीनेपन’ शब्द- रूप में किया है। साक्षात्कार शैली में विकसित हुुई कहानियों में खोजी पत्रकारों जैसा व्यवहार आख्याता द्वारा हुआ हैं। प्रतीत होता है, कहानीकार का संवेदनात्मक सरोकार सिर्फ कहानी के लिए ’कच्चे माल’ की प्राप्ति है, सहानुभूति नहीं। रचनाओं में कहानी और साक्षात्कार विधा की आवाजाही से यह विचार भी मानस में कौंधता है- लगातार प्रश्न पूछने से कोई पीड़ित निजता का उत्खनन होने से झल्ला सकता है लेकिन कहानी में ऐसी प्रतिक्रिया कहीं नहीं होती। फिलहाल, मधु काँकरिया की कहानियाँ इन सवालों के खरांेच से बच निकलती हैं क्योंकि रचनाकार एकान्त में बैठकर साहित्य रचता हैं, सामाजिक कार्यकत्र्ता या पत्रकारों की भाँति पीड़ितों को भुनाने उनके समक्ष खड़ा नहीं होता।

डॉ. शशिकला त्रिपाठी
आचार्य एवं अघ्यक्ष, हिन्दी विभाग,
वसंत महिला महाविद्यालय (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय)
राजघाट फोर्ट, वाराणसी
अध्यक्ष हिन्दी- विभाग, वसंत महिला महाविद्यालय (बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय) राजघाट फोर्ट, वाराणसी-221001 संपर्क - 9936439963, 8840473942

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