Sunday, May 19, 2024
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संपादकीय – देश की लंका लगा डाली…!

बचपन में मैंने दो कहावतें सुनी हैं। पहली कहावत के अनुसार – “इन्सान बोलना सीखने में करीब तीन साल लेता है। बाकी का सारा जीवन यह सीखने में बिता देता है कि कब नहीं बोलना है और क्या नहीं बोलना है!” और दूसरी कहावत है कि – “यदि आप दो ही बातें बोलेंगे तो पांच गलत बातें तो नहीं ही बोल सकते।” और ये दोनों कहावतें इस फ़िल्म की टीम पर लागू होती हैं। ओम राऊत, जो कि फ़िल्म के निर्देशक हैं, चुप्पी साधे रहे और मनोज मुंतशिर शुक्ला को बलि का बकरा बनने के लिये मीडिया के सामने छोड़ दिया। और मनोज मुंतशिर शुक्ला भी उस जाल में फंसते चले गये। वे इतना बोले, इतना बोले कि हर एक बात के बाद एक यू-टर्न लेना पड़ गया।

एक आदिपुरुष ने मॉडर्न भारत की लंका लगा डाली (इसी फ़िल्म की भाषा प्रयोग में लाते हुए) और सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष प्रसून जोशी आराम से बांसुरी बजाते रहे… हमारा सवाल बहुत सीधा सा है – “यदि एक विद्यार्थी परीक्षा में किसी प्रश्न का उत्तर पूरी तरह से ग़लत लिख कर आता है और परीक्षक उसे पास कर देता है, तो कुसूर किस का है?”
हमारे बच्चे तो बिगड़ गये और उन्होंने उनकी अपनी भाषा में रामायण की “वाट लगा दी!” मगर सेंसर बोर्ड के मुखिया क्या कर रहे थे? क्या वे भी फ़िल्म की स्क्रीनिंग के दौरान ‘विभीषण की पत्नी से मसाज करवा रहे थे?’
कष्ट तो इस बात का है कि प्रसून जोशी और मनोज मुंतशिर शुक्ला एक ही विचारधारा को मानने वाले लोग हैं। मगर जब  ‘पठान’ फ़िल्म में दीपिका पदुकोण की भगवे रंग की बिकिनी को प्रसून जोशी सेंसर से पास कर देते हैं तो मनोज मुंतशिर शुक्ला कहते हैं कि हमें आम आदमी की भावनाओं का ख़्याल रखना होगा। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की सीमा को समझना होगा। मगर स्वयं मनोज और ओम राऊत तमाम सीमाओं को लांघ जाते हैं।
ओम राऊत को भी समझना होगा कि ऐतिहासिक पात्रों के साथ छेड़छाड़ को जनता नज़रअंदाज़ कर सकती है मगर भगवान राम और कृष्ण के साथ उनकी भावनाएं उनके विश्वास जुड़े हैं। वे तानाजी जैसी स्वतंत्रता रामायण के साथ नहीं ले सकते। राम, सीता, लक्ष्मण, रावण, भरत सब की आम हिन्दू के मन में एक छवि बनी है। हम उन छवियों को मंदिर में पूजते आए हैं। आपको उन छवियों को ध्वस्त करने का कोई अधिकार नहीं है।
कष्ट इस बात को लेकर भी है कि यह फ़िल्म ‘आदिपुरुष’ सिनेमा के किसी भी मानदण्ड पर एक अच्छी फ़िल्म साबित नहीं होती। स्क्रिप्ट, संवाद, कलाकारों का गेटअप और अभिनय… सभी निम्न स्तर के हैं। यदि ऑस्कर में कोई कॉपी-पेस्ट का अवार्ड होता तो फ़िल्म आदिपुरुष सदी की महानतम फ़िल्म का अवार्ड जीत सकती थी। फ़िल्म में वीएफ़एक्स इफ़ेक्ट तक ढेर सी अंग्रेज़ी फ़िल्मों से हूबहू नकल मार कर लिये गये हैं। चरित्रों की वेशभूषा कहीं से उधार ली है तो संवाद कहीं और से।
आदिपुरुष के रावण और मेघनाद
बचपन में मैंने दो कहावतें सुनी हैं। पहली कहावत के अनुसार – “इन्सान बोलना सीखने में करीब तीन साल लेता है। बाकी का सारा जीवन यह सीखने में बिता देता है कि कब नहीं बोलना है और क्या नहीं बोलना है!” और दूसरी कहावत है कि – “यदि आप दो ही बातें बोलेंगे तो पांच गलत बातें तो नहीं ही बोल सकते।” और ये दोनों कहावतें इस फ़िल्म की टीम पर लागू होती हैं। ओम राऊत, जो कि फ़िल्म के निर्देशक हैं, चुप्पी साधे रहे और मनोज मुंतशिर शुक्ला को बलि का बकरा बनने के लिये मीडिया के सामने छोड़ दिया। और मनोज मुंतशिर शुक्ला भी उस जाल में फंसते चले गये। वे इतना बोले, इतना बोले कि हर एक बात के बाद एक यू-टर्न लेना पड़ गया।
अपने एक टीवी इंटरव्यू में मनोज मुंतशिर शुक्ला यहां तक कह गए कि हनुमान भगवान नहीं हैं। पूरे भारत में सबसे अधिक जिस पुस्तक का पाठ होता है उसका नाम है हनुमान चालीसा। मनोज ने इस बयान के ज़रिए अपने लिए और मुश्किलें खड़ी कर लीं।
मनोज मुंतशिर शुक्ला तो यहां तक कह गये कि सबसे विवादित डायलॉग “कपड़ा तेरे बाप का, तेल तेरे बाप का, आग तेरे बाप की तो जलेगी भी तेरे बाप की” उनका अपना लिखा नहीं है। उन्होंने कहा कि वे ऐसे बहुत से वीडियो साझा कर सकते हैं जिनमें यही भाषा इस्तेमाल की गयी है। सवाल यह है कि क्या उन वीडियो में संवाद मनोज मुंतशिर शुक्ला जैसे पढ़े लिखे व्यक्ति ने लिखे हैं।
वैसे आजकल एक वीडियो स्वामी अमोध लीला प्रभु का भी वायरल हो रहा है जिसमें वे अपने भक्तों से सवाल करते हैं, “घी किसका – रावण का, कपड़ा किसका – रावण का, आग किसकी – रावण की, जली किसकी…” इसके बाद भक्तों की हंसी सुनाई देती है। दरअसल हमारी अपेक्षाएं मनोज मुंतशिर शुक्ला से इतनी ज़्यादा हैं कि हम उनके साथ जुड़े साहित्यिक चोरी के तमाम इल्ज़ाम भुला कर उनसे प्यार करते हैं। मन में विश्वास जगा रहता है कि यदि उनका नाम किसी फ़िल्म से जुड़ा है तो उसमें भाषा एवं साहित्य की गुणवत्ता तो अवश्य दिखाई और सुनाई देगी।
फिल्म को लेकर विवाद बढ़ने के बीच उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और दिल्ली के विभिन्न हिस्सों में दर्शक सड़कों पर उतर आए। नेपाल में फिल्म ‘आदिपुरुष’ के संवादों को लेकर उठे विवाद और फिल्म में माता सीता का उल्लेख “भारत की बेटी” के रूप में किये जाने के बाद ‘आदिपुरुष’ सहित सभी हिंदी फिल्मों के प्रदर्शन पर सोमवार को रोक लगा दी गई। वहीं अयोध्या में संतों ने फिल्म पर तत्काल प्रतिबंध लगाने की मांग करते हुए कहा कि फिल्म के संवाद सुनकर खून खौल उठता है।
रामानंद सागर के टेली सीरियल रामायण में भगवान राम का अभिनय करने वाले अरुण गोविल के मुताबिक रामायण हमारे लिए एक आस्था और भरोसे का विषय है और उसके साथ किसी तरह की छेड़छाड़ की जाए, यह स्वीकार नहीं किया जा सकता है. रामायण को लेकर आधुनिकता या पौराणिकता की बात कहना गलत है, फिल्म के स्पेशल इफेक्ट्स और प्रेजेंटेशन की बात अलग है, लेकिन चरित्रों को सही तरीके से पेश करना जरूरी है हालांकि उसे लेकर जो बातें कहीं जा रही है, वो चिंता की बात है।
उन्होंने आगे कहा कि राम-सीता-हनुमान को आधुनिकता और पौराणिकता के ढांचे में बांटना गलत है… ये सभी आदि भी हैं, अनंत हैं और इन सब के स्वरूप पहले से तय हैं तो उसी स्वरूप को फिल्म में दिखाने में क्या आपत्ति थी? अरुण ने कहा कि ‘आदिपुरुष’ में रामायण की कहानी को पेश करने से पहले निर्माताओं को सोचना था कि वो किस तरह से लोगों की आस्था के विषय से जुड़ी रामायण को पेश करने जा रहे हैं।
इसी सीरियल में सीता का किरदार निभाने वाली दीपिका चिखलिया का कहना है, “मुझे ये लगता है कि अब रामायण को नहीं बनाना चाहिए। क्योंकि हर बार जब बनती है तो कोई ना कोई वाद-विवाद खड़ा होता है। रामायण एक ऐसा  है, जो पूजनीय है। चाहे वो राम जी हों, सीता जो हों या हनुमान जी हों। बल्कि रामायण को स्कूल, कॉलेज, इंस्टीट्यूशन में आप सिखाइए, पढ़ाइए, दिखाइए। क्योंकि ये हमारे आने वाली पीढ़ी को एक नई सोच दे सकती है। मैं तो सिर्फ इतना कहना चाहती हूं। आइए हम अपने विश्वास का सम्मान करें और उसकी रक्षा करें रामायण मनोरंजन का स्रोत नहीं है।” 
बी.आर चोपड़ा की महाभारत में ‘धृतराष्ट्र’ की भूमिका निभाने वाले अभिनेता गिरिजा शंकर ने ‘आदिपुरुष’ के संवादों पर प्रतिक्रिया दी, “इस टपोरी बोलचाल की भाषा का उपयोग करने की कोई आवश्यकता नहीं थी, जो जनता की भाषा थी। आखिरकार, हम अपने बहुत प्रिय रामायण – रामचरित मानस को चित्रित कर रहे हैं और इसका मंचन वर्षों-वर्षों तक किया जा रहा है। मुझे लगता है कि इस भाषा में बात करने के बजाय वे और भी बेहतर कर सकते थे। वे बात करने का बेहतर तरीका, बेहतर संवाद ढूंढ सकते थे, जिससे आने वाली पीढ़ियों के लिए एक ट्रेंड सेट होता कि कंटेंट कितना अच्छा है और कैसे इसे बहुत अच्छी भाषा और शब्दावली में अच्छी तरह से चित्रित किया जा सकता है।”
वहीं इस फ़िल्म में सीता का चरित्र निभाने वाली अभिनेत्री कृति सेनन की माता जी श्रीमती गीता सेनन ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए लिखा है, “जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी। इस दोहे (चौपाई) का मतलब ये है कि यदि आपकी मानसिकता और चीजों को देखने का नजरिया, दोनों अच्छा है तो आपको दुनिया भी अच्छी ही दिखाई देगी। प्रभु श्री राम हमें यही सीख देकर गए हैं। उन्होंने हमें सिखाया है कि शबरी के फलों में प्रेम ढूंढो और इस तथ्य पर ध्यान मत दो कि वे आधे खाये हुए हैं। त्रुटियों को नहीं भावनाओं को समझो। जय श्री राम।”
आदरणीय गीता जी ओम राऊत और मनोज मुंतशिर शुक्ला जी ने तो विभीषण को मदिरापान करते हुए दिखाया है। हम सब जानते हैं कि विभीषण रामभक्त थे और मांस मदिरा का सेवन नहीं करते थे। वे केवल सात्विक भोजन करते थे। यह एक अक्षम्य अपराध है कि विभीषण को पर्दे पर मदिरापान करते दिखाया जाए।
रामायण और महाभारत टीवी सीरियलों से जुड़े कलाकारों – मुकेश खन्ना, सुनील लहरी, गजेन्द्र चौहान सहित तमाम हस्तियों ने इस फ़िल्म के फूहड़पन की निंदा की है। सबसे बड़ी दिक्कत तो यह है कि फ़िल्म में तमाम चरित्रों की शक्लें ही बदल कर रख दी हैं – राम के चेहरे पर मूंछें हैं तो हनुमान के चेहर पर बिना मूंछ की दाढ़ी है। दोनों ने चमड़े के वस्तर पहन रखे हैं। मेघनाद के शरीर पर टैटुओं की भीड़ जमा कर दी गई है। बाली और सुग्रीव भी कुछ अजब से किरदार नज़र आते हैं। रावण तो जैसे किसी मुग़ल काल फ़िल्म का हिस्सा दिखाई देता है। उसके दस सिर तो पूरे समाज के सिरों में दर्द पैदा कर रहे हैं। सीता हरण का सीन तो निर्देशक के कच्चेपन की पराकाष्ठा है। कितना प्यारा नाम है – पुष्पक विमान! फ़िल्म बनाने वालों ने उसे भी नहीं बख़्शा है। प्रभु राम उन पर दया करें।
तेजेन्द्र शर्मा
तेजेन्द्र शर्मा
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.
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64 टिप्पणी

  1. दर्शक को मूढ़मति समझते हुए, आधुनिकता का हवाला देते हुए कुछ भी प्रस्तुत कर देने का ख़ामियाज़ा तो उठाना ही होगा । आस्था के नाम पर लोग अति संवेदनशील हो जाते हैं, ऐसे में “आदिपुरुष” नामक खिलवाड़ करने का ओम राउत और उनकी टीम सोच भी कैसे पाई ! भाषा के स्तर का तो ध्यान रखना ही चाहिए था । मनोज मुंतशिर हर बार यही बोल रहे थे कि आज की पीढ़ी के लिए फिल्म बनी है, काश हम उन्हें यह बता पाते कि हम अपने दस वर्षीय पुत्र को इसलिए नहीं दिखा पाये कि कहीं वो इस भाषा को ” स्वीकार्य” ही न मान ले । जिस “आदर्श” को हम इस फिल्म में देखना चाह रहे थे , उसका तो नामोनिशान ही नहीं है । फिल्म के कलाकारों का गेटअप भी हास्यास्पद है , जो छवि हम सबके हृदय में बसी हुई है,उससे बिल्कुल विपरीत।
    देशवासियों का गुस्सा जायज़ है ; अभिव्यक्ति के नाम पर फूहड़ता परोसने की स्वतंत्रता नहीं दी जा सकती ।

    सामयिक संपादकीय के लिए साधुवाद!

  2. बहुत सुन्दर, सार्थक एवं समसामयिक सम्पादकीय। मैं आपके प्रत्येक शब्द से पूर्ण सहमति जताते हुए दीपिका चिखलिया जी के शब्दों को उधार लेकर कहना चाहूंगा कि वास्तव में “रामायण मनोरंजन का स्रोत नहीं है।”

  3. पुरवाई का संपादकीय एक समीचीन और अहम मुद्दे पर है।फिल्म आज भी भारत में ओपिनियन मोबिलाइजर की क्षमता रखती है ।आदिपुरुष एक गड्डमुड्ड गोला फिल्म इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।पुरवाई ने यह मुद्दा उठाकर उस पर सार्गभित और शालीन भाषा में पाठकों को परोसा है और इसे भी एक अंदाज़ कहना अनुचित नहीं कि हमारी युवा पीढ़ी को हम स्वयं करके ,लिख पढ़ कर बताएं कि सांस्कृतिक विरासत और मुद्दों पर अपनी प्रतिक्रिया या कैसी भाषा में दें ।
    आभासी दुनिया और वास्तविक दुनिया और मीडिया या फिल्म में संपर्कों का मक्कडजाल है और उस में जो सत्ता प्रसिद्धि लोकप्रियता के घालमेल में स्वर्ण मृग बन जाता है तो वह मारीच ही बनता है और इसमें फिल्म ,निर्माता,संवाद लेखक,
    अभिनेता अभिनेत्री सभी मारीच या मारीच सेना में आते हैं।और सेंसर बोर्ड भी रावण की भूमिका के आस पास ही होता है,क्योंकि मारीच को तो स्वर्ण मृग बनाने को वही बाध्य करता है। पैसा शोहरत आदम और हव्वा की बेटी,सौंदर्य और सुरापान में ही आजकल्वसभी कुछ परिवर्तित हो रहा है।
    राजनीति और गुड गवर्नेंस को अब अप्रतिज्ञाधारी भीष्म के अवतार में आना ही होगा ।पुरवाई के संपादक को चौथे खंबे की भूमिका निभाने के लिए बहुत बहुत बधाई हो।
    सूर्य कांत शर्मा

  4. समकालीन समाज में सिनेमा पर्दे पर मजाक बनाने वाले लोगों को यह आलेख अवश्य पढ़ना चाहिए।प्रत्येक बिंदु कोई स्पष्टता से उल्लेखित कर आदरणीय तेजेंद्र शर्मा जी ने आम जन को समझाया है। अति संवेदनशील विषय को भावनाओं के साथ रेखांकित कर आदिपुरुष के लेखक डायरेक्टर प्रोड्यूसर कलाकार और सेंसर बोर्ड सभी को बहुत अच्छी सलाह दी है।
    बहुत-बहुत बढ़िया

  5. जरूरी मुद्दे पर बहुत जरूरी सटीक संपादकीय l यूँ तो कोई भी फिल्म पूरी टीम की होती है पर मनोज मुंतशिर जी ने आम जन का विश्वास जीता था इसलिए आलोचना भी उनकी ही ज्यादा हुई l जैसे कोई अपना दगा दे गया हो l पौराणिक कथाओं को नई दृष्टि देने के नाम पर कई बार किसी स्थापित चरित्र को कम आंक कर दूसरे को स्थापित किया जाता है पर राम और राम कथा जन के मन में बसी है, राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, आराध्य हैं … उन्हें समकाल से जोड़ने की जगह भ्रमकाल उत्पन्न कर दिया l आदिपुरुष जैसी फिल्म ने यह सोचने पर विवश कर दिया है की क्या हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के नाम पर जन भावनाओं को आहत करने का अधिकार देना चाहिए ?
    बेहद सटीक सुलझे हुए सम्पादकीय के लिए बधाई सर

  6. तृप्तिदायक संपादकीय, धन्यवाद
    पौराणिक कथाओं, विशेषकर भारत की में रामायण, महाभारत का सार्वजनिक प्रदर्शन इस आशय से किया जाता है कि वे समाज में उच्च आदर्शों की स्थापना करें। यदि वे वर्तमान में प्रचलित अभद्र अथवा अशिष्ट भाषा स्तर तक उतर आएं तो फिर उनसे आदर्श उपस्थित करने की आशा तो नहीं की जा सकती!
    ‘आदि पुरुष ‘के संदर्भ में मैं इसे सेंसर बोर्ड की मनमानी ही कहूंगी कि ऐसी बेहूदा फिल्म सार्वजनिक प्रदर्शन के योग्य मान ली गई।

  7. सारगर्भित टिप्पणी है ,फिल्म आदिपुरुष पर ।
    सेंसर बोर्ड की लापरवाही तो प्रत्यक्ष दिख रही है
    समीक्षा पढ़कर इतना ही कहा जा सकता है
    ‘ सभी ने एक दूसरे की वाट लगा दी ‘
    ऐतिहासिक घटनाओं के साथ समझौता हो सकता है पर धर्म के साथ नहीं ,सत्य कथन है

    Dr Prabha mishra

  8. संपादक का यह सवाल जायज है कि – “यदि एक विद्यार्थी परीक्षा में किसी प्रश्न का उत्तर पूरी तरह से ग़लत लिख कर आता है और परीक्षक उसे पास कर देता है, तो कुसूर किस का है?”

    इसके दो उत्तर हो सकते हैं एक वैचारिक तौर पर तो। दूसरा वर्तमान शिक्षा प्रणाली के तौर पर। शिक्षा स्नातक यानी बी एड करते समय हमें पढ़ाया गया था कि ऐसा हो तब उस विद्यार्थी को पास कर देना चाहिए न्यूनतम अंक देकर ताकि उसका साल जाया ना जाए। यह तो बात हुई शिक्षा के स्तर पर। वहां तो मैंने भी देखा जब कुछ समय के लिए नवोदय विद्यालय बिहार में पढ़ाया था तब परीक्षा में किसी को अनुतीर्ण करने का प्रावधान नहीं था। किंतु कक्षा आठ के कई छात्र छात्राएं थीं जो दो से लेकर पांच नम्बर के बीच में ही अनुतीर्ण हो रहे थे उन्हें मैंने ग्रेस अंक देकर पास कर दिया किंतु एक लाइब्रेरियन का बेटा इतना अधिक पिछड़ा हुआ था कि उसके सभी जो नम्बर मेरे विषय हिंदी में आए थे वो बाकी अनुतीर्ण होने वाले छात्रों में बांट दिए जाए तो भी वे उत्तीर्ण ना हो पाए।
    खैर यहां मेरा दोष इतना था कि मैंने परीक्षा से चंद रोज पहले ही पढ़ाना शुरू किया था। तो शिक्षा के स्तर पर तो यह बात हुई जो भारत के हर स्कूल में है।

    अब बात आपके सवाल को दूसरे नजरिए से देखने की तो यदि कोई परीक्षार्थी पूरी तरह से उत्तर गलत लिखकर आता है तो उसमें कम से कम भी नब्बे प्रतिशत दोष छात्र का ही है बल्कि तो निन्यांवे प्रतिशत कहिए।

    मुझे लगता है यह प्रश्न सारहीन होने के साथ ही सारगर्भित भी है। बहुत कम सवाल ऐसे होते हैं जो इस तरह के हों जिनमें विवाद ना हो भले लेकिन मत मत्तांतर भिन्न हो सकते हैं और उनका भिन्न होना भी सदा जायज रहेगा।

    संपादक तेजेंद्र शर्मा जी का यह संपादकीय सामायिक है हमेशा की तरह।

  9. सारगर्भित संपादकीय। वाकई टपोरी भाषा के साथ टपोरी तरीके से फिल्माई गई है यह फिल्म। जबकि रामानंद सागर जी की फिल्म देश के विभिन्न हिस्सों में लिखी गई विभिन्न रामायणों पर गहन शोध के बाद फिल्माई गई थी। उसमें जनभावनाओं का भी बहुत ध्यान रखा गया था। ऐतिहासिक और धार्मिक विषयों पर फिल्मांकन गहन शोध की मांग करता है। ं

    • आपने एकदम सही कहा है। ऐतिहासिक और धार्मिक विषयों पर फिल्मांकन गहन शोध की मांग करता है।

  10. बहुत अच्छी सम्पादकीय है , फिल्म का बहुत सही विश्लेषण और बहुत जरूरी सवाल उठाए हैं इस सम्पादकीय में।
    बहुत-बहुत बधाई आपको!

  11. बहुत संतुलित और बढ़िया संपादकीय। इसमें बड़े बुजुर्गो की उस मानसिकता भी स्पष्ट होती है जिसमें बिगड़े लाड़ले शहजादों को पहले प्रोत्साहित किया जाता है लेकिन जब वह लाड़ला हाथ से निकल जाता है तो अपने हाथ मलते रह जाते हैं। शिक्षा में अनुशासन/ दण्ड होना गलत नहीं लेकिन जब शिक्षक ही अपने कर्तव्य से चूक जाए तो क्या किया जाए। लेखक द्वारा जनता की भाषा का तर्क निराधार मूर्खतापूर्ण है क्योंकि भाषा पात्रानुकूल होती है। ईश्वरीय पात्रों से छेड़छाड़ माफ़ नहीं की जाती।पर अब शब्द बाण की तरह छूट चुकें हैं Edit नहीं हो सकते।सच में सर हम ताउम्र सिर्फ बोलना सीख रहे होतें हैं।

  12. “यानि अस्माकं सुचरितानि तानि त्वया उपास्यानि।”
    (जो हमारे अच्छे आचरण हैं, उन्हीं की तुम्हें उपसना करनी चाहिए अर्थात् वे ही व्यवहार में लाये जाने चाहिए।),

    “उत्तम विद्या लीजिये,जदपि नीच पाई होय।
    परो अपावन ठौर में, कंचन तजय न कोय।”

    इन्हीं आप्त वाक्यों के आधार पर मैं इस फिल्म की “राम-कथा” को देखती हूँ। मेरे विचार में अच्छा-बुरा दृश्य नहीं होता, हमारी दृष्टि उसे अच्छा या बुरा बनती है। राम का जीवन उनकी कथा हिन्दुओं के लिए वंदनीय है। कुछ कपड़े या संवाद राम कथा को दूषित नहीं करते।
    मेरा दृष्टिकोण अल्पमत में नहीं ‘न्यूनतम मत’ है। लेकिन मैंने साध्य पर ध्यान रखा, साधनों पर नहीं। अतः मैंने इस फ़िल्म की आलोचना नहीं की। यद्यपि अपने नज़रिए के लिए मेरी कटुतम आलोचना हुई।
    संस्कृत में लिखे महाभारत के ‘रामोपाख्यान’ का विस्तार करके, संस्कृत में रामायण लिखी गयी। समान्य जन तक पहुँचाने के लिए तुलसी दास जी ने लोक भाषा में मानस लिखी। परिवर्तन तुलसी दास जी ने भी किये। भारत की अन्यान्य भाषाओं में अनेकों राम कथा लिखी गयीं। परिवर्तन सभी में किये गये।
    आज की पीढ़ी संस्कृत या अवधी में लिखी पुस्तकें पढ़ रही है? आज हिन्दी हिंग्लिश हो गयी है और युवा पीढ़ी की भाषा लगभग वैसी ही है, जैसी इस फ़िल्म में है। ऐसे में मुझे यह एक प्रयोग या प्रयास लगता है, युवा पीढ़ी को राम से परिचित कराने का। यह बात अलग है कि समाज के एक बड़े हिस्से को यह अपमान जनक लगा। उनको अधिकार है अपना मत रखने का।
    यहाँ मैं इस बात से सहमत हूँ, “जाकी रही भावना जैसी”। मुझे यहाँ भी राम दिखे, राम कथा हर हाल में आदरणीय है।
    सम्पादक जी ने सभी पक्षों को संतुलित रूप से प्रस्तुत किया। तटस्थता से लिखना आपका चातुर्य है। उसके लिए आपकी दृष्टि और लेखनी प्रशंसनीय है। आभार

    • लोकतंत्र की विशेषता ही यह है शैली जी कि आप किसी भी विषय पर अलग राय रख सकती हैं। यह भारत का टीवी चैनल नहीं पुरवाई पत्रिका है… यहां आपको अपना मत रखने की स्वतंत्रता है। संपादक की तारीफ़ के लिये हार्दिक आभार।

  13. एकदम सटीक संपादकीय लेकिन ये लोग दया पात्र तो कतई नहीं हैं क्योंकि ये सब जानबूझ कर किया गया कृत्य है और निश्चित रूप से प्रसून जोशी जी भी दोषी हैं

    • परिवर्तित समाज में नवीनता अवश्यंभावी है और खास तौर पर पर फिल्मो़ का निर्माण दर्शकों की रुचि पर भी आधारित होता है परंतु पैसा कमाना ही एकमात्र उद्देश्य नहीं होना चाहिए।
      फिल्में समाज का हित- अहित भी कर सकतीं हैं
      इसलिए श्रेष्ठ आचरण को श्रेष्ठ रूप में ही प्रस्तुत करना एक महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व है।
      संपादकीय का उद्देश्य संस्कृति व संस्कारों की रक्षा करना है।

  14. Your Editorial of today discusses the debacle that the movie Adipurush has proved to be.
    What with its coarse n badly written dialogue,ridiculous costumes n makeup of the Ramayan figures,incompetent photography and irresponsible presentation of that age.
    Most objective and mature discussion indeed.
    Warm regards
    Deepak Sharma

  15. राम एक आदर्श हैं। राम का मर्यादित एव उत्तम आचरण है। राजा से लेकर प्रजा सभी के लिए व्यावहारिक। समाज को सीख देने वाला उनका आचरण । उनके चरित्र से हर व्यक्ति कुछ न कुछ सीखता है। यही बात रामायण के हर पात्रों में देखी जा सकती है। नारी को शिक्षा सीता के चरित्र से, भाई को शिक्षा लक्ष्मण और भरत से, राजा को राम से, भक्त को हनुमानजी से , शत्रु को रावण से, मित्र को विभीषण से मिलती है। गोस्वामी जी योगदान रामचरित सर्व सुलभ कर देने का है। जिससे आसानी से सभी उस सीख को ग्रहण कर सकें। रामायण के सभी किरदार विशिष्ट है। उन पर हमारी आस्था और विश्वास है। रामायण सुनने कहने या रामलीला करने का उद्देश्य समाज को सीख देना है। कैसा समाज हो, कैसे लोगों को रहना चाहिए यानी आचरण और व्यवहार की शुद्धता के लिए इसका उपयोग होता है। आदिपुरुष से हमारा समाज क्या सीखेगा? आने वाली पीढी पर राम की कौन सी छवि अंकित होगी? यह हम क्या परोस रहे हैं? संपादकीय में आदरणीय शर्मा जी ने समाज की प्रतिक्रिया को बहुत ही
    रोचक ढंग से प्रस्तुत किया।

  16. आदिपुरुष फिल्म पर बहुत ही सटीक टिप्पणी . सेंसर बोर्ड को कठघरे में खड़ा करना चाहिए .

  17. आज के आपके संपादकीय में आदिपुरुष फ़िल्म के निर्माता, संवाद लेखक तथा सेंसर बोर्ड पर टिप्पणी सटीक और खरी -खरी है।

    रामायण सीरियल में सीता का रोल निभाने वाली दीपिका चिखलिया की टिप्पणी कि रामायण मनोरंजन का साधन नहीं है। यह बात पूर्णतया सत्य है। मुझे यहाँ रामानंद सागर के पुत्र प्रेमसागर की टिप्पणी भी याद आ रही है उन्होंने कहाँ कि उनके पिताजी रामानंद सागर ने भी ‘रामायण’ बनाते वक्त क्रिएटिव फ्रीडम ली थी, पर उन्होंने भगवान और सभी किरदारों को समझा था। उन्होंने कई ग्रंथों और रामायण के अन्य वर्जन को पढ़ा था, पर कभी भी तथ्यों से छेड़छाड़ नहीं की। प्रेम सागर ने कहा था कि रावण जैसे परम ज्ञानी को खलनायक के रूप में दिखाना गलत है।

    सच तो यह है कि भगवान राम और भगवान श्री कृष्ण हमारे आराध्य देव हैं। उनका जो रुप सदियों से मनमस्तिष्क में बसा है, उससे छेड़-छाड़ किसी स्वस्थ मानसिकता का व्यक्ति पसंद नहीं करेगा। मैं समझ नहीं पाती कि ऐसा सिर्फ हमारे आराध्य देवों और देवियों के साथ ही क्यों होता है। उन पर फ़िल्म या उनका फोटो बनाते हुए हम स्वतंत्रता क्यों लेना चाहते हैं। मनोज मुन्तिशिर का यह कहना कि आज के बच्चे राम सीता के बारे में नहीं जानते तो क्या वह उन्हें उनके ऐसे ही रुप से परिचित करवाएंगे। बल और बुद्धि के प्रतीक हनुमान जी के बारे में उनकी टिप्पणी और शर्मनाक है। उन्हें अपने संवाद लिखने से पूर्व कबीर दास जी के इन शब्दों पर भी ध्यान देना चाहिए था…

    शब्द सम्हारे बोलिए, शब्द के हाथ न पाँव। एक शब्द औषधि करे, एक शब्द करे घाव।

    • सुधा जी सारगर्भित एवं सटीक टिप्पणणी के लिये हार्दिक आभार। आपने बहुत से पहलुओं को छुआ है।

  18. आपने जो आदिपुरुष की समीक्षा की है, सौ फीसदी सटीक है और ऐसे लोगों की कृति पर जनमानस ही प्रतिबंध लगाने में महती भूमिका निभानी होगी। प्रसून जोशी और पूरा सेंसर बोर्ड और निर्माता एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं।

  19. बहुत ही सटीक सम्पादकीय।
    देश की पौराणिक कथाओं का इस तरह मजाक उड़ाने का किसी को कोई अधिकार नहीं। यही तो हमारे देश की पूंजी है। इन कथाओं के माध्यम से देश में समाज में आदर्श स्थापित करना है। ना की इस तरह से कथा से छेड़_छाड़ हो। फिल्म तो मैंने नहीं देखी परंतु उसके संवाद,और मनोज शुक्ला का कथन सर्वदा अनुचित हैं। उन्हें बताना पड़ेगा अब हनुमान जी के बारे में इन्होंने बोला किस आधार पर, कुछ भी बोलेंगे और सब सुनेंगे, मूर्खता की भी सीमा होती हैं।

  20. संपादकीय में उठाये गए प्रश्न ज्वलंत और सटीक हैं.आज कल एक हवा चली है.अपने इतिहास को खंगालने की.बंद मुद्दो को उछालने की.परंतु अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर किसी की आस्था पर चोट पहुंचाना देखके आम आदमी को स्वीकार नहीं होगा..राम हमारी संस्कृति में रचे बसे हैं.रामकथा की प्रामाणिकता को सिद्ध करने की कोई आवश्यकता नहीं है…जन मानस को यह सीखना होगा कि क्या ग्रहण करें क्या नहीं.आदरणीय तेजेंद्र भाई ने जिस कहावत का उल्लेख किया है .मै. शतप्रतिशत सहमत हूं..ओम राउत और मनोज शुक्ल जी की लेखनी .सृजन और कला को चुनौती देने का साहस सेंसर बोर्ड ने भी नहीं किया..जो कि गलत है…यह संपादकीय समूचे प्रसंग को एक नया दृष्टिकोण प्रदान करता है.हार्दिक बधाई और शुभ कामनाए..लेखनी की प्रखरता यशस्वी हो…पद्मा मिश्रा.जमशेदपुर

  21. फिल्म का ट्रेलर देखते ही मैं बोली कि ये तो कार्टून फ़िल्म लग रही है । आदिपुरुष को आगामी समय पुरुष बना दिया है। जिस तरह की भाषा का प्रयोग किया गया है वैसी भाषा का प्रयोग केवल एक ऐसा वर्ग ही करता है जिसको सही शिक्षा दीक्षा नहीं मिली है । सबसे अधिक इज्ज़त की धज्जियां मनोज मुंतशिर शुक्ला की ही उड़ी । हमेशा की तरह तेजेंद्र सर की बेहतरीन संपादकी ।

  22. फ़िल्म केवल मनोरंजन का साधन नहीं, ज्ञान वर्धन एवं शिक्षा का एक अहम माध्यम भी है, जिसका प्रभाव ख़ासकर युवापीढ़ी पर पड़ता है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज अधिकतर फिल्में पैसा कमाने का ज़रिया भर बनकर रह गया है, जहां न नैतिक जिम्मेदारी का बोध है, न ही सामाजिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक मूल्यों के लिए जगह। मेरा सवाल है कि क्या हिंदू धर्म और देवी देवताओं को किसी साज़िश के तहत टारगेट किया जा रहा है ?

  23. ह्यूमर डालने के चक्कर में शुक्ला जी ने कुल्हाड़ी पे लात मार दी। बेचारे का पोलिटिकल करिअर शुरू होने से पहले ही न ख़त्म हो जाए।

  24. लोगो की दोगली उदारता का उदाहरण देखिए। कहते है कि

    जाकि रही भावना जैसी
    प्रभु मूरत देखी तिन तैसी!!

    आदिपुरुष मे जो दिखाया है उसे स्वीकार कर लो उनके फिल्मांकन, कपड़ो, संवाद आदि पर ध्यान मत दो क्योकि उन्होने भगवान को इसी प्रकार अनुभव किया है।

    मतलब हद हो गई, कोई गलत तरीके से रामायण के पात्रो को प्रस्तुत कर रहा है और हम मान ले, बस श्रृद्धा से देखे,

    कोई आपके नाम का गलत उच्चारण कर दे या आपके व्यक्तित्व पर ऐसी टिप्पणी कर दे तो आप बौखला जाएगे/ जाएगी।
    लेकिन रामायण के पात्र को केवल एक पात्र है बस तोड़ मरोड़कर प्रस्तुत करते रहो
    यदि कोई आलोचना करे तो रामचरित मानस की पंक्तिया उठाकर उसके मुंह पर चेप दो।

    वाहह रे!!! इंसान!!
    तुझे देखकर रोता होगा भगवान!!

    खैर, बात करते है संपादकीय लेख की,
    हमेश की भाँति तेजेन्द्र सर ने वर्तमान के घटनाक्रम से प्रेरित हो कर संपादकीय लिखा है। ।
    समाज स्थापित साहित्यिककारो के विचार जानना चाहता है कि वह किस विषय पर क्या विचार रखते है ।
    पुरवाई के संपादकीय हमेशा समाज को एक उत्तर देते व विचारो को उकेरते हुए नजर आते है।
    संपादकीय सदैव प्रेरित करते है।

  25. बहुत ही आवश्यक और संतुलित टिप्पणी। भाव-प्रधान देश में भावनाओं से खेलना मँहगा पड़ गया है।

  26. तेजेन्द्र जी
    सदा की भाँति आपका समसामयिक संपादकीय! जब से पुरवाई का संपादकीय पढ़ रही हूँ, आपके विषयों के चयन बहुत
    सटीक लगे हैं। इसके लिए आपका अभिनंदन
    आजकल आधुनिकता के नाम पर बहुत सी ऐसी चीज़ों पर प्रश्न उठाए जाते हैं जो सीमा लाँघते हैं और यहीं गड़बड़ी शुरू हो जाती है।बहुत से वादों के प्रभाव में पौराणिक कथाओं व पात्रों के लिए अनेक प्रकार के प्रश्न परोसे जा रहे हैं, उनमें चाहे भगवत गीता के पात्र हों अथवा रामायण के या फिर बुद्ध हों।
    मुझे लगता है कि किसी भी बात को, चरित्र को समझने के लिए नए सिरे अथवा विचारों से सोचने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए किंतु क्या सीमाओं को सुनिश्चित नहीं किया जाना चाहिए?
    अंटशंट लिखने अथवा हवा को मुट्ठी में कैद कर लेने को आधुनिक परिवेश का जामा तो नहीं पहनाया जा सकता। जो मस्तिष्क वर्षों से आस्था से जुड़े हुए हैं वे आज कुछ सीमा तक तो प्रश्नों को बर्दाश्त कर सकते हैं किंतु इस प्रकार की भाषा को कैसे पचा सकते हैं?
    एक दृश्य कभी भी सामने आ जाता है। मुजफ्फरनगर जैसे स्थान पर हमें किशोरावस्था में रामलीला देखने नहीं जाने दिया जाता था। एक दो बार गए भी तो घर की बुजुर्ग हाऊस हैल्प बिछाने के लिए चादर साथ ले गईं, वह आगे बिछाई गई वहाँ हमें बैठाकर थोड़ी देर तक देखने की आज्ञा मिलती।माँ लैक्चरर थीं, उन्हें न समय था न ही रुचि।
    एक दिन सीता जी को तलाशने का शोर सुना। उनका कोई दृश्य था किंतु उनका अता पता नहीं था। कोई बंदा उन्हें तलाशते हुए पीछे की ओर गया जहाँ सीता जी बीड़ी पीकर थकान दूर कर रही थीं।
    इस बात पर शोर मचा और सीता जी को बदल दिया गया। बहुत छोटे थे हम, बात उस समय समझ नहीं आई लेकिन लोगों के तेवर देखकर ख़्याल आया। माँ ने आस्था वाली बात समझाई।
    समय चाहे कितना भी आधुनिक क्यों न हो जाए आस्था भारतीय मूल में होने के कारण सीमाओं का उल्लंघन पीड़ित तो करेगा ही। वह भी ऐसे लोगों पर जिन पर लोगों को गर्व रहा है।
    अहमदाबाद की आर्ट गैलरी में भी एक बार हुसैन साहब के कारण तूफ़ान देखा गया था।
    आस्था से जुड़े लोगों की मानसिकता पर कष्टप्रद प्रभाव पड़ना स्वाभाविक तो है ही।

    • प्रणव जी आपने अपने बचपन की घटना याद करवा कर पूरे मामले को नई दृष्टि से देखा है। बहुत आभार।

  27. अर्थरथ के सारथी नवाचार का प्रयोग वर्तमान समय की आवश्यकता है, किंतु प्रत्येक क्षेत्र में विशेषकर धर्म के संदर्भ में इसका प्रयोग नितांत खेदपूर्ण व अक्षम्य है,क्योंकि किसी भी राष्ट्र की सुसंस्कृत धार्मिक भावनाएं, किसी भी माध्यम से मनोरंजन की वस्तु नहीं हो सकतीं। धर्म किसी भी समाज के नैतिक मूल्यों कर्तव्य, सदाचरण, शुचिता,आत्मसंयम,निष्ठा, धैर्य, मर्यादा और अनुशासन आदि विभिन्न सद्गुणों का जीवंत व आदर्श मानक है और रामायण तो सदैव से ही इसका शोभायमान प्रतिरूप है, रामकथा के प्रत्येक मर्यादित पात्र व उनके आचरण संस्कार सदैव से ही अनुकरणीय रहे हैं। धार्मिक और पौराणिक युग के अनुरूप संवाद भाषा,वातावरण,वेशभूषा का वरण प्रत्येक कथा अथवा पटकथा की अनिवार्यता है।सदियों से जनमानस के हृदय में विराजित आस्था और श्रद्धा के इस केंद्र के मंचन में अथवा प्रस्तुतीकरण में यदा-कदा कुछ दृश्य विनोदपूर्ण हो सकते हैं,किंतु रचनात्मक प्रयोगशीलता का आश्रय लेकर संस्कृति के मूलाधार महाकाव्य की मूल कथा से हस्तक्षेप कर अनुचित, अशोभनीय दृश्य व अनुपयुक्त संवादों का चयन व प्रयोग सर्वथा निंदनीय है,सो जनक्षोभ अपेक्षित है। वर्तमान संदर्भ में कलिकाल की इस प्रवृत्ति को भांपकर श्री तुलसीदास जी ने सहज ही वर्णित किया था..
    “मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा। पंडित सोइ जो गाल बजावा॥”
    आदरणीय तेजेन्द्र जी आपके प्रत्येक सम्पादकीय सदा ही सत्य व मूल्यों का रक्षण करते रहें हैं और यह संपादकीय भी इस बात का ही ज्वलंत प्रमाण है आपका लेखन तुलसीदास के समान ही लोकमंगल का हितैषी है, जिसके माध्यम से आप समाज को सत्मार्ग का दिशा निर्देशन करते आ रहें हैं।
    आपको साधुवाद और शुभकामनाएं
    डॉ.ऋतु माथुर
    प्रयागराज।

    • ऋतु आपकी गंभीर, सटीक और सारगर्भित टिप्पणी हमारे लिये महत्वपूर्ण है।

  28. बहुत ही बढ़िया और टू द पॉइंट सम्पादकिय तेजेन्द्र जी। मनोज मुंतशिर के कुछ इन्ट्रव्यू सुनकर तो ऐसा लगा कि यह कोई और ही बोल रहा है। अपने आपको संस्कारी कहने वाले मुंतशिर जब यह कहते हैं कि माताश्री या पिताश्री शव्दों का इस्तेमाल इस लिये नही किया गया क्योंकि यह शव्द नई पीढ़ी के बच्चों को अच्छे नहीं लगेंगे तब यह महाश्य भूल रहे हैं कि रामानन्द सागर की रामायण देखकर बच्चों ने इन दोनों शव्दों का प्रयोग शुरु कर दिया था। यह कहना कि कपड़ा तेरे बाप का, तेल तेरे बाप का……. डायलॉग इनका लिखा हुआ नहीं है सरासर झूट लगता है। इस वाहियात और अशलील वाक्य का होना इनकइ हामी का प्रमाण है। Modernization के नाम पर जो वालमिकी रामायण की धज्जियाँ इन महाश्य ने अपनी कलम से उड़ाई हैं वो बहुत लज्जा की बात है। जिस समाज ने मनोज मुंतशिर को बहुत मान और सम्मान दिया, आज उसी समाज को बदले में क्या मिला आपके सामने है।
    इस घटना के सब से बड़े खलनायक तो सैंसर बोर्ड in general तथा अध्यक्ष प्रसून जोशी in particular हैं।

    • भाई विजय जी आप का हमारे संपादकीय के लिये स्नेह देखकर हौसला बढ़ता है। अपना स्नेह बनाए रखें।

  29. विषय सामयिक भी है और सम्वेदनशील भी। ये एक ओर फ़िल्मी मसालों से जुड़ा है, दूसरी ओर धार्मिक आस्था से। इस फ़िल्म का नाम होना चाहिए था “आस्था से खिलवाड़”। मैंने अभी तक ये फ़िल्म देखी नहीं है, और न अब देखना ही चाहती हूँ। इस फ़िल्म की चर्चाएँ सुन सुन कर ही मानो बीपी हाई होने लगता है। इस फ़िल्म को तुरन्त बैन कर देना चाहिए। इसके सम्वाद की प्रस्तुति में जो फूहड़पन है, उसका प्रभाव हमारी आने वाली पीढ़ी पर क्या पड़ेगा ?
    आदरणीय तेजेन्द्र जी ! आपने आज के ज़रूरी विषय को सम्पादकीय के लिए चुना और उस पर अपने सारगर्भित विचार प्रस्तुत किये, एतदर्थ आपको बारम्बार साधुवाद।

  30. संपादकीय के लिए सादर साधुवाद, और जिनके लिए ” जाकि रही भावना जैसी प्रभु सूरत देखी तिन तैसी ” के हिसाब से कोई बुराई नहीं दिखाई दी , उन्हें अपने आराध्य इसी रूप में अच्छे लगेंगे क्या?
    और मनोज शुक्ल जी शुक्ल हैं ही कहाँ, मुन्तजिर साहब हो गए हैं अतः उनसे अब कोई उम्मीद रखना भी व्यर्थ है।
    जब हम छोटे थे मतलब नवीं दसवीं कक्षा में, तब हमारे ही क्लास मेट राम और सीता बनते थे, प्रैक्टिस के समय से ही सात्विक भोजन के साथ भाषा पर भी ध्यान रखना होता था क्योंकि वो प्रभु राम और सीता को स्टेज पर प्रस्तुत कर रहे होते थे। और जो अंकल रावण बनते थे नियमित रूप से हनुमान चालीसा पढ़ते तथापि स्टेज पर आने से पूर्व और तत्काल बाद में राम चरण वंदना करते थे कि मैं दुष्ट रूप में ईश्वर को गलत बोलता हूं और पूर्ण सात्विक भोज्य पदार्थ ग्रहण करते थे। बहुत नजदीक से देखा उन सबको और अब आदिपुरुष को सुना,,, ये लोग माफी के भी लायक नहीं हैं। सादर
    यद्यपि प्रतिक्रिया बहुत देर से दे रहीं हूँ , कुछ लोगों की हमारे धर्म के प्रति विचारधारा से आहत हूँ । सादर

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