अगर वर्तमान ग़ज़ल और ग़ज़लकारों की बात की जाए तो वो आलोक श्रीवास्तव के जिक्र के बिना पूरी नहीं हो सकती। कई प्रमुख मीडिया संस्थानों में बड़े पदों पर काम कर चुके आलोक की पहचान पत्रकार से ज्यादा ग़ज़लकार की है। हालांकि वे दोनों कामों को एकदूसरे से अलग नहीं मानते। अबतक उनकी दो किताबें एक गज़ल संग्रह ‘आमीन’ और एक कहानी-संग्रह ‘आफरीन’ प्रकाशित हुई हैं। जगजीत सिंह, पंकज उदास जैसे मशहूर ग़ज़ल गायक उनकी ग़ज़लों को आवाज दे चुके हैंहिंदी ग़ज़ल के लिए उन्हें कथा यूके के सम्मान सहित और भी कई सम्मान मिल चुके हैं। साक्षात्कार श्रृंखला की आठवीं कड़ी में आलोक श्रीवास्तव से उनके निजी जीवन और ग़ज़ल की दशा-दिशा को लेकर युवा लेखक पीयूष द्विवेदी ने बातचीत की है:

सवाल – अपनी अबतक की जीवन-यात्रा के विषय में बताइये।
आलोक – हम सब यात्री ही हैं, यात्रा में हैं। जो अब तक हुई उसमें मप्र का छोटा सा शहर शाजापुर याद आता है, जहाँ मेरा जन्म हुआ लेकिन उसके कुछ ही साल बाद परिवार विदिशा आ गया, बचपन वहीं बीता तो ख़ुद को विदिशा का ही मानता हूँ। लेखन और पत्रकारिता साथ-साथ चले, आज भी चल रहे हैं। बचपन में माँ की इच्छा और प्रोत्साहन से लेखक बना और अब परिवार मोटिवेट करता है। मैं मूलत: लेखक ही हूँ, यह एहसास बचपन से ही जाग गया था, सो बस इसी ने सोने नहीं दिया।
सवाल – मीडिया के प्रोफेशन में होते हुए ग़ज़लगोई में मन कैसे लग गया?
आलोक – लेखन और पत्रकारिता एक गाड़ी के दो पहिए हैं। सरोकार के बिना कोई लेखक नहीं बन सकता और इसी के बिना पत्रकारिता नहीं हो सकती। मेरे लिए दोनों एक ही समान हैं।
सवाल – पिछले दिनों ट्विटर पर ‘वंदे मातरम्’ को लेकर आपने एक पुराने अखबार की कटिंग साझा की थी, जिसपर वहाँ काफी बहस देखने को मिली। इस पूरे प्रकरण व मुस्लिमों के ‘वंदे मातरम्’ विरोध पर कुछ कहना चाहेंगे?
आलोक – मेरे लिए राष्ट्र सर्वोपरि है। उसके प्रतीकों और उसके यशगान में उठे संबोधन मेरे समक्ष धर्म से अधिक सम्मानीय हैं। बस इतना ही कहूँगा।

सवाल – चूंकि मूलतः ग़ज़ल उर्दू काव्य की विधा है, लेकिन अब हिंदी कविता का भी अभिन्न अंग बन चुकी है। उर्दू से हिंदी तक के ग़ज़ल के इस सफ़र को आप कैसे देखते हैं ? इस दौरान ग़ज़ल किन अच्छे-बुरे बदलावों से गुजरी है ?
आलोक – आपके सवाल पर शमशेर का शेर याद आ रहा है। जो मेरी अपनी बात भी है-
वो अपनों की बातें, वो अपनों की ख़ुशबू, 
हमारी ही हिंदी, हमारी ही उर्दू।
दरअसल, मेरे नज़दीक ग़ज़ल का लहजा न उर्दू है और न हिंदी है। वो हिंदवी है। हिंदुस्तानी है। ग़ज़ल इसी ज़बान में लोकप्रिय हुई है। रोज़मर्रा की ज़िंदगी में सबसे ज़्यादा कोट होने वाले शायर ग़ालिब के भी वही शेर आपको याद होंगे जिनकी ज़ुबान बहुत साफ़ और सादा है। ग़ज़ल के इसी लहजे ने अपनी पूरी शिद्दत के साथ कामयाबी का सफ़र तय किया है। यही वजह है कि इसे ‘आउट डेटेड’ क़रार देने वाले भी, रात के सुरूर में, तन्हाई के आलम में और फिर किसी महफ़िल में ग़ज़ल की ख़ुशबू से दूर नहीं रह पाते। किताबों, लाइब्रेरियों और अदबी गुफ़्तगू से लेकर नए ज़माने के इंटरनेट और सोशल-मीडिया तक, ज़िक्र का सबसे बड़ा ज़रिया ग़ज़ल ही होती है।
सवाल – वर्तमान परिदृश्य में ग़ज़ल की क्या स्थिति है?
आलोक – एक लफ़्ज़ में : बेहतरीन।
सवाल – आजकल एक ट्रेंड ये चला है कि बहर-रदीफ़-कवाफी आदि की बंदिशों  को नज़रंदाज करते हुए केवल तुकबंदी कर या यूँ ही दो पंक्तियाँ लिख उसे ग़ज़ल, शेर कह दिया जा रहा है, इस प्रवृत्ति को आप कैसे देखते हैं ?
आलोक – आप जिस ट्रेंड का ज़िक्र कर रहे हैं, मैं उसका न तो हिमायती हूँ और न प्रोमोटर। मेरा मानना है कि जिस तरह साधना और सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं होता ठीक उसी तरह ग़ज़ल में भी कोई शॉर्टकट नहीं होता। मैं इस तरह के किसी प्रयोग को कुछ भी मान सकता हूँ, ग़ज़ल नहीं।
सवाल – ग़ज़ल की समकालीन चुनौतियां क्या हैं ?
आलोक – जो नए ग़ज़लकार या शायर आ रहे हैं उन्हें अपनी सोच और कहन को विस्तार देना होगा। ग़ज़ल सिर्फ़ मुशायरे में दाद और पैसा पाने का ज़रिया भर बन कर न रह जाए। वो उन संवेदनाओं और सरोकारों से भी जुड़े जिससे आम आदमी का गहरा रिश्ता है।
सवाल – क्या हिंदी में ग़ज़ल कहने पर भाषाई स्तर पर किन्ही चुनौतियों का सामना करना पड़ता हैं ?
आलोक – जैसा कि मैंने शुरू में कहा- मुझे ऐसा शायद इसलिए नहीं लगता कि मेरा डिक्शन हिंदी या उर्दू का नहीं, हिंदवी और हिंदुस्तानी है। लेकिन जो लोग इस फ़र्क़ को मानते हैं, हो सकता है उनके सामने चुनौतियाँ आती हों। चलते चलते अपनी ओर से और अपने शायर दोस्तों की ओर से अपना ही एक शेर याद आ रहा है :
मेरा फ़न समझ सकेगा, ज़रा देर से ज़माना, 
मैं ग़ज़ल का हूँ मुसाफ़िर, मेरी बात शायराना।
सवाल – वर्तमान में आपके प्रिय गज़लकार और उनके लिए कोई संदेश?
आलोक – अच्छी कविता का बचपन से दीवाना रहा हूँ। मयारी ग़ज़लों का मुरीद रहा हूँ चाहे वो जिसकी हों, संदेश देने की उम्र में संदेश देने का भी काम करूँगा, फ़िलहाल तो सीखने की उम्र है। सीख रहा हूँ।
उत्तर प्रदेश के देवरिया जिला स्थित ग्राम सजांव में जन्मे पीयूष कुमार दुबे हिंदी के युवा लेखक एवं समीक्षक हैं। दैनिक जागरण, जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला, नवभारत टाइम्स, पाञ्चजन्य, योजना, नया ज्ञानोदय आदि देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में समसामयिक व साहित्यिक विषयों पर इनके पांच सौ से अधिक आलेख और पचास से अधिक पुस्तक समीक्षाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। पुरवाई ई-पत्रिका से संपादक मंडल सदस्य के रूप में जुड़े हुए हैं। सम्मान : हिंदी की अग्रणी वेबसाइट प्रवक्ता डॉट कॉम द्वारा 'अटल पत्रकारिता सम्मान' तथा भारतीय राष्ट्रीय साहित्य उत्थान समिति द्वारा श्रेष्ठ लेखन के लिए 'शंखनाद सम्मान' से सम्मानित। संप्रति - शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय। ईमेल एवं मोबाइल - sardarpiyush24@gmail.com एवं 8750960603

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