“मार्क्सवाद का अर्धसत्य”, अनंत विजय, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2019,सजिल्द, पृष्ठ संख्या-295,मूल्य-695 रुपये
जीवन एवं जगत के अंतिम सत्य की खोज एक शाश्वत अनवरत यात्रा है एवं मानव की यह खोजयात्रा सदियों से चल रही है। इस यात्रा की शाब्दिक एवं बौद्धिक अभिव्यक्ति साहित्य और दर्शन के रूप में दृष्टिगोचर होती है । प्रत्येक युग की अपनी एक विशिष्ट चेतना हुआ करती है।मानवीय संस्कृति और सभ्यता पुनरपुनः उस मोड़ पर आ खड़े होते हैं जब सामूहिक चेतना में युगांतरकारी परिवर्तन होते हैं तथा यह परिवर्तनकामी सामूहिक चेतना उस दौर के राजनैतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य ,साहित्य, विमर्श एवं आलोचना में परिलक्षित होती है।
आज समकालीन हिंदी साहित्य भी कुछ ऐसे ही युगांतरकारी कालखंड का साक्षी बन रहा है। पिछले कई दशकों से हिंदी साहित्य एवं विमर्श ‘मनुस्मृति- दहन ‘एवं ‘मार्क्स- महिमामंडन’ पर ‘फिक्सेटिड ‘हो कर मानो जड़वत हो चुका था । अब कुछ अलग स्वर सुनाई देने लगे हैं,  नए प्रश्न पूछे जा रहे हैं,नए मुद्दे उठाए जा रहे हैं तथा हिंदी का रचनाकार, विमर्शकार,आलोचक स्थापित विमर्श एवं मापदंडों से कुछ अलग कहने का किंचित साहस कर रहा है।
हाल ही में प्रकाशित आशीष कौल का काश्मीरी हिन्दू-केंद्रित उपन्यास “रिफ्यूजी कैम्प “,राजीव रंजन प्रसाद का नक्सलवाद समस्या पर लकीर से हट कर लिखा गया उपन्यास “लाल अंधेरा “एवं  बौद्धिक विमर्श में अनंत विजय का “मार्क्सवाद का अर्धसत्य”- ये कुछ किताबें इस नए विमर्श की प्रतिनिधि रचनाएं बनकर उभरती हैं।अनंत विजय की यह किताब इस मायने में और अधिक विशिष्ट हो जाती है कि हिंदी विमर्श में मुख्यधारा  के विपरीत जाने का साहस अभी बहुत कम विचारक ही दिखा पाए हैं ।
इस विस्तृत फलक वाली पुस्तक में ‘प्रेक्टिसड मार्क्सवाद’ अर्थात् मार्क्सवाद के ‘बौद्धिक अनुयायियों और  भक्तों के  क्रियाकलापों’ का विस्तृत आकलन व मूल्यांकन किया गया है ।लेखक को मार्क्सवाद से उतनी आपत्ति नहीं जितनी मार्क्सवादियों के आचरण -व्यवहार से  है जहां उसे दोगलापन, पाखंड, निकृष्टता,स्वार्थपरता , इस्लाम-समर्थक ‘सलेक्टिव सेकुलरिज़्म’ ,भ्रष्टाचार  ,चुप्पी के षड्यंत्र ,वामपंथी ‘फासीवाद’ और बौद्धिक अस्पृश्यता का बोलबाला नजर आता है ।
अनंत विजय ने राजनैतिक ,सामाजिक,बौद्धिक एवं साहित्यिक क्षेत्रों में मार्क्सवादियों द्वारा पूर्ण , समग्र सत्य के स्थान पर केवल ‘अर्धसत्य’ अथवा  ‘विकृत सत्य’ को प्रस्तुत कर जनचेतना को भ्रमित करने के खेल का बेबाक पर्दाफाश किया है।लेखक का अफ़सोस यह है कि  मार्क्सवाद के वर्चस्व के चलते  हिंदी का साहित्यकार मुख्यतया एक राजनीतिक कार्यकर्ता बन कर रह गया है एवं साहित्य एक विचारधाराप्रतिबद्ध दलगत पॉलिटिक्स का अखाड़ा जहां लेखकसंगठन ताल ठोक कर हुंकार भरते हैं:”सिर्फ लिखने से काम नहीं चलेगा।
सड़क पर उतरना होगा”!रामचन्द्र शुक्ल के विचार “साहित्य को राजनीति से ऊपर रहना चाहिए ”  से सहमत यह लेखक समकालीन साहित्यकार को आगाह करते हुए उसे चेतावनी देता है:”कलम को अगर  हम किसी खास विचारधारा का गुलाम बनाएंगे या फिर कलम की धार किसी खास समुदाय के समर्थन में उठेगी तो समय के साथ उस कलम पर से पाठकों का विश्वास उठता चला जायेगा।”
पुस्तक के नौ अध्याय  विविध प्रसंगों ,उदाहरणों एवं उद्धरणों द्वारा मार्क्सवादियों के ‘बौद्धिक छलात्कार’  एवं ‘प्रतिरोध के पाखंड’  को पाठकों के समक्ष बेपर्दा करते हैं।अवार्ड वापसी,जे.एन.यू का कन्हैयाकुमार प्रसंग ,कृष्णा सोबती-कायनात काज़ी प्रसंग,सलमान रुश्दी प्रसंग,तसलीमा नसरीन प्रसंग,एम एफ हुसैन प्रसंग पर लेखक अपना असहमतिपूर्ण दृष्टिकोण सामने रखता है।
वह  घिसे -पिटे मार्क्सवादी रिकॉर्ड :”साहित्य का मतलब प्रतिरोध होता है,वह सत्ता के साथ नहीं होता” को धता बताता है क्यों कि यह एक बड़ा झूठ है जहाँ अपनी सुविधानुसार सत्ता का समर्थन अथवा विरोध किया जाता है । वामपंथ की वैचारिक असहिष्णुता  पर यहां गंभीर प्रश्न उठाया गया है:”क्या वामपंथी या किसी अन्य विचारधारा को मानने वालों को अपने से अलग विचारधारा के साथ विचार-विनिमय नहीं करना चाहिए?”
अनंत विजय का यह मानना है कि वामपंथी दृष्टिकोण की अनन्य प्रभुता और वर्चस्व के चलते हिंदी साहित्य एवं विमर्श की अपूरणीय  क्षति हुई  है ।भारतीय दर्शन ,भारतीय ज्ञान,भारतीय इतिहास ,भारतीय अध्यात्म और प्राचीन सांस्कृतिक विरासत को सृजन,आलोचना एवं शोध में उपेक्षित एवं तिरस्कृत किया गया है।
इस मानसिकता के चलते कभी तो साधारण रचना कर्म को अतिश्रेष्ठ बताकर स्थापित किया गया है तो कभी प्रतिभाशाली रचनाकारों यथा अज्ञेय, दिनकर,नरेंद्र कोहली,अमृता प्रीतम जैसे लेखकों को भी इसलिए हाशिये पर फेंक दिया गया क्योंकि वह इस विचारधारा के संकीर्ण ‘स्पेस’  में ‘फिट’नहीं बैठते थे।
यहां लेखक दिनकर के साथ खड़ा नज़र आता है:”किसी भी कृति को मार्क्सवादी सिद्धांतों की कसौटी पर कस कर उसे क्रांतिकारी अथवा श्रेष्ठ स्थापित करने की चेष्टा अन्यायपूर्ण है।” उसके अनुसार इस एकांगी प्रभाव के चलते सतही,पूर्वग्रहयुक्त, भोथरी आलोचना ने हिंदी साहित्य को आक्रांत किया है।
बहुत लंबे समय से भारतीय साहित्य एवं विमर्श के परिदृश्य से जुड़े होने तथा स्वयं रचनाकारों के इस जगत का एक अभिन्न अंग होने के कारण लेखक ने इस दुनिया को अंदर-बाहर बखूबी जाना है ,नामचीन लेखकों की हकीकत उसे पता है, इस जगत के अंतर्विरोध, अंतर्द्वंद उसे भली प्रकार ज्ञात हैं।
इस सबके भीतर चलती राजनीति का भी इस पुस्तक में विस्तृत चित्रण किया गया है -चाहे वह लेखक हो, प्रकाशक हो ,साहित्य अकादमी हो, पुरस्कार हों,जलेस-प्रलेस, पीईएन जैसे संस्थान हों अथवा ‘जुटान’या ‘कबीर’जैसे एनजीओ-अनंत विजय की दृष्टि से  कुछ नहीं बचा और पाठक को  इस जगत की भरपूर झलक मिली है।
अरुंधति रॉय ,महाश्वेतादेवी ,नयनतारा सहगल ,कृष्णा सोबती, प्रोफेसर जीएन साईबाबा ,एम एफ हुसैन ,तस्लीमा नसरीन, मैत्रेयी पुष्पा ,नामवर सिंह,अशोक वाजपेई, राजेंद्र यादव ,श्रीलाल शुक्ल ,आशीष नंदी ,अमर्त्य सेन  शरणकुमार लिंबाले, लक्ष्मण गायकवाड, कमल किशोर गोयनका, ,मंगलेश डबराल ,उदय प्रकाश, प्रोफेसर मुरुगन,अरुण कमल, गोविंद मिश्र, लीलाधर जगूड़ी ,जगदीश्वर चतुर्वेदी, भीष्म साहनी, उषा किरण खान,कर्मेन्दु शिशिर,कूमी कपूर, नरेंद्र कोहली ,अमीश त्रिपाठी ,अश्विन सांघी ,देवदत्त पटनायक के संदर्भ इस आख्यान का हिस्सा हैं तो तुलसीदास ,कबीर,हज़ारीप्रसाद द्विवेदी,रामचंद्र शुक्ल,पंत,निराला,एवं अज्ञेय की चर्चा भी।
लेखक ने विश्व एवं भारत में मार्क्सवाद के  निरन्तर  क्षीण हो रहे राजनीतिक प्रभाव की भी कारणों समेत विस्तृत चर्चा की है।  अनंत विजय को यह श्रेय अवश्य देना होगा कि ऐसे विचारोत्तेजक विषय पर लिखते हुए भी उनकी भाषा -शैली संतुलित एवं संयमित ही रही है ।यद्यपि कुछ स्थानों पर तल्खी आ सकती थी यथा हावर्ड फास्ट का यहां सम्मिलित किया गया उद्धरण-“कम्युनिस्ट पार्टी एक ऐसी मशीन है जिसमें अच्छे लोग प्रवेश करते हैं और अंततः बुरे लोगों में परिवर्तित हो जाते हैं।
सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टियों में इस प्रक्रिया से बच पाना आमतौर पर जान देने की कीमत पर ही होता है” किंतु  लेखक ने तेवर की आक्रामकता नहीं आने दी और  विमर्श की शालीनता तथा सौम्यता को बनाये रखा है। उसकी निष्पक्षता एवं वस्तुनिष्ठता भी लगातार बनी रहती है जिसके रहते वह पाश्चात्य विदुषी वेंडी डोनिगर के ‘कौशल ‘एवं’ ज्ञान’ की मुक्तकंठ से प्रशंसा कर पाता है तथा ईमानदार स्वीकारोक्ति को  अपने आख्यान का हिस्सा बनाता है:”यह सच है कि बौद्धिक जगत में वामपंथी विचारधारा की तुलना में दक्षिण पंथी विचारधारा के विद्वानों की संख्या कम है।”उसके अनुसार”मार्क्सवाद पर सवाल खड़े किए जा सकते हैं लेकिन उसको एकदम से खारिज नही किया जा सकता।” 
पढते हुए कहींकहीं पुनरावृत्यात्मकता का आभास ,विस्तार का आधिक्य एवं कथन-शैथिल्य पुस्तक के कथ्यप्रवाह को कभीकभार अवरुद्ध करते प्रतीत होते हैं किंतु तर्कपूर्ण प्रस्तुति एवं रोचक प्रसंग उसे पुनर्जीवित कर देते हैं।भाषा की सरलता एवं सम्प्रेषणीयता कृति की ग्राह्यता एवं पठनीयता को व्यापक बनाती है।
संक्षेप में कहें तो  “सच को सच कहना ही होगा “का हठ करती यह पुस्तक साहित्य, विमर्श ,आलोचना, इतिहास ,दर्शन सबको विचारधारा के बंधन से मुक्त कर उन्हें वस्तुनिष्ठ और निष्पक्ष बनाने का सशक्त आग्रह है । यह ऐसे सृजनजगत की परिकल्पना है जहां साहित्यकार दलगत राजनीति से ऊपर है ,बौद्धिक आतंक से मुक्त हैं और साहित्य है वह शुभ सत्य जो व्यक्ति के जीवन एवं समाज को आंतरिक एवं बाह्य रूप से सुंदर,समृद्ध बनाता है । अपने इस उदात्त उद्देश्य के चलते यह पुस्तक मार्क्सवाद /मार्क्सवादियों की आलोचना के परे चली जाती है और एक नए विमर्श की यात्रा का प्रस्थान बिंदु बनती प्रतीत होती है।
“मार्क्सवाद का अर्धसत्य”  हिंदी के समकालीन  वैचारिक परिदृश्य की एक महत्वपूर्ण कृति यूं भी है कि यह आज की उस युगचेतना का प्रतिनिधित्व करती है जो  सिर्फ मनु पर ही प्रश्न नहीं उठा रही अपितु मार्क्स पर भी प्रश्न उठा रही है । हिंदी की बौद्धिक चेतना – यात्रा में यह कृति अगले पड़ाव के निकटागमन की घोषणा करती है  तथा आश्वस्त करती है कि हिंदी की बौद्धिक चेतना जीवित है, जीवंत है और ‘पूर्ण’ सत्य की खोज में अग्रसर है।
पुस्तक कई आवश्यक,प्रासंगिक प्रश्न उठाती है जिन पर  बौद्धिक जगत में विस्तार से चर्चा एवं विमर्श होना ही चाहिए। इस अवश्यपठनीय,विचारोत्तेजक कृति के लेखक अनंत विजय एवं सुरुचिपूर्ण पुस्तकप्रोडक्शन हेतु वाणी प्रकाशन दोनों बधाई के पात्र हैं।मूल्य अधिक होने से यह पुस्तक अधिकतर पुस्तकालयपुस्तक ही रहेगी,हिंदी के साधारण पाठक की पुस्तक नहीं बन पाएगी !पेपरबैक में इसकी उपलब्धता निस्सन्देह एक बहुमूल्य योगदान होगा।

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