मैं मोहन भागवत जी का बहुत सम्मान करता हूँ। लेकिन “ज़ाति-प्रथा ब्राह्मणों ने बनायी या लागू की” उनके इस बयान से असहमति प्रकट करना चाहता हूँ।
मनु ब्राह्मण नहीं थे। पंडितों या विद्वानों से भी समाज को तोड़ने और बाँटने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। किसी भी प्रथा को लागू करने और उसे बनाये रखने में किस का स्वार्थ सिद्ध होता रहा है। आज जाति-प्रथा का खंडन करने वाले इसे समाप्त करने के लिए कुछ नही करना चाहेंगे। क्यों की जाती के आधार पर वोट मिलते हैं. नौकरी मिलती है , कुर्सी मिलती है।ऊँच नीच की खाई है, पर इसे बनाए रखने में किस की भलाई है?
पूज्य भागवत जी ने जब आरक्षण पर पुनर्विचार की बात कही थी तो बवाल उठ खड़ा हुआ था। बिहार इलेक्शन का रुख़ ही बदल गया था।
जाति जन्म से नहीं प्रोफ़ेशन से बनती है। पश्चिम में स्वर्णकार को गोल्डस्मिथ लोहार को आयरन स्मिथ धोबी को ड्राइक्लीनर कहने पर कोई बुरा नहीं मनाता। क्योंकि वे अपने काम और व्यवसाय को छोटा नहीं समझते… उसे सम्मान देते हुए उस पर गर्व करते हैं।
हमारे यहाँ…तो किसी को उसके जाती सूचक टाइटल से पुकारेंगे तो वो पुलिस बुला लेगा। वह स्वयं ही अपने काम को छोटा मान बैठा है। वह अपना प्रोफेशन छोड़ कर भी अपनी ज़ाती सूचक पहचान नहीं छोड़ेगा, क्योंकि उसे बनाये रखने में ही उसे फ़ायदा है।
चलिये एक प्रयोग कीजिये। जाति पहचान को मिटाने के लिए जाति-सूचक शब्दों, पदों और उनसे जुड़े अधिकारों को समाप्त कराने के लिए एक वाक्य बोलने का साहस कीजिये,… तूफ़ान आ जायेगा।
“ढोल गंवार” तो जड़ समुद्र का कथन है। राम तो केवट शबरी, भील आदि को गले लगाते हैं। उनका झूठन तक खाते हैं। ये बातें प्रचारित करेंगे तो तो जाति के नाम पर मिलने वाले लाभ का क्या होगा।
“जात पात पूछे ना कोई,
एवम्
“जाती पाती कुल धर्म बड़ाई” ये चौपाइयाँ भी राम चरित मानस में हैं।
परंतु इनसे तो समाज के जुड़ने का डर है। हमें तो हिंदू समाज को बाँट कर रखना है…क्यों ?