एक ज़माने में पाँच से दस प्रतिशत लोगों पर कर्ज़ा चढ़ा होता था। मगर नई तकनीक के चलते कर्ज़दारों की संख़्या में अद्भुत बढ़ोतरी होनी शुरू हो गयी। मैंने पश्चिमी देशों में महसूस किया है कि अधिकांश लोग कर्ज़े के बोझ के नीचे दबे रहते हैं। फिर एक ऐसा जाल बनता चला जाता है जिसमें से इन्सान कभी निकल नहीं पाता। वह एक से दूसरा और फिर तीसरा क्रेडित कार्ड ख़रीद लेता है और उस पर कर्ज़ का शिकंजा कसता चला जाता है।
अमरीकी कंपनी हिंडनबर्ग की गौतम अडानी ग्रुप पर एक रिपोर्ट ने पूरे भारत को हिला कर रख दिया है। सड़कों से संसद तक एक ही चर्चा है। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट भी इसी मुद्दे से जूझ रही है। पूरा विपक्ष संसद में नारे लगा रहा है “मोदी-अडानी भाई-भाई”।
व्हट्सएप पर वायरल हो रहे संदेश तो यहां तक कह रहे हैं कि हिंडनबर्ग रिपोर्ट के बाद अडानी ग्रुप को जितने डॉलर का नुक्सान हुआ है यदि वो राशि पाकिस्तान को दे दी जाए तो उनका आठ महीने का ख़र्चा निकल आएगा। आई.एम.एफ़. के पास जाने की आवश्यक्ता ही नहीं।
मगर मैं पुरवाई के पाठकों के साथ अपने निजी विचार साझा करना चाहता हूं। अडानी के मामले ने मुझे मेरे बचपन में पहुंचा दिया। मुझे अपने बाऊजी (पिता) की बातें याद आने लगीं। वे कहा करते थे, “उधार एक लानत है! उतने ही पाँव पसारो जितनी बड़ी चादर है। खाओ मनभाता मगर पहनों जगभाता।”
उनके जीने की शैली थी पहले पैसे जमा करो फिर कुछ ख़रीदो। बाऊजी स्वतन्त्रता सेनानी थे। जीवन में कभी ऊपर की कमाई नहीं की। बस सीधी सादी तन्ख़ाह में अपने तीन बच्चे पाल लिये। और रेल्वे से सेवानिवर्त्त होने के बाद एक छोटा सा घर फ़रीदाबाद में बना लिया।
मुझे याद पड़ता है शायद 1972 या 1973 की बात है। मैंने अपने बाऊजी का यह उसूल तोड़ा। उसूल तोड़ने का कारण था कि मेरी छोटी बहन को पड़ोसियों के घर दूरदर्शन के चित्रहार और रविवार की फ़िल्म देखने जाना पड़ता था। ब्लैक अण्ड व्हाइट टीवी का ज़माना था। मुझे महसूस हुआ कि शायद बाऊजी भी समाचार सुनने के स्थान पर समाचार देखना पसन्द करेंगे।
मैंने 1971 में बैंक ऑफ़ इंडिया में नौकरी कर ली थी और अपनी बी.ओ. ऑनर्स और एम.ए. अंग्रेज़ी की पढ़ाई बैंक की नौकरी के साथ-साथ पूरी की थी। मुझे पता चला कि मैं बैंक से चार हज़ार रुपये तक का लोन सूद-मुक्त दरों पर ले सकता था। और पैसे पाँच वर्षों में मासिक किस्तों पर अदा करने होंगे। मैंने चुपके से एक निर्णय लिया और चार हज़ार का लोन लेकर टेलिविस्ता ब्राण्ड का एक ब्लैक अण्ड व्हाइट टीवी आसफ़ अली रोड के शोरूम से ऑर्डर कर दिया।
यानी कि आज से 50 वर्ष पूर्व मैंने उधार लेकर सामान ख़रीदने का काम कर डाला था। बाऊजी के दिल में एक ओर तो ख़ुशी थी कि घर में टीवी आने से हमारे घर का रुतबा पड़ोसियों के सामने ऊंचा हो गया था मगर वहीं उन्हें इस बात का दुःख भी था कि उनका पुत्र भी उधार के चक्कर में फंस गया था। मगर मैंने अपने बाऊजी को अपने तर्क से समझा दिया था कि हर महीने पचास रुपये की बचत करने के मुकाबले, पचास रुपये की किश्त देना अधिक आसान था।
मुझे याद है कि उन दिनों हर घर में एक गुल्लक होती थी। जो भी पैसे बचते उस गुल्लक में रख दिये जाते थे। गुल्लक को तभी तोड़ा जाता था जब कोई इमरजेंसी के हालात हों। वरना एक गुल्लक भर जाने के बाद दूसरी शुरू हो जाती थी।
हमारी फ़िल्मों में पहले ज़मींदार किसान को उधार दिया करता था। फिर एक बनिया पैदा हुआ जो गाँव और शहर दोनों जगह उधार देता था। गाँव में एक ठाकुर भी होता था जिसके लठैत सूद-समेत उधार वापिस लेने का काम करते थे। दो बीघा ज़मीन, मदर इंडिया, बेवफ़ा, जैसी अनेक फ़िल्मों में उधार की समस्या उठाई गई है। मुराद ज़मीदार के रूप में कन्हैया लाल और सी.एस. दुबे बनिये के रूप में स्थापित कलाकार थे।
वैसे पहले समझा जाता था कि उधार लेना केवल किसान की मजबूरी है। उधार कुछ ख़ास स्थितियों में ही लिया जाता था। बेटी का विवाह, बेटे की पढ़ाई, घर में किसी की बीमारी कुछ ऐसे हालात थे जो इन्सान को सूदखोर बनिये की चौखट पर पहुंचा देते थे।
वीज़ा और मास्टर क्रेडिट कार्ड ने पूरी दुनिया के लोगों को उधार के शिकंजे में जकड़ लिया। भारत में 1990 के दशक में तो क्रेडिट कार्ड रखना समाज में प्रतिष्ठा का विषय माना जाता था। मेरे एअर इंडिया के साथियों ने क्रेडिट कार्ड रखना शुरू कर दिया था। भारतीय बैंकों ने भी अपने ग्राहकों को क्रेडिट कार्ड रखने के लिये प्रोत्साहित करना शुरू कर दिया था।
अब हालात ऐसे होने लगे थे कि जो वस्तु पसन्द आए उसे क्रेडिट कार्ड से ख़रीद लिया जाए और उसे सूद-समेत हर महीने वापिस किया जाए। मगर बाऊजी की सीख का असर मुझ पर ऐसा था कि मैं कभी क्रेडिट कार्ड ले ही नहीं पाया। आज भी पहले पैसे बचाता हूं फिर कोई ज़रूरत या ग़ैर-ज़रूरत की चीज़ ख़रीदता हूं। अपनी भारत यात्रा पर क्रेडिट कार्ड इस्तेमाल करता हूं और लंदन आते ही पूरा का पूरा पैसा चुकता कर देता हूं। इससे कार्ड भी सक्रिय रहता है और मेरी आदत भी ख़राब नहीं होती।
एक ज़माने में पाँच से दस प्रतिशत लोगों पर कर्ज़ा चढ़ा होता था। मगर नई तकनीक के चलते कर्ज़दारों की संख़्या में अद्भुत बढ़ोतरी होनी शुरू हो गयी। मैंने पश्चिमी देशों में महसूस किया है कि अधिकांश लोग कर्ज़े के बोझ के नीचे दबे रहते हैं। फिर एक ऐसा जाल बनता चला जाता है जिसमें से इन्सान कभी निकल नहीं पाता। वह एक से दूसरा और फिर तीसरा क्रेडित कार्ड ख़रीद लेता है और उस पर कर्ज़ का शिकंजा कसता चला जाता है।
इसके बाद इन्सान बैंक से एक बड़ा लोन लेता है ताकि इन तीनों क्रेडिट कार्डों का उधार उतार कर एक सिंगल ई.एम.आई. का भुगतान करने लगे। यह मासिक किश्त तो चल ही रही होती है, इस बीच घर में किसी चीज़ की ज़रूरत पड़ती है और वह फिर से क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल कर लेता है। अब वह बैंक लोन की किश्त तो भर ही रहा होता है, साथ ही उस पर क्रेडिट कार्ड की किश्त शुरू हो जाती है। इस तरह इन्सान उधार और क्रेडिट कार्ड के दुष्चक्र में धंसता चला जाता है।
वैसे यह भी कहा जाता है कि यदि आप पर हज़ारों का उधार है तो आप बहुत छोटे इन्सान हैं। यदि आप पर लाखों का उधार है तो आप मिडल क्लास या लोअर मिडल क्लास के इन्सान हैं। मगर जब आप पर करोड़ों और अरबों का उधार है तो आप अडानी, अंबानी या विजय माल्या हैं। एक बात तो तय है कि कोई भी बड़ा व्यापारी अपना पैसा लगा कर बड़ा नहीं बनता। उसके बिज़नस में बैंक, वित्तीय संस्थाएं और शेयरधारक पैसा लगाते है और बड़ा आदमी वह व्यापारी बनता जाता है।
छोटे आदमी को या मिडल क्लास को किश्त न भरने पर पहले ठाकुर के लैठत आया करते थे मगर अब बैंक के रिकवरी एजेण्ट आते हैं। वक्त के साथ-साथ सूदखोर महाजन का रूप बदल गया है। सूदखोर महाजन के पास आप उधार लेने ख़ुद जाते थे मगर आज का बैंक आपको पहले फ़ोन करके लुभाता है। अपने लोन की आसान शर्तों के सपने दिखाता है। फिर भी आप नहीं फंसते तो आपके घर तक पहुंच जाता है और आपको लोन देने के बाद ही चैन की साँस लेता है।
आज के बैंक लोन के सिर पर ही अपना लाभ बढ़ा रहे हैं। पैसा बैंक में जमा करने पर तो उन्हें ब्याज देना पड़ता है। असली कमाई तो लोन से ही होती है। मनमानी दर पर सूद वसूल करते हैं बैंक। क्रेडिट कार्ड के ब्याज दर तो भयावह होते हैं।
आम आदमी से तो बैंक निपट लेता है मगर कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो हज़ार करोड़ों में बैंक से लोन लेते हैं और फिर ‘मिस्टर इंडिया’ बन कर देश से ग़ायब हो जाते हैं। आसानी से अपने को दीवालिया घोषित कर देते हैं। और विदेशी कानून का सहारा लेकर भारत वापिस आने से बचते रहते हैं। विजय माल्या, नीरव मोदी, मेहुल चौकसी, ललित मोदी जैसे पच्चीस और आर्थिक अपराधी भारत से बाहर ऐश से जीवन बिता रहे हैं। ऐसे लोग देश के लिये ख़तरनाक होते हैं। अपने राजनीतिक संबंधों का लाभ उठा कर बैंकों से कर्ज़ उठाते हैं और फिर ग़ायब हो जाते हैं।
चलिये आज गौतम अडानी के कारण हमें अपने गिरेबान में झांकने का भी मौक़ा मिल गया।
उधार और क्रेडिट कार्ड का बहुत बड़ा सच जो आम आदमी की समझ से बाहर है को सरल भाषा में समझाकर आपने आंखें खोल दी।
दिखावे के अमीरों का भारतीय अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर विदेश भागकर पनाह लेने वाला तरीका शातिर डाकुओं से भी भयावह है।
आप ने अपने गिरेबान में झाँक कर, श्वेत-श्याम टीवी के ज़माने की, चित्रहार वगैरह की याद दिला दी, टीवी के बहाने से ही लोग सामाजिक तो थे. पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था के size को एक वाक्य में बता दिया, क्या बात है, वाह !!! क्रेडिट कार्ड तो बैंक घर बैठे बिना पूछे भेज देते हैं. एक बार मेरे पास भी आ गया था, मैंने उसको काटा और फेंक दिया, आज तक फिर कभी लिया ही नहीं. वास्तव में कर्ज की आदत शराब के नशे से भी बुरी है.पहले इन्सान मजबूरी में कर्ज़ लेता था, अब शौक में. मन मार कर पैसे बचा कर इच्छायें पूरी करने की जगह सब फास्ट-फॉरवर्ड में जीने लगे हैं. कुछ संस्थाओं ने पैसे की हवस में लाखों करोड़ों की जिन्दगी, चमचमाती जिन्दगी का ख्वाब दिखा, बर्बाद कर डाली… दुःखद है. ऐसा विषय उठा कर आपने अच्छा किया, शायद कुछ लोग क्रेडिट कार्ड के चक्कर से बच जायें…
बचपन, पुराने ज़माने का टीवी, फिल्म उनके कलाकार, पाकिस्तान, अडानी, नीरव/ललित मोदी वगैरह सहित कितनी बातें समेट लीं एक संपादकीय में, आनंदित करने वाले संपादकीय के लिए धन्यवाद
तेजेन्द्र जी! बहुत सामयिक समस्या को खंगाला है आपने।आज लोन तो जैसे जीवन का अंग बन गया है। हमारे ज़माने में उधार लेने वाले को पसंद कहाँ किया जाता था?
टीवी के साथ तो बहुत सी यादें जुड़ी हैं।
मुझे भी शटर वाला ब्लैक एंड व्हाइट क्राउन का टी.वी याद आ गया। अहमदाबाद में ‘क्राउन’ की फैक्ट्री खुली थी। इससे पहले दिल्ली दूरदर्शन पर आडीशन दिया तब मुक्ता श्रीवास्तव साथ थीं। अफ़सोस इस बात का रहा कि टैस्ट पास करके भी अम्मा , नानी जी से मुझे मुज़फ़्फ़रनगर से दिल्ली छोड़ा नहीं गया।
जब अहमदाबाद आने पर क्राउन टीवी आया जिसमें मुक्ता श्रीवास्तव को लगभग रोज़ ही देखते थे तो जाने कितनी बार अम्मा से लड़ाई की होगी।
रंगीन टीवी तो बहुत बाद में आया। आज इस लोन की बीमारी के कारण नए गैजेट्स, गाड़ियाँ व और सब आकर्षित करने वाले आइटम्स बाद में आते हैं, उनकी बुकिंग पहले शुरू हो जाती है।
आज की पीढ़ी को समझाना लगभग असंभव है कि लोन यानि मकड़ी का जाला।
बहुत सारी बातें याद आ गईं।
पिछले दिनों में पहुँचाने के लिए साधुवाद स्वीकारें।
धन्यवाद
अपनी कहानी समय की ज़ुबानी है, आज की सम्पादकीय ।भारत की अर्थव्यवस्था में बदलता हुआ बैंकिग स्वरूप पर उम्दा विचार हैं ।
कई बिंदु आकर्षक कथन हैं ।साधुवाद ।
Dr Prabha mishra
A well timed appraisal n study of the plight of debtors in films as well as fiction of older days and the huge prevalence of people taking loans from banks during present times and making news for wrong reasons.
The mention of your dear father being against taking loans adds a personal touch to your Editorial.
Regards
Deepak Sharma
ये आईफ़ोन भी किश्तों में लिया हुआ है, लोन न लेने की आदत होती तो ये संपादकीय कहाँ पढ़ते! फ़िलहाल यदि लोन मिल जाये तो ले लो-लौटा देंगे विश्वास के संग!
लोन लेकर लोन वापस किया जा सकता है!
आपने अपने संपादकीय ‘ उधार ही व्यापार का आधार,’ में गौतम अडानी के जरिये कल और आज की पीढ़ी की मानसिकता का बहुत ही अच्छा विश्लेषण किया है। सच जहाँ पुरानी पीढ़ी कर्ज लेने में संकोच करती थीं थी। आज की पीढ़ी पुरानी पीढ़ी के मूलमंत्र ‘जितनी चादर हो उतने ही पैर पैसारने चाहिए ‘ को ख़ारिज करती हुई, कर्ज लेकर सारे सुख खरीदना चाहती है। उसकी मान्यता है कि यही उम्र तो जिंदगी जीने की है।
आज के युवाओं की बदलती मानसिकता यही है कि खाओ पीओ और मौज करो, कल किसने देखा है।
प्रेरणाप्रद संस्मरणात्मक संपादकीय के माध्यम से आपने
क़र्ज़ संबंधी गंभीर विषय को अत्यंत सहजता से, बहुमूल्य हमारे अभिभावकों के सदुपदेश संबंधी विविध अनुभवों व प्रेरक शब्दों के द्वारा कृषक वर्ग से लेकर 70,90 के दशकों में क़र्ज़ का तात्पर्य व आवश्यकता और वर्तमान संदर्भ में वीज़ा, क्रेडिट कार्ड, मास्टरकार्ड आदि जैसे बैंकों के लुभावने मकड़जाल की वास्तविकता भी उजागर की है।
आपके इस संपादकीय को पढ़कर पाठक अवश्य ही इस प्रकार के आकर्षक कर्जों में स्वयं को उतारने व उलझने से पहले एक बार अवश्य सोचेंगे वह जागरूक भी होंगे।
श्लाघनीय
डॉ. ऋतु माथुर
प्रयागराज ।
आपकी आज की संपादकीय में जीवन जीने का सीधा सा दिखने वाला किन्तु अत्यन्त आवश्यक मूल मंत्र लिख दिया है। हमारे दादा जी और पापा दोनों ही उधार को रिश्तों की कैंची भी कहा करते थे , और जीवन का न दिखाई देने वाला वजन भी कहा करते थे। उधारी मतलब….. फटीचर।
आपकी कलम तो अच्छे अच्छों की कलई खोलकर रख देती है उसमे पाकिस्तान हो या कोई निजी कम्पनी के मालिक…. । शुक्रिया … भारतीय दर्शन के अनुसार जीवन जीने का फार्मूला भी उजागर हो गया।” ताते पैर पसारिए जाती लम्बी सौर। “
आपके पिताजी को सादर नमन जिन्होंने आपको इतने अच्छे संस्कार दिए और आपने नौकरी करते करते पढ़ाई की और अपने परिवार की छोटी बहन की जरूरतों को समझकर अपनी संवेदनाओं को आर्थिक सूझ बूझ “₹50 जमा करने से बेहतर है ₹50 की किस्त बंधवा लेना” से पूरी की…
वर्तमान समाज में कर्ज लेकर झूठे दिखावा करने वालों को सही संदेश देते हुए बेहतरीन लेख
उधार और क्रेडिट कार्ड का बहुत बड़ा सच जो आम आदमी की समझ से बाहर है को सरल भाषा में समझाकर आपने आंखें खोल दी।
दिखावे के अमीरों का भारतीय अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर विदेश भागकर पनाह लेने वाला तरीका शातिर डाकुओं से भी भयावह है।
एकदम सही कहा उषा जी। धन्यवाद
आप ने अपने गिरेबान में झाँक कर, श्वेत-श्याम टीवी के ज़माने की, चित्रहार वगैरह की याद दिला दी, टीवी के बहाने से ही लोग सामाजिक तो थे. पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था के size को एक वाक्य में बता दिया, क्या बात है, वाह !!! क्रेडिट कार्ड तो बैंक घर बैठे बिना पूछे भेज देते हैं. एक बार मेरे पास भी आ गया था, मैंने उसको काटा और फेंक दिया, आज तक फिर कभी लिया ही नहीं. वास्तव में कर्ज की आदत शराब के नशे से भी बुरी है.पहले इन्सान मजबूरी में कर्ज़ लेता था, अब शौक में. मन मार कर पैसे बचा कर इच्छायें पूरी करने की जगह सब फास्ट-फॉरवर्ड में जीने लगे हैं. कुछ संस्थाओं ने पैसे की हवस में लाखों करोड़ों की जिन्दगी, चमचमाती जिन्दगी का ख्वाब दिखा, बर्बाद कर डाली… दुःखद है. ऐसा विषय उठा कर आपने अच्छा किया, शायद कुछ लोग क्रेडिट कार्ड के चक्कर से बच जायें…
बचपन, पुराने ज़माने का टीवी, फिल्म उनके कलाकार, पाकिस्तान, अडानी, नीरव/ललित मोदी वगैरह सहित कितनी बातें समेट लीं एक संपादकीय में, आनंदित करने वाले संपादकीय के लिए धन्यवाद
शैली जी, हम सबके बचपन की यादें लगभग एक सी हैं।
खरी-खरी देशवासियों को, आम आदमी को जो लोन के दलदल मे धंसता जा रहा है।तीर निशाने पर लगा है।
थैंक्स दीपा।
तेजेन्द्र जी! बहुत सामयिक समस्या को खंगाला है आपने।आज लोन तो जैसे जीवन का अंग बन गया है। हमारे ज़माने में उधार लेने वाले को पसंद कहाँ किया जाता था?
टीवी के साथ तो बहुत सी यादें जुड़ी हैं।
मुझे भी शटर वाला ब्लैक एंड व्हाइट क्राउन का टी.वी याद आ गया। अहमदाबाद में ‘क्राउन’ की फैक्ट्री खुली थी। इससे पहले दिल्ली दूरदर्शन पर आडीशन दिया तब मुक्ता श्रीवास्तव साथ थीं। अफ़सोस इस बात का रहा कि टैस्ट पास करके भी अम्मा , नानी जी से मुझे मुज़फ़्फ़रनगर से दिल्ली छोड़ा नहीं गया।
जब अहमदाबाद आने पर क्राउन टीवी आया जिसमें मुक्ता श्रीवास्तव को लगभग रोज़ ही देखते थे तो जाने कितनी बार अम्मा से लड़ाई की होगी।
रंगीन टीवी तो बहुत बाद में आया। आज इस लोन की बीमारी के कारण नए गैजेट्स, गाड़ियाँ व और सब आकर्षित करने वाले आइटम्स बाद में आते हैं, उनकी बुकिंग पहले शुरू हो जाती है।
आज की पीढ़ी को समझाना लगभग असंभव है कि लोन यानि मकड़ी का जाला।
बहुत सारी बातें याद आ गईं।
पिछले दिनों में पहुँचाने के लिए साधुवाद स्वीकारें।
धन्यवाद
प्रणव जी आपने संपादकीय की रूह समझ ली है।
अपनी कहानी समय की ज़ुबानी है, आज की सम्पादकीय ।भारत की अर्थव्यवस्था में बदलता हुआ बैंकिग स्वरूप पर उम्दा विचार हैं ।
कई बिंदु आकर्षक कथन हैं ।साधुवाद ।
Dr Prabha mishra
हार्दिक धन्यवाद प्रभा जी।
A well timed appraisal n study of the plight of debtors in films as well as fiction of older days and the huge prevalence of people taking loans from banks during present times and making news for wrong reasons.
The mention of your dear father being against taking loans adds a personal touch to your Editorial.
Regards
Deepak Sharma
Thanks so much four valuable comment Deepak ji.
ये आईफ़ोन भी किश्तों में लिया हुआ है, लोन न लेने की आदत होती तो ये संपादकीय कहाँ पढ़ते! फ़िलहाल यदि लोन मिल जाये तो ले लो-लौटा देंगे विश्वास के संग!
लोन लेकर लोन वापस किया जा सकता है!
बढ़िया संपादकीय। बहुत सारे संदेश जो इंसान को सचेत करें। खूब शुभकामनाएं।
धन्यवाद प्रगति जी।
शानदार संपादकीय
कटु सत्य
धन्यवाद भावना।
आपने अपने संपादकीय ‘ उधार ही व्यापार का आधार,’ में गौतम अडानी के जरिये कल और आज की पीढ़ी की मानसिकता का बहुत ही अच्छा विश्लेषण किया है। सच जहाँ पुरानी पीढ़ी कर्ज लेने में संकोच करती थीं थी। आज की पीढ़ी पुरानी पीढ़ी के मूलमंत्र ‘जितनी चादर हो उतने ही पैर पैसारने चाहिए ‘ को ख़ारिज करती हुई, कर्ज लेकर सारे सुख खरीदना चाहती है। उसकी मान्यता है कि यही उम्र तो जिंदगी जीने की है।
आज के युवाओं की बदलती मानसिकता यही है कि खाओ पीओ और मौज करो, कल किसने देखा है।
सुधा जी आपने बहुत ही अर्थपूर्ण टिप्पणी की है। हार्दिक आभार।
विचारणीय लेख
धन्यवाद संगीता जी।
प्रेरणाप्रद संस्मरणात्मक संपादकीय के माध्यम से आपने
क़र्ज़ संबंधी गंभीर विषय को अत्यंत सहजता से, बहुमूल्य हमारे अभिभावकों के सदुपदेश संबंधी विविध अनुभवों व प्रेरक शब्दों के द्वारा कृषक वर्ग से लेकर 70,90 के दशकों में क़र्ज़ का तात्पर्य व आवश्यकता और वर्तमान संदर्भ में वीज़ा, क्रेडिट कार्ड, मास्टरकार्ड आदि जैसे बैंकों के लुभावने मकड़जाल की वास्तविकता भी उजागर की है।
आपके इस संपादकीय को पढ़कर पाठक अवश्य ही इस प्रकार के आकर्षक कर्जों में स्वयं को उतारने व उलझने से पहले एक बार अवश्य सोचेंगे वह जागरूक भी होंगे।
श्लाघनीय
डॉ. ऋतु माथुर
प्रयागराज ।
आपकी आज की संपादकीय में जीवन जीने का सीधा सा दिखने वाला किन्तु अत्यन्त आवश्यक मूल मंत्र लिख दिया है। हमारे दादा जी और पापा दोनों ही उधार को रिश्तों की कैंची भी कहा करते थे , और जीवन का न दिखाई देने वाला वजन भी कहा करते थे। उधारी मतलब….. फटीचर।
आपकी कलम तो अच्छे अच्छों की कलई खोलकर रख देती है उसमे पाकिस्तान हो या कोई निजी कम्पनी के मालिक…. । शुक्रिया … भारतीय दर्शन के अनुसार जीवन जीने का फार्मूला भी उजागर हो गया।” ताते पैर पसारिए जाती लम्बी सौर। “
आपके पिताजी को सादर नमन जिन्होंने आपको इतने अच्छे संस्कार दिए और आपने नौकरी करते करते पढ़ाई की और अपने परिवार की छोटी बहन की जरूरतों को समझकर अपनी संवेदनाओं को आर्थिक सूझ बूझ “₹50 जमा करने से बेहतर है ₹50 की किस्त बंधवा लेना” से पूरी की…
वर्तमान समाज में कर्ज लेकर झूठे दिखावा करने वालों को सही संदेश देते हुए बेहतरीन लेख