समन्वय,सामंजस्य और संतुलन ही लोकतंत्र की सब से बड़ी खूबसूरती हैं। जन से उठी आवाज को लोकमंदिर (भारत में लोकसभा,राज्यसभा या फिर राज्यों में विधानसभा ) तक पहुँचाने वाला ही जनप्रतिनिधि होता है। सभी चुने हुए प्रतिनिधियों की अपनी अपनी पहचान होती है । मैं यह भी मानता हूं कि लोकतंत्र में किसी एक के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ा जाता है परंतु यह बिल्कुल आवश्यक नहीं है कि जिस के नेतृत्व में चुनाव लड़ा जाए बाकी सब जनप्रतिनिधि उसी की परछाई बनकर रह जाएं।

लोकतंत्र या जनतंत्र एक ऐसी प्रक्रिया है, एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें जन के द्वारा लोक की स्थापना की जाती है । यह किसी एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों के समूह के द्वारा निर्देशित ना होकर एक टीम वर्क है।

लोकतंत्र में यह बात सुनिश्चित की जाती है कि लोक (शासन) कल्याणकारी हो, मंगलकारी हो जिससे उस देश में रहने वाली जनता को समुचित अधिकार स्वतंत्रता और संप्रभुता का अर्थ समझ भी आए और आने वाली पीढ़ियों को समझा भी पाए। शासन तंत्र कोई भी हो बिना नायक  के नहीं चल सकता।  लेकिन लोकतंत्र ऐसी व्यवस्था है जिसमें सिर्फ एक नायकवाद से  काम नहीं चल सकता  ।

भारत की वर्तमान शासन पद्धति एकल नायकवाद पर स्थिर होकर रह गई है, एक या दो व्यक्ति के केंद्र में सिमट कर रह गई है । यह परिस्थिति बहुत अनुकूल तो नहीं हो सकती परंतु जब इसके प्रतिकूल प्रभाव शुरू होंगे तो जिस व्यवस्था ने या जिस दल ने, जिस पार्टी ने उस व्यक्ति को नायक बनाया है उस संस्था को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है । इसके कई उदाहरण भारतवर्ष में ही मौजूद है जिनमें इस जमाने में आप इंदिरा गांधी की शासन व्यवस्था को देख सकते हैं । इसी प्रकार राजीव गांधी हरियाणा में देवीलाल ने भी स्वयं को नायक सिद्ध करने की कोशिश की थी परंतु मैं बिना किसी अतिशयोक्ति के कह सकता हूं इनमें से कोई भी लोकतंत्र का नायक या महानायक नहीं बन पाया।

वर्तमान शासन व्यवस्था में चाहे वह राज्यों की हो या केंद्र की ज्यादातर मंत्रियों के विभाग और मंत्रियों के नाम समाज के सामने नहीं हैं, उनको कोई जानता तक नहीं है । वे किसी भी चर्चा में नहीं होते ना ही किसी परिचर्चा में भाग लेते हैं । ऐसा इसलिए हुआ है कि राज्यों के मुख्यमंत्री और केंद्र में प्रधानमंत्री को ही प्रचार-प्रसार और चित्र अखबारों में, मीडिया में देने का अधिकार प्राप्त है ।

राजनीति में जागरूक लोग तो इन नेताओं से संबंध या संपर्क रख पाते हैं परंतु आम लोगों की नजरों से यह लोग धीरे-धीरे दूर हो जाते हैं। लोकतंत्र में न दिखना सब से बड़ी हानि है । जिसका दुष्परिणाम केंद्र या राज्य के मंत्रियों को हार के रूप में चुकाना पड़ता है ।

वर्तमान में तो केंद्र और राज्य में कई ऐसे मंत्री हैं जिनके मंत्रालय और मंत्री दोनों के बारे में कभी कोई चर्चा नहीं होती । मेरा यह मानना है किसके कारण ये लोग स्वयं को सोसाइटी से डिस्कनेक्ट मानते हैं। यानी जनप्रतिनिधि तो हैं पर जन से दूर ।

लोकतंत्र में एक समूह की जीत  होती है । इसलिए एक बार निर्वाचित हो जाने के बाद सभी उपलब्धियां या विफलताएं भी सामूहिक ही होनी चाहिए ।

समन्वय,सामंजस्य और संतुलन ही लोकतंत्र की सब से बड़ी खूबसूरती हैं। जन से उठी आवाज को लोकमंदिर (भारत में लोकसभा,राज्यसभा या फिर राज्यों में विधानसभा ) तक पहुँचाने वाला ही जनप्रतिनिधि होता है। सभी चुने हुए प्रतिनिधियों की अपनी अपनी पहचान होती है । मैं यह भी मानता हूं कि लोकतंत्र में किसी एक के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ा जाता है परंतु यह बिल्कुल आवश्यक नहीं है कि जिस के नेतृत्व में चुनाव लड़ा जाए बाकी सब जनप्रतिनिधि उसी की परछाई बनकर रह जाएं।

यहीं से उस दल या संगठन के लिए समस्याएं उत्पन्न होने शुरू होती है और एक ऐसा समय आता है जब इस नायकवाद के चक्कर में पूरा का पूरा संगठन ध्वस्त हो जाता है । इसलिए अति आवश्यक है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था को बचाए रखने के  जन -मन की आवाज समाज, राज्य,राष्ट्र में उठती रहे, गूंजती रहे उस पर विमर्श होता रहे ।  यही लोकतंत्र की जीत है और यही लोकतंत्र का स्वास्थ्य भी ।

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