आज सुबह से कानों में ढोल-नगाड़ो की आवाज़ गूंज रही है और सामूहिक ध्वनि “गणपति बप्पा मोरया” मन को विचलित किए जा रही है, जबकि चारों ओर कितनी उमंग, कितना उत्साह है । न चाहते हुए भी लौट जाती हूँ अठारह वर्ष पीछे। हाँ, मेरे लिए यह उत्सव अतीत की यादों में गुम होने के अतिरिक्त और कुछ नहीं। आखों के सामने एक-एक दृश्य इस तरह  उभरते चले आते हैं जैसे कल की ही बात है। कभी लगता है शायद कोई ख़्वाब था वह, इतना जीवंत कि भुलाए नहीं भूलता। 

वह दिन था 13 सितंबर,1999, अनंतचतुर्दशी। दोपहर लगभग तीन बजे डॉक्टर आई सी यू से बाहर निकले, कहा- ही इज़ नो मोर, और चलते बने अपने केबिन की ओर। आश्चर्य ! मुझे कोई सदमा नहीं लगा, न आखों में आँसू आए, न गला फाड़कर दहाड़े मारे। अब भले ही कह ले कोई मुझे पत्थरदिल। कहता भी कौन, अकेली थी उस वक्त अस्पताल में। गणेश चतुर्थी के दिन से वे आई सी यू में थे। पूरे दस दिनों से उन्हें अस्पताल की नारकीय पीड़ा भोगते देख रही थी। यद्यपि इससे पहले भी कई महीने और कई अस्पतालों के रंग-ढंग देख चुकी थी, पर इस बार मानों मेरी अग्निपरीक्षा चल रही थी। होम्योपैथी, आयुर्वैदिक, झाड-फूक, तेल-मालिश क्या-क्या कोशिशें न की थी इनके स्वास्थ्य के लिए किन्तु परिणाम वही ढाक के तीन पांत। मर्ज की पहचान डॉक्टरों की मर्जी (ज्ञान) अनुसार। विशेषज्ञों के पास ले जाने की तब न समझ थी न हैसियत। दर्द-नाशक दवाओं के सहारे भी कितने साल गुजारते। अंततः उसके भयंकर दुष्परिणाम आज उन्हें आई सी यू तक ले आई थी।

दुनिया भर के टेस्ट, एम आर आई और अस्पताल में भर्ती होने के नियमों को पूरा करने शहर के न जाने किन-किन कोनों की खाक हम दोनों ने अकेले ही छानी थी, बस इस उम्मीद के सहारे कि अब सब जरूर ठीक हो जाएगा। सरकारी अस्पतालों में तो मरीज केवल ऑब्जेक्ट बन जाता है, नौसिखिये डॉक्टरों की प्रयोगशाला में। 

और आज इनका सारा शरीर सुइयों और नलियों से बिंधा पड़ा था। मुझे दिन में दो बार केवल दस मिनिट के लिए उनसे मिलने की इजाजत मिली थी। उस दस मिनिट में हम दोनों मौन वार्तालाप में डूब जाते थे। शब्दों में सामर्थ्य कहाँ आँखों से बहती भावनाओं को पकड़ने काक्या होगा बच्चों की पढ़ाई का, कैसे पूरी हो पाएगी मेरी पी-एच डी, लंबी बीमारी ने सारा पैसा खा लिया है, मुझे कुछ हो गया तो … ये अनकही चिंताए मैं कई दिनों से इनकी आँखों में पढ़ रही थी।  इन दिनों हुई एक घटना की याद आज भी दिल दहला देती है।

शारीरिक तकलीफ़ों और भविष्य की चिंताओं के तनाव की छटपटाहट ने उन्हें बेकाबू कर दिया, बस पल भर में सारी सुइयां-नलियाँ खुद खींच कर निकाल फेंकी और लड़खड़ाते पैरों से खड़े होने की कोशिश करते धीमे स्वर से कहने लगे- ‘मुझे घर जाना है, अब जाने दो’। नर्स की चिल्लाने की आवाज़ सुन मैं घबरा कर भीतर आई। देखा, वह बुरी तरह डपटते हुए वार्ड-ब्वाय की मदद से उन्हें पलंग पर धकेल चुकी थी । उनके हाथ-पैर लहूलुहान हो गए थे। नर्स का क्रोध मुझ पर भी कम न बरसा। अस्पताल के बदमिजाज कर्मचारियों की बेरुखी सहने की अब तक आदत डाल ली थी मैंने, और कोई उपाय भी न था। मैं कोई वी आई पी या करोड़पति तो न थी जो कोई मेरी बात सुनता। काँपती खड़ी रह गई थी। 

इस घटना ने दर्द की असहनीय एक कड़ी और जोड़ दी। दुबारा ऐसा न हो इसलिए उनके हाथ-पैर पलंग के पायतानें से कसकर बांध दिये गए। उफ़ यह कैसी विवशता ? हम दोनों की सिसकियाँ कहीं आस-पास लाउडस्पीकर पर बज रहे भजन “गणपती बप्पा हर लो भक्तों की पीर, हर बरस आएंगे हम सागर के तीर” की धुन में खो गई। उस दिन से ईश्वर से निरंतर एक ही दुआ मांगी- हे प्रभु, अब बस!! या तो इन्हें बिलकुल ठीक कर दो या मुक्ति ही दे दो। इस पार या उस पार।कहते हैं सच्चे मन से की गई प्रार्थना कभी बेअसर नहीं होती। गणेश जी ने सुन ली मेरी प्रार्थना और अनंतचतुर्दशी अर्थात खुद की विदाई-बेला में इनको भी साथ ले लिया। 

रिश्तेदारों के एकत्रित होने और अस्पताल की औपचारिकता पूरी करने में समय तो लगना ही था। धीरे-धीरे लोग जमा हो गए। उनकी झूठी तसल्ली भरी बातें मेरे दिल को छलनी कर रही थी – अरे आपने मुझे क्यों नहीं बताया, मैं फलां को जानता हूँ, फंलाने तो मेरे चाचा हैं… कोई कह रहा था- अरे रुपयों की बात थी तो मुझसे कहा होता, मैं कर देता व्यवस्था… ।

जी चाह रहा था कि ज़ोर से चीखकर कहूँ इन पाखंडी हमदर्दो से- कहाँ थे वे सब अभी तक ? और अब यहाँ किसलिए आयें हैं ? मेरे भीतर उभर आई इनकी आवाज़- कहा था न, चार पैसे जेब में होंगे तो दुनिया अपनी वरना सगे भी अपने नहीं होते। बिलकुल सच कहा था…  निर्विकार सी मैं हाथ में न जाने कितने लाख का बिल लिए किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ी थी। निर्जीव काया को एयर कंडीशन रूम में रहने का कोई अधिकार नहीं। स्ट्रेचर बरामदे में धकेल दिया गया था। सब्र का बांध तब टूटा जब सामने बड़े बेटे को आते देखा। मँझले भाई कबसे बिल चुकाने और घर लौटने के लिए गाड़ी की व्यवस्था करने में जुटे थे।

नागपुर से भंडारा पहुंचने के लिए कोई साधन नहीं मिल रहा था। अनंतचतुर्दशी जो थी, कितने वाहन गणपती की विदाई में लगे थे। बहुत अनुरोध और अतिरिक्त खर्च देने की शर्त पर अस्पताल की ओर से एम्बुलेंस की व्यवस्था हो सकी। इसकी नीली पीली बत्ती और निरंतर ज़ोर से बजने वाला हार्न मेरी धड़कन को सुन्न करता चला जा रहा था। 

अद्भुत दृश्य था वह। यह कैसा खेल है नसीब का। अस्पताल से निकल कर कुछ दूर पहुंचे ही थे कि हमारी एम्बुलेंस भीड़ में फंस गई। आगे देखा तो एक ट्रक पर गणेश जी की विशाल मूर्ति पूरी सज-धज के साथ विसर्जन के लिए ले जाई जा रही थी। यह क्या पीछे भी लाइन से कई गाड़ियाँ जगमगाती रोशनी के साथ गणेश जी लिए चली आ रही है। आजू-बाज़ू कई हाथ-ठेलों में भी विराजमान गणेश मानों मुस्करा कर कह रहे थे- देखी है क्या कभी ऐसे धूमधाम से किसी की विदाई। एम्बुलेंस की लगातार बजने वाले हार्न की आवाज़ “गणपति बप्पा मोरया” की तेज धुन में कहीं दब कर रह गई थी। वाह मेरे गन्नू भैया, (गणेश जी के लिए मेरा यही सम्बोधन है) मान गयी तुम्हारी लीला।

मेरी प्रार्थना इतनी शिद्दत से सुनी तूने कि स्वयं आए अपने साथ इन्हें ले जाने के लिए और कदाचित मुझे यह समझाने के लिए भी कि जीवन के उत्सव का विसर्जन भी उतना ही उत्साहपूर्वक करना आवश्यक है जितना आगमन, ताकि आने वाले नए जीवन का पुनः नए उत्सव से स्वागत किया जा सके। प्रकृति का हर तत्व इसी सर्जन-विसर्जन के चक्र में ही तो चलता है। कितना मूढ़ होता है यह मन, लालची और स्वार्थी भी, जो सांसरिक सुखो के जाल में उलझकर सच्चाई को स्वीकार करने से इंकार करता है या शोक मनाता हुआ ईश्वर को कोसता है। 

अनंतचतुर्दशी हमेशा मुझे याद दिलाती है और प्रेरणा देती है- “ करतल ध्वनियों के बीच जीवन के एक अंक का पटाक्षेप उसके सफल मंचन का प्रमाण है, विसर्जन है पुराने पात्रों का, और आने वाला समय नए विश्वास के साथ नए सृजन का। स्थापना (आरंभ) से लेकर विसर्जन (अंत) तक हम इस जीवन-यात्रा को शुभ बना सकें, यही शुभकामना।

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