‘इस ज़िंदगी के उस पार’ कहानी संग्रह पढ़ने के उपरांत मन में अनेक प्रकार के भाव आना स्वाभाविक ही था। समाज दो लिंगों में विभक्त, उसकी ही चर्चा परिचर्चा, मान-सम्मान को देखना-परखना था। यह तीसरा जेंडर कहाँ, क्यों और कैसे? यह सोचने को मज़बूर होना पड़ा।

प्रवास के दौरान मुझे कई प्रवासी साहित्यकारों को पढ़ने और समझने का अवसर मिला है। ऐसे ही एक युवा कहानीकार राकेश शंकर भारती जो यूक्रेन में पिछले पाँच वर्षों से रह रहे हैं, उनका कहानी संग्रह ‘नीली आँखें पढ़ा और उसपर लिखा भी। अभी उनका नया कहानी संग्रह ‘इस ज़िंदगी के उस पार’ आया। किन्नर समाज से जुड़ी और समलैंगिकता से जुड़ी 11 कहानियों के इस संग्रह ने सचमुच में पढ़ने को विवश किया। किन्नर समाज के प्रति सामान्य सा मान या यूँ कहूँ कि थोड़ी बहुत जानकारी थी।
इस कहानी संग्रह ने इस समाज की दशा और दिशा के साथ थर्ड जेंडर के प्रति एक आत्मीयता भरा दर्दनाक भाव उत्पन्न कर दिया है। निश्चित तौर पर पहले भी इस समाज पर लिखा गया है, लेकिन कम। 2002 में नीरजा माधव का उपन्यास ‘यमदीप’ आया, उसके बाद सन 2010 में महेंद्र भीष्म के ‘किन्नर कथा, और ‘मैं पायल उपन्यास आये। प्रदीप सौरभ का तीसरी ताली और चित्रामुद्गल का पोस्ट बॉक्स नंबर 203 नाला सोपारा चर्चित हुए।
‘इस ज़िंदगी के उस पार’ कहानी संग्रह पढ़ने के उपरांत मन में अनेक प्रकार के भाव आना स्वाभाविक ही था। समाज दो लिंगों में विभक्त, उसकी ही चर्चा परिचर्चा, मान-सम्मान को देखना-परखना था। यह तीसरा जेंडर कहाँ, क्यों और कैसे? यह सोचने को मज़बूर होना पड़ा। यद्यपि आज समाज में सरकार द्वारा अनेक योजनाओं द्वारा अनेक अधिकारों और उनके लिए कई सराहनीय कार्य किये गये हैं।
समाज को आगे आने के लिए, नये तरीक़े से सोचने की दृष्टि के लिए यह कहानी संग्रह सीख देता है। लेखक का प्रवासी होना अलग बात है, लेकिन सेमिनारों और किन्नर समाज से जुड़ी ज़िंदगी को क़रीब से देखते जानते हुए, यथार्थ घटनाओं को कहानी का रूप देना उनके लेखन को दर्शाता है। किन्नर का होना अर्थात् गर्भ में ही लिंग या योनि का समुचित विकास न होना और योनि, लिंग विकसित न होने पर प्रजनन क्रिया को सार्थक ना बना पाना भी किन्नर कहलाता है।
समाज में इन्हें तिरस्कृत, अपमानित करने का कोई औचित्य नहीं है। यह समाज की अपनी बनायी पुरानी मर्यादाएँ और मान-सम्मान का रोना-धोना है, जो हमें इनके प्रति आत्मीयता से भरने नहीं देता है। इनका मात्र दोष यह है कि माँ के गर्भ में भ्रूण के विकास में कोई विकृति या क्रोमोसोमल डिसऑर्डर नहीं आती तो वह आज लड़कियों की तरह होती। भगवान ने एक लड़की बनने के लिए उसे हर चीज़ दी है, जो एक लड़की को चाहिए। बस एक कमी रह गयी। उसका गुप्ताँग सही से विकसित हो जाता तो वह आज अपने बच्चों को भी पैदा कर सकती थी। उसके शरीर में अंडाशय और गर्भाशय का भी सही से विकास नहीं हो सका, इसीलिए वह कभी भी गर्भवती नहीं बन सकती है। (पृष्ठ-16)
किन्नर समाज को अर्थात् किन्नर रूप में जन्मे बालक को माता-पिता, समाज ज़रूर त्याग देते हैं, लेकिन वह अपने समाज में जाकर अपने गुरु के सामीप्य में रहकर भी कई बार ख़बर मिलते, जानते हुए अपने भाई-बहन, माता-पिता की भी सेवा करते हैं। आज वैश्विक महामारी के समय में भी ये समाज जनसेवा में पीछे नहीं हैं। लेखक ने यही भाव इनकी ज़िंदगी में दिखाने का प्रयास किया है।
‘मेरे बलम चले गये’ कहानी सुशीला नामक किन्नर की है, जो दिल्ली के कटवरिया सराय में जन्मी। माता-पिता की बड़ी सन्तान और दो छोटे भाइयों बड़ी बहन कह सकते हैं। लीला की यह संतान अर्थात् सुशीला उसकी बेटी के गुप्ताँग का एक हिस्सा औरत का है तो बगल में ही उसे मर्द का अंडकोष भी है। (पृष्ठ 14) 
माँ लीला की शान यह बेटी समाज तानों-बानों से परेशान, बचपन के मित्र प्रदीप को भी छोड़कर दिल्ली के नाईटक्लब में नाच-गान कर जीवन आरंभ करती है। इस दौरान उसमें सुंदरता, जवानी देखकर उसके साथ कई लोगों ने हाथ बढ़ाया, लेकिन हिजड़ा सुनते ही भाग खड़े होते हैं। एक दिन अचानक बचपन का मित्र प्रदीप कार ड्राइवर उससे मिलता है। दोनों एक साथ प्रेम भरी बातें करते हैं। प्रदीप को जब पता चल जाता है कि सुशीला एक किन्नर है, तब भी वह सुशीला को प्यार करता है।
सुशीला प्रदीप से कहती है, “मेरे पास एक नया विचार है। बिलकुल आधुनिक विचार है। मैं अपनी सर्जरी करवा लूँगी, जिससे शारीरिक विकृति ख़त्म हो जायेगी। (पृष्ठ-20) प्रदीप अपने माता-पिता से सुशीला से शादी की बात करता है। उसकी बात ना मानते हुए उसका विवाह लता नामक लड़की से करवा दिया जाता है। प्रदीप सुशीला को न भूलने के कारण अपनी पत्नी लता के साथ कोई शारीरिक संबंध नहीं बनाता है। सुशीला भी प्रदीप से न मिल पाने के बाद अपने किन्नर समाज में गुरु के पास रहकर अपना जीवन व्यतीत करती है। 2012 ईस्वी की नववर्ष को अपने भगवान अरावन के मंदिर, जिसको किन्नरों का मक्का भी कहा जाता है, वहाँ जाती है। अपनी सहेली को अपनी जीवन-गाथा के बारे में यह कहती है कि मेरे बलम मुझे छोड़कर इस दुनिया से हमेशा के लिए चले गये। प्रदीप और सुशीला के समर्पित भाव पर समाज का दबाव हावी पड़ जाता है। चाहकर भी उन्हें अपना लक्ष्य नहीं मिल पाता है।
‘मेरी बेटी’ कहानी मोहिनी और देवव्रत के घर जन्मी जो बाद में डॉ. राधिका के नाम से जानी गयी किन्नर की कहानी है। रात्रि के समय जन्मी मुन्नी के शरीर को देखकर मोहिनी दुविधाग्रस्त हो गयी। वह उसे मुन्ना-मुन्नी क्या कहे। जब वह माँ के गर्भ में थी तो पहले उसके शरीर में पुरुष गुप्ताँग विकसित होने लगा। कुछ समय बाद पुरुष गुप्ताँग का विकास ठप हो गया और फौरन ही स्त्री जननाँग का विकास होने लगा। इस तरह से किसी जैविक कारण से और क्रोमोसोमल डिसऑर्डर की वजह से उसके शरीर में किसी एक लिंग की तरक्की नहीं हो सकी। (पृष्ठ-27) किन्नर-हिजड़ा का नोएडा में इस प्रकार जन्म लेना, 6 वर्ष में ही समाज के तानों और माता-पिता की दुत्कार से उसे नकली किन्नर गुरु के हाथ कुछ पैसे लेकर दे दिया जाता है।
सड़क पर, ट्रेन में भीख माँगकर हताश-निराश मुन्नी को डॉक्टर अरोड़ा के परिवार का सान्निध्य मिल जाता है। निःसंतान दंपति पढ़ा-लिखाकर उसे डॉ. राधिका बना देती है। वह अपनी लिंग संबंधी सर्जरी करवाकर डॉक्टर राज की महबूबा बन जाती है। एक दिन अचानक एक महिला को देखती है, जिसके साथ बिलखते उसका पति और लड़का हैं। इसे बचा लो, इसे बचा लो। डॉक्टर राधिका अर्थात मुन्नी अपनी माँ को पहचान लेती है और माँ भी बेटी को नाक के ऊपर लगी चोट के निशान पहचान लेती है। माँ बेटी को पुकारकर प्यार करती हुई दम तोड़ देती है। मुन्नी अपने माता-पिता और भाइयों के नामों को जीती रही- “बिना अपने जड़ के, बिना उसकी पहचान के कब मुझे ख़ुशी मिलेगी? कब मेरी आत्मा को शाँति मिलेगी? मैं आज भी अपने दिल के आंतरिक संसार में इन्हीं नामों के सहारे जी रही हूँ। (पृष्ठ 37) 
दयाबाई’ कहानी मेरठ के ब्राह्मण परिवार में जन्मी दया किन्नर की कहानी को दर्शाती है। ऐसे बच्चों के जन्म होते ही या फिर कुछ समय पश्चात उसे ऐसा व्यवहार मिलता है, जानवर भी अपने बच्चों के साथ ऐसा नहीं करता है। दया को अपने गुरु लक्ष्मी में अपने माता-पिता और सब कुछ नज़र आता है। लक्ष्मी द्वारा लायी गयी पिता द्वारा दी गयी दया का पालन-पोषण लक्ष्मी अपने गुरु यशोदाबाई के साथ मिलकर करती है। इनके समाज में गुरु का आदर-सम्मान, गुरु के प्रति समर्पण का पूरा भाव होता है। यह कहानी पढ़कर पता चलता है।
दिल से औरत होने के कारण उसकी ज़िंदगी में ढोलक बजाने वाला सुरेंद्र आता है। लेकिन माता-पिता द्वारा सुरेंद्र को ले जाकर उसका विवाह अन्यत्र किसी लड़की से करा दिया जाता है। दया के बार-बार पूछने-कहने पर लक्ष्मी उसे अपने माता-पिता, भाई से मेरठ में मिलवाती भी है। अमीरी और सोने से लदी दया को देखकर बड़ा भाई अपनी बेटी की शादी के लिए दो लाख रूपये माँगता है। वह भाई की बेटी को अपनी बेटी समझकर मदद भी करती है। लेकिन समाज के सामने दया के बारे में पूछे जाने पर उसके भाई नरेंद्र ने जवाब दिया, “गाज़ियाबाद का हिजड़ा है। आप लोगों के स्वागत में सट्टे पर नाचने के लिए यहाँ बुलाया गया है।“ (पृष्ठ-47) यह सुनते ही दया टूट जाती है। समाज की, अपनों की नीचता इससे बढ़कर और क्या हो सकती है?   
रक्तदान’ कहानी बल्लभगढ़ में जन्मे कमल और बिमल तीन बहनों के उपरांत ऐसे भाई थे, जिसमें बिमल किन्नर था। पुरुष देह और दिल औरत का “किसी औरत की तरह मेरे सीने पर दो स्तन निखर रहे हैं, इसे देखती हूँ तो ऐसा महसूस करती हूँ कि सचमुच भगवान ने मुझे औरत बनाकर भेजा है। (पृष्ठ-51) गुरु गीताबाई के पास रहकर सब कुछ मिला, परंतु अपनों से मिलने की चाहत बार-बार माता-पिता से मिलने को प्रेरित करती है। बचपन में आठ साल की उम्र में चार लोगों ने मेरे साथ बलात्कार किया। स्वयं घर छोड़कर गीताबाई के पास रहने के लिए आ गयी। अब बिमला कई एन. जी. ओ. में काम करती है। इसके अलावा थर्ड जेंडर से संबंधित सेमिनार में हिस्सा लेती हूँ। पिछली बार सर्वोत्तम उच्च न्यायालय से अपनी माँग भी मंगवा ली।“ (पृष्ठ-54)
ओ. माइनस ग्रुप (onegativebloodgroup) की बिमला अपने परिवार से मिलती भी है और भतीजे के बीमार पड़ने पर अपना रक्तदान करके उसे बचाती भी है, लेकिन उसकी भाभी बच्चे के ठीक होते ही, उसे ले जाकर घर के पिछवाड़े में बैठ जाती है। वह अपनी ननद बिमला से बच्चे को मिलवाना नहीं चाहती है। घर वाले भी यह कहते हैं कि जब दूसरी बार आओगी, तब मुलाक़ात होगी। ऐसा अमानवीयता और तिरस्कार देखकर बिमला रोती-विलापती चली जाती है।
  ‘रामवृक्ष दादा की याद में’ और सौतन कहानियाँ समलैंगिकता पर आधारित कहानियाँ हैं। पढ़ने पर ये कहानियाँ अश्लील सी लगती हैं, परंतु उन माता-पिता को सचेत करती हैं, जो अपने बच्चों पर ध्यान नहीं देते हैं, बचपन में वे कहाँ, किससे मिलते हैं। मुरली नामक युवा बचपन से अपने सबसे छोटे दादा रामवृक्ष के साथ उनकी हवस का शिकार होता है। वह उनसे उनके प्रति आकृष्ट हो जाता है।
दादा की मृत्यु के बाद अमरेंद्र और बाद में जसवीर के साथ संबंध बनाता है। शादीशुदा होने पर सुंदर रूपमती पत्नी और दो बच्चों के उपरांत भी उसे सुख का अनुभव मर्द के साथ ही होता है। लेखक ने यह कहानी मर्द के हारमोंस की कमी के कारण व्यक्ति मानव देह की व्यथा को मुरली के माध्यम से दर्शाया है। ‘सौतन’ कहानी में जे. एन. यू. के जैकी नामक युवक की कहानी है, जो मुनिरका के शैलेश नामक व्यक्ति का फ्लैट किराये पर लेता है और धीरे-धीरे शादीशुदा शैलेश अपनी पत्नी को छोड़ जैकी के साथ संबंध बनाता है और पत्नी को छोड़ जैकी के पास आसाम चला जाता है।
‘फ्रेंडरिक्वेस्ट’ कहानी ऐसे बुचरा किन्नर की है, जो योनि से स्त्री है, लेकिन गर्भवती नहीं हो सकती है। जसप्रीत नामक यह युवती देह रूप में स्त्री है, एम.ए. पढ़ी है और टैक्सी ड्राइवर हरविंदर सिंह से प्रेम करने लगती है। दोनों शादी के बंधन में बंध जाते हैं। कई वर्षों तक संतान पैदा न होने पर मैक्स हॉस्पिटल के डॉक्टर मेडिकल चेकअप के बाद बताते हैं कि जसप्रीत तुम किन्नर हो।
इतने सालों से आपको किसी ने नहीं बताया कि आप एक किन्नर हैं। जन्म के बाद पता लग जाना चाहिए था। आपके पेट में बच्चा दानी नहीं है। (पृष्ठ- 91) सबकुछ रहने के बावजूद ज़िंदगी वीरान थी। हरविंदर एक दिन जसप्रीत को छोड़कर चला जाता है। वह दूसरा विवाह करता है और दो बच्चों का पिता बनता है। जसप्रीत इधर स्कूल में शिक्षिका की नौकरी करने लगती है। फेसबुक की चैटिंग से बदली फेक आई. डी. के कारण जसप्रीत और हरविंदर फिर से मिल जाते हैं। हरविंदर की पत्नी दो बच्चों को छोड़कर गैर मर्द के साथ चली जाती है। जसप्रीत के साथ तीनों ख़ुशहाल जीवन जीने लगते हैं।
‘ट्रांसजेंडर’ कहानी में नकली गुरुओं और लालची कामी डॉक्टर के कारण सुरेंदर का लिंग कटवाकर सर्जरी द्वारा शालिनी बना देने की कहानी है। जयदेव को भी इसी तरह चाँदनी बनाकर बधिया कर दिया गया। गुदा-मैथुन की कामुकता, लोलुपता को दर्शाती डॉक्टर देवराज के कर्मों का फल उसके बेटे राधेश्याम को मिलता है। बेटा राधेश्याम भी समलैंगिकता का शिकार होकर चाँदनी के द्वारा बधिया करवा दिया जाता है। राधेश्याम के पिता देवराज ने ही चाँदनी को बधिया किया था।
बधिया’ कहानी भी यही मानसिकता दर्शाती है। जनार्दन और सुष्मिता के प्रेम को दर्शाती यह कहानी जनार्दन के किन्नर समुदाय में फँस जाने और झोला छाप डॉक्टर के साथ मिलकर अपने ही गुरु कौशल्या द्वारा बधिया करवाकर उसका जीवन ही बदल दिया। अंत में वह एक दिन सुष्मिता से मिलता है, जो अब विधवा है, पर अब जनार्दन मर्द नहीं रहा। सुष्मिता के साथ होने पर भी जनार्दन कैसे कहे कि अब वह रेगिस्तान की तरह वीरान बंजर बन चुका है।
‘तीन रंडियाँ’ कहानी अर्जुन किन्नर से बनी द्रोपदी की कहानी है, जो घर से दुत्कारा पुरुष देह में औरत दिल लेकर जन्मा। माता-पिता, दादा के दबाव में कैसे एक औरत की ज़िंदगी बर्बाद कर दे। घर से भागकर किन्नरों के समुदाय में रहकर हर काम करके, वहाँ से भागकर मुनिरका में नये ग्राहकों की तलाश में भटकती द्रोपदी की कहानी है। साथ में जिस्म फ़रोशी करने वाली संध्या और पारुल के साथ देवधर की ग्राहक की कहानी है।देवधर द्रोपदी के साथ संबंध रखता है, लेकिन एक दिन पारूल के साथ जिस्मानी रिश्ते क़ायम करने पर पारुल रंडी से उसकी एक लड़की जन्म लेती है। उस लड़की को देवधर की अमानत समझकर द्रोपदी उसे पालती है और विवाह करके उसे विदा करती है। एक किन्नर की मानवीयता का उत्कृष्ट उदाहरण है।
‘इस ज़िंदगी के उस पार इस कहानी संग्रह की सबसे लंबी कहानी है। देवरिया के नाचने और ढोलक बजाने वाले महेंद्रनाथ और विष्णु की कहानी है, जो नाच-बजाकर अपना पेट भरते हैं। आर्थिक भार के कारण गुड़गाँव में आकर देह-व्यापार भी करने लगते हैं। ऐसे में इनकी मुलाक़ात सुभद्रा नामक किन्नर से होती है, जो अपने समुदाय की गुरु रूपमती से मिलवाकर ढोलक बजाने और नाचने के लिए विष्णु और महेंद्रनाथ को रख लेते हैं। रूपमती विष्णु के साथ संबंध बनाकर रहती है और सुभद्रा महेंद्रनाथ के साथ। महेंद्र को अब अपने बच्चे और पत्नी की याद आती है और वह एक दिन सुभद्रा को छोड़कर चला जाता है। विष्णु अपनी पत्नी और बच्चे के ना होने की बात रूपमती को बता देता है। देवरिया अपनी माँ के पास रहने लगता है।
बनारस में एक महिला और एक बच्चे के साथ विष्णु को देखकर रूपमती बहुत ख़ुश होती है। उसे लगता है मानो कि उसका अपना ही बच्चा हो। उसकी आँखों से ख़ुशी के आँसू टपकने लगते हैं। (पृष्ठ-184) सुभद्रा किन्नर होने पर भी सारे भाई-बहनों में सबसे ज़्यादा पैसे कमाती है। अपने माता-पिता, भाई-बहन, भतीजे-भतीजी सबकी मदद करती है। (पृष्ठ- 173) निश्चित रूप से किन्नर समाज पर लिखा गया यह कहानी संग्रह संवेदना और शिल्प दोनों दृष्टि से उम्दा है। लेखक के पास भाषा की अच्छी पकड़ और किन्नर समुदाय की बारीकियाँ परखने की समझ भी है। लेखक का परिवेश जहाँ से वे शिक्षित हुए हैं, वहाँ इस विषय पर आये दिन सेमिनार होते रहते हैं। इस समुदाय की पीड़ा, वेदना, टीस को लेखक ने ना केवल स्वयं समझा है, पाठक को भी पढ़ने-समझने को मज़बूर किया है। यह विशेषता लेखक को एक पहचान, एक नाम अवश्य देगी। 
लेखक द्वरा किन्नर समाज पर लिखी गई कहानियों में किन्नर समाज की टीस संवेदना का वर्णन तो है। लेकिन किन्नर समाज द्वारा शुभ अवसरों पर गाए गये गीतों का वर्णन नहीं मिलता है। भारतीय समाज में इन्हें शुभ अवसर पर आशीर्वाद देते खूब देखा जाता है। लोग अपनी मर्जी से भी इन्हें सम्मानित करते हुए कुछ न कुछ देते हैं और ये लोग शुभ समझ कर दिल से भी दुआ देते हैं। लेखक की इन कहानियों में कहीं गीतों की संरचना आभाव नज़र आता है। कहानियों में किन्नर समाज की भाषा का प्रयोग भी देखने को कम मिलता है। हर कहानी में जिज्ञासा का भाव बना रहता है, साथ ही साथ किन्नर समाज की भाषा, क्रिया-कलापों के पीछे की पृष्ठभूमि भी समझ में आती है। किन्नर उपहास का पात्र बनते नज़र आते हैं, लेकिन उनकी पीड़ा को कोई नहीं समझता है। विश्व के लगभग सभी देशों में ऐसी ही हालत है। यही कारण है कि अब संवैधानिक रूप से उनके अधिकार दिलाने का प्रयास हो रहा है। साहित्यकार उन पर अब लिख रहे हैं।
मूल कृति- इस ज़िंदगी के उस पार, राकेश शंकर भारती, अमन प्रकाशन, कानपुर सन 2019

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