कोरोना वायरस कोविद-19 के फैलने के बाद से सोशल मीडिया पर हिन्दी में कविताओं की जैसे बाढ़ सी आ गयी। कुछ कविताएं स्तरीय थीं और कुछ सतही। पुरवाई पत्रिका की नियमित लेखिका रश्मि बजाज ने जब मुझे बताया कि वे पिछले चार महीने में कोरोना पर लिखी गयीं कविताओं पर एक गंभीर लेख लिख रही हैं तो एक संपादक के तौर पर मेरे लिये विशेष प्रसन्नता की बात थी कि कोरोना काल की कविताओं पर पहला गंभीर आलोचनात्मक लेख आपकी अपनी पुरवाई पत्रिका में प्रकाशित होने जा रहा है। आप भी पढ़िये और देखिये कि रश्मि ने कोरोना काल की अब तक लिखी गयी कविताओं को किस दृष्टिकोण से देखा है। (संपादक)
साहित्य मनुष्य के आंतरिक एवं बाह्य जगत की शब्दों में अभिव्यक्ति है जहां मनुष्य के भाव,विचार,संवेदनाएं एवं संवेग भाषायी अस्तित्व पाते हैं। महामारी और वैश्विक महामारी जैसी दुर्दांत त्रासदियाँ मानव – जगत को अत्यंत महत्वपूर्ण एवं निर्णायक रूप से प्रभावित करती हैं।प्राचीन काल से साहित्यकार इन त्रासदियों तथा इनके मनुष्य पर पड़ने वाले दूरगामी प्रभावों का वर्णन साहित्य की अनेक विधाओं विशेषकर उपन्यास एवं कविता में करते आए हैं ।कविता की विधा सघन अनुभूतियों एवं संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का एक अत्यंत प्रभावकारी माध्यम रही है।
वैश्विक कविता कोश में मृत्यु, बीमारी एवं पीड़ा से जन्म लेने वाली कविताएं विश्व की सर्वश्रेष्ठ कविताओं के रूप में सम्मिलित हैं।चेकोस्लोवाकियन कवि जारोस्लआव सेफर्ट ने अपनी कविता ‘द प्लेग कॉलम’ में कविता एवं त्रासदी के अंतरंग संबंध को दर्शाते हुए लिखा है: “कब्रों की ओलावृष्टि के बाद / खम्बा सीधा ऊंचा कर दिया गया /और चार वृद्ध कवि उस पर टेक लगाकर / अपनी किताबों के पृष्ठों पर अपनी सर्वश्रेष्ठ कविताएं लिखने लगे”।
हिंदी कवि का मानस प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा से भीतर तक आहत हुआ है तथा हिंदी में लिखी गई कविताओं के कलेवर में एक वृहद अंश प्रवासी मजदूरों से संबंधित संवेदनशील एवं मर्मभेदी कविताओं का है। इस समस्या के भावात्मक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पक्षों का चित्रण करती हुई ये रचनाएं अपने आप में अत्यंत सशक्त बन पड़ी हैं। प्रवासी मज़दूर और उनकी दुर्दशा हमारे समय में समाज की संवेदनहीनता एवं अमानवीयता का एक प्रमुख प्रतीक बन गई है।
प्राचीनतम पाश्चात्य कविता ,होमर की “इलियाड”, प्लेग के वर्णन के साथ प्रारंभ होती है। अंग्रेज़ी कविता में महामारी-विषयक कविताओं के तीन प्रमुख प्रकार दृष्टिगोचर होते हैं- १.प्लेग,हैज़ा ,फ्लू कविता;२.एड्ज़ एवं कैंसर-कविता तथा ३.करोना -कविता ।यहां यह तथ्य विचारणीय है कि रुग्णता का विषय भारतीय कविता विशेषकर हिंदी कविता के प्रमुख विषयवस्तु के रूप में कभी केंद्र में नहीं रहा है।
हमारी प्रथम माहमारी-विषयक चर्चित कवितायें रवींद्रनाथ टैगोर की ‘पुरातन भृत्य’एवं ‘शिशु’ चेचक तथा तपेदिक से मरने वाले एक सेवक एवं उनके अपने बच्चों की मृत्यु पर लिखी गयी रचनाएं हैं। “गंगा के पानी में इंसानी लाशें ही लाशें’’ देखते ,फ्लू में निज स्वजनों की मृत्यु का आघात झेलते कवि निराला द्वारा बेटी की याद में रचित कविता ‘सरोज-स्मृति’ हिंदी साहित्य की मर्मान्तक धरोहर है।
वैश्विक साहित्यिक परिदृश्य में यह करोना- काल एक अत्यंत विशिष्ट काल बनकर समक्ष आया है ।इस समय में जनसाधारण एवं लेखकों की कविता के प्रति अभिरूचि में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई है। लॉकडाउन, इंटरनेट ,सोशल मीडिया पर जनसक्रियता -सब मिलकर कविता के लिए मानो एक नया युग ले आए हैं ।
इंटरनेट मंचों पर कविता की ज्यों बाढ़ आई हुई है ।नामचीन कवियों से लेकर प्रथम-प्रयासी कवियों तक, कविता पूरे विश्व में, इस घोर त्रासदी से जूझने की सर्वाधिक लोकप्रिय साहित्यिक विधा बन कर उभरी है। कई ऑनलाइन संपादित एवं स्वतंत्र काव्य- संकलन प्रकाशित हो रहे हैं। कॅरोना- कालीन इस कविता के रचयिता एवं पाठक पर ‘कथार्सिज़’ के इतर अन्य प्रभाव भी दृष्टिगोचर हो रहे हैं।
हिंदी कवि का मानस प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा से भीतर तक आहत हुआ है तथा हिंदी में लिखी गई कविताओं के कलेवर में एक वृहद अंश प्रवासी मजदूरों से संबंधित संवेदनशील एवं मर्मभेदी कविताओं का है। इस समस्या के भावात्मक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पक्षों का चित्रण करती हुई ये रचनाएं अपने आप में अत्यंत सशक्त बन पड़ी हैं। प्रवासी मज़दूर और उनकी दुर्दशा हमारे समय में समाज की संवेदनहीनता एवं अमानवीयता का एक प्रमुख प्रतीक बन गई है।
संजय कुंदन की कविता ‘जा रहे हम’ में आत्मीयता की चाहत के भावात्मक पहलू का मार्मिक चित्रण हुआ है :”कोई रोकता तो रुक भी जाते/ बस दिखलाता आंख में थोड़ा पानी/ इतना ही कहता यह शहर तुम्हारा भी तो है /उन्होंने देखा भी नहीं पलट कर/ जिनके घरों की दीवारें हमने चमकाईं “।बेघर हुए इन बदकिस्मत इंसानों को तलाश है अपनेपन की : “जा रहे हम यह सोच कर कि हमारा एक घर था कभी/ कुछ तो कहीं बचा होगा उस ओर जो अपना जैसा लगेगा”। लीलाधर मंडलोई इस पीड़ादायक स्थिति की दारुणता का हृदयविदारक वर्णन करते हैं :”हम मरते मरते चल रहे हैं /हम चलते चलते मर रहे हैं/ हम ज़िंदा मुर्दे हैं /हम चल रहे हैं / हमें उम्मीद नहीं थी /गांव में जीने की पहले भी /हम वहीं मरने को चल रहे हैं ,अलविदा !”(अलविदा) ।
रश्मि भारद्वाज की कविताओं में मज़दूरों की ‘otherness’- दूसरेपन की पीड़ा अभिव्यक्त होती हैः “यह दूसरी दुनिया के लोग हैं /इनकी स्मृतियों में दर्ज है सिर्फ भूख की आवाज/ वर्तमान तलवों पर लिखा हुआ है/ भविष्य के नाम पर कंधों पर टंगा है एक बैग/ यह निर्भय चलते जा रहे हैं /क्योंकि इन्हें पता है यह किसी आपदा से नहीं मरेंगे/ मरेंगे एक अलग दुनिया में/ अपने घर की तलाश में/ यह एक दूसरी ही दुनिया के लोग “।(एक दूसरी दुनिया के लोग)
इस शोषण, अमानवीय व्यवहार-जन्य पीड़ा का सार्वभौमिकरण हो जाता है और भरत प्रसाद का आक्रोश फूट पड़ता है : “इस धरती पर /कहां नहीं है वुहान/कहां नहीं सजती है /हमारे टपकते खून मांस और कटी हुई हड्डियों की मंडियां/ किस देश के इंसानों की जीभ पर ज्वार की तरह नहीं चढ़ता मेरे ताजे खून का नशा?”(धरती पर कहां नहीं है वुहान) ।कवि-चेतना में यह त्रासदी देश-कालातीत है।नरेंद्र जैन एल्बर्ट कामू के ‘ओरान ‘से अपना तादात्म्य जोड़ते हैं: “ओरान/तुमने किया/भौगोलिक सीमाओं का अतिक्रमण/और यहां तक चले आये/जैसे ओरान मैं अक्सर तुम तक आता हूँ”।(ओरान)
नवल शुक्ल क्रुद्ध होकर सत्ता एवं व्यवस्था पर प्रश्न उठाते हैं: “करोड़ों लोगों का चुपचाप चलना /और करोड़ों लोगों का चुपचाप देखते रहना /किसके हक में है /यह सहज स्वीकार है या प्रतिरोध/ क्या किसी और अनहोनी का इंतज़ार है?”(क्या किसी और अनहोनी का इंतज़ार है) सुभाष राय कल्पना करते हैं उस क्रांति की जो इस पूरी क्रूर व्यवस्था को ध्वस्त कर नया सृजन करेगी: “आएगी कभी तो आएगी /छल की छाती पर लाखों पावों के/ समवेत धमक की तस्वीर/ समूची तस्वीर बदल /जाने की तस्वीर “(तस्वीरें)।
निरर्थकता -बोध एवं कुछ न कर पाने की असहायता का भाव बोधिसत्व को भीतर तक व्यथित करता है ,उद्विग्न कवि क्षुब्ध है:” इस जीवन से अच्छा था/ मैं पैदल गांव जा रहे किसी मजदूर के /नंगे पैरों का जूता हो जाता! /या मैं एक राह भटके यात्री की प्यास का पानी हो जाता / सड़क पर हुंकार हो जाता…किसी सरकार की चिता की लकड़ी हो जाता/धधक कर एक हाहाकार हो जाता”(इससे तो अच्छा था)।
कॅरोना-काल में हिंदी कवि के आहत मानस और व्यथित चित्त की अभिव्यक्ति कविता में नैराश्य, निषेध,अनास्था एवं आक्रोश के स्वर के रूप में हुई है किन्तु यह निस्संदेह एक ‘वेस्टलैंड’ नहीं है ।कवि ने विषम परिस्थिति के समक्ष समर्पण नहीं किया है,वह जुझारुपन के साथ इस से जूझता है।
Thanks for beautiful presentation of the article
to purvai editor and team.
A very beautiful analysis of Corona related poems! Congratulations Rashmi!!!
Ravinderjit di,thanks a lot for your appreciation.