• पीयूष कुमार द्विवेदी

मुलतः मध्यवर्ग के लेखक के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले श्री लाल शुक्ल उपन्यास ‘अज्ञातवास’ से भले ही हिन्दी उपन्यासकारों की श्रेणी में अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुके हो लेकिन उनका लेखकिय व्यक्तित्व, वास्तविक पहचान उनके व्यंग्य परक उपन्यास ‘रागदरबारी’ से ही बनती है। स्वतन्त्रता के पश्चात् लिखा गया उपन्यास ‘‘रागदरबारी’’ का प्रकाशन काल 1968 ई0 है। किसी कृति को सहित्य अकादमी जैसा पुरस्कार से नवाजा जाना ही इसकी प्रसिद्धी है। 1969 ई0 में ‘रागदरबारी’ को साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया। एक सुविज्ञात समीक्षक ने ‘रागदरबारी’ के विषय में कहा है कि ‘‘अपठित रह जाना ही इसकी नियति है।’’ ‘मधुरेश’ ने अपनी पुस्तक ‘‘हिन्दी उपन्यास के विकास’ में ‘रागदरबारी को चमत्कारी झोले’ नामक शब्द से सम्बोधित किया है। जिसमें लेखक रास्ता चलते सबकुछ उठाकर रखते चलने की छूट चाहता है। श्रीलाल शुक्ल के व्यंग्य में करुणा का तत्व लगभग नहीं के बराबर है। इसके बदले वे पैरोडी और कार्टून के अधिक निकट है।1
श्रीलाल शुक्ल का रागदरबारी उपन्यास स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद उत्पन्न समस्याओं का सही चित्र प्रस्तुत करता है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद हुई प्रगति तथा प्रगति के नारों से अप्रभावित नगर से कुछ दूर बसे गाँव या गाँवों की स्थिति का चित्र तथा उन तत्वों की खोज जो गाँवों को विकास की ओर ले जाने से रोक रहे हैं का लेखा जोखा प्रस्तुत करना इस उपन्यास का प्रमुख उद्देश्य है। शहर को किनारे छोड़ते ही दिखलाई पड़ने वाले ट्रक से उपन्यास का आरम्भ हुआ है। ट्रक को देखकर उपन्यासकार को यकीन हो जाता है कि इसका जन्म केवल सड़कों के साथ बलात्कार करने के लिए ही हुआ है। सूक्ष्मतातिसूक्ष्म महत्वहीन वस्तुओं तक का भी उल्लेख उपन्यास की यथार्थवादी शैली को द्योतित करता है। रंगनाथ की गाड़ी छूट गयी है और वह इसी ट्रक से 15 मील दूर स्थित शिवपाल गंज तक जाना चाहता है। रंगनाथ की भूदानी वेशभूषा की ओर ड्राइवर ने गौर से देखा और कुछ सोचकर अनुमति दे दी कि बैठ जाइए। शिरीमान जी अभी चलते हैं। ड्राइवर के बार-बार पूछने पर कि आप क्या कर रहे हैं, रंगनाथ का यह कहना कि ‘‘घास खोद रहा हूँ’’ जिसे अंग्रेजी में रिसर्च कहते हैं। ड्राइवर को भ्रम हो जाता है कि रंगनाथ सी0आई0डी0 में काम करता है, जिससे वह किसी हवालाती खून के बारे में पूछता है। इसी दौरान उपन्यासकार ट्रक के अनियंत्रित चालन और दुर्घटनाओं की संभावनाओं का चित्रण होता आया है। उपन्यास में बात अत्यन्त सहज भाव से आगे बढ़ती है। यश सिंह ड्राइवर को चेकिंग करने वाले चपरासीनुमा अफसर ने यह कहने पर माफ कर दिया कि- ‘‘कहाँ तक चालान कीजिएगा। एकाध गड़बड़ी हो तो चलान भी करे।’’ दूसरे सिपाही ने कहा- चार्ज शीट भरते-भरते सुबह हो जायेगा।2 इस स्थान पर नागरिकों (ड्राइवरों) की नियमोल्लंघन की प्रवृत्ति और अधिकारियों की दायित्वहीनता का उल्लेख है, जो प्रजातन्त्र का मेरुदण्ड है और यहाँ वही गायब है का यथार्थ चित्रण किया गया है।
दरबार की अवधारणा का सम्बन्ध इतिहास के किसी एक कालखण्ड की देन नहीं है। दरबारी एक प्रवृत्ति होती है। जो प्रत्येक कालखण्ड में अपने परिवर्तित स्वरूप में समाज में वर्तमान रहती है। अपनी दरबारी रौनक के साथ मध्यकालीन भारतीय दरबार समाप्त हुए और उनका स्थान अंग्रेजी शासकों के दरबारों ने लिया। स्वतन्त्र में अंग्रेजी दरबार नहीं रहे और सत्ता जनता के दरबार में आयी। प्रजातन्त्र प्रणाली में जिस प्रकार सत्ता का विकेन्द्रीकरण हुआ, उसी प्रकार दरबारी संस्कृति का भी अनेक रूपों में विकास हुआ। इतने प्रकार के दरबार अस्तित्व में आ गये हैं कि उन्हें सहज ही पहचान पाना कठिन हो गया है। इनके सामाजिक, प्रशासनिक, शैक्षणिक और धार्मिक इतने स्तर है कि उन्हंे दरबार की संज्ञा देना कठिन है पर उन दरबारी राग की ध्वनि स्पष्टतः सुनायी पड़ रही है। स्वतन्त्रतापूर्व के दरबारों की तो कोई अस्मिता भी थी पर स्वातन्त्रयोत्तर दरबारों की तो कोई अस्मिता ही नहीं रह गयी है। वे दरबारी राग अलापते हुए नंगानाच दिखला रहे हैं। उससे तो प्रजातन्त्र घृणा एवं उपेक्षा का विषय बनता जा रहा है। रागदरबारी उपन्यास में इसी वेदना का चित्रांकन हुआ है। इस उपन्यास में यद्यपि शहर के निकट एक गाँव शिवपालगंज की कहानी कही गयी है। शिवपालगंज का जैसा चित्र श्रीलाल शुक्ल ने प्रस्तुत किया है उसे देखकर स्वातन्त्रयोत्तर भारत के गाँवों का जो स्वरूप रेखांकित होता है वह चैकाने वाला तो है ही, भयावह भी है। गाँव के प्रवेश द्वार पर ये औरतें, जो कतार बाँधकर बैठी हुयी थीं। वे इत्मीनान से बातचीत करती हुई वायु-सेवन कर रही थीं और लगे हाथ मल-मूत्र का विसर्जन भी। सड़क के नीचे धूरे पटे पड़े थे। उनकी बदबू के बोझ से शाम की हवा किसी गर्भवती की तरह अलसायी हुई-सी चल रही थी। कुछ दूरी पर कुत्तों के भँूकने की आवाजे हुई। आँखों के आगे धुँए के जाल उड़ाते हुए नजर आये। इससे इन्कार नहीं हो सकता था कि वे किसी गाँव के पास आ गये थे। यही शिवपालगंज था।’’3 रागदरबारी शिवपालगंज का थाना दारोगा जी के साठ-गाँठ से जुआ खेलने का अड्डा बना हुआ था। साल में एक दिन कारगुजारी के लिए जुआरियों का चलान कर दिया जाता था और शेष दिन अवैध व्यापार तथा उसमें पुलिस की साझेदारी। दारोगा जी को जुआरी संघ का मैनेजिंग डाइरेक्टर कहना युक्तिसंगत ही होगा। असली मुल्जिम को छोड़ देना और उसके स्थान पर निर्दोष व्यक्तियों को सजा दिला देना पुलिस के बायें हाथ का खेल है।
रागदरबारी में वर्तमान शिक्षापद्धति को रास्ते में पड़ी कुतिया की संज्ञा दी गई है जिसे कोई भी लात मार सकता है। शिवपालगंज का इण्टर काॅलेज जिसका नाम छंगामल विद्यालय था। डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के छोड़े गए बंगले में और कभी दीवार पर पड़े छप्पर में चलता था जो देश के अधिकांश विद्यालयों का प्रतीक है। छंगामल कभी डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के चेयरमैन हुआ करते थे और उन्होंने फर्जी प्रस्ताव पास कराकर बंगले को स्कूल के लिए प्राप्त कर लिया था। इसके मोतीराम साइंस मास्टर का ध्यान आपेक्षिक घनत्व की ओर कम पर अपनी आटा चक्की की ओर अधिक था जब मोतीराम अपना घण्टा छोड़कर अपनी सेकेण्ड हैंड मशीन देखने चले गए तो प्रिंसिपल साहब ने मालवीय मास्टर को उनका घण्टा देख लेने को कहा जिस पर उनके यह कहने पर कि एक पीरियड में दो क्लास कैसे देखूँ? प्रिंसिपल ने उन पर खन्ना के साथ बैठने का आरोप लगाया और उपन्यास में खन्ना मास्टर का संदर्भ आकर जुड़ जाता है। शिवपालगंज का खाली कोठरी मौका देखकर जिसका इस्तेमाल नर-नारीगण कर लिया करते थे, इसी कारण काॅलेज के एक मास्टर ने उसका नाम प्रेम भवन रख दिया था। वैद्य जी इस काॅलेज के मैनेजर और को-आपरेटिव यूनियन के मैनेजिंग डाइरेक्टर थे। रूप्पन बाबू छात्र नेता जो पिछले तीन वर्षों से 10वीं कक्षा का ही शोभा बढ़ा रहे हैं वैद्य जी के यशस्वी पुत्र हैं जिनका आना-जाना थाना पर होता रहता है। वैद्य जी का बैठका असली शिवपालगंज में था और वे बह्मचर्य के नाश को सभी रोगों के मूल में मानते हैं। उन्होंने रंगनाथ को भी इसके लाभ बताए। रंगनाथ, रूप्पन का ममेरा भाई था और उनको थाने पर से लौटने पर पता लगा कि रंगनाथ शहर से ट्रक पर आए है और जिनसे ड्राइवर ने दो रूपये ऐंठ लिए हैं। सनीचर जिसका नाम मंगल था, वैद्य जी के यहाँ अण्डरवियर पहने बराबर बैठा रहता था, जो बद्री पहलवान को याद करता है। लंगड़ मुकदमेबाज को सनीचर भांग का गिलास देता है ओर प्रिंसिपल से भी पीने का आग्रह करता है। दरबारी संस्कृति के अनुसार भांग पीकर प्रिंसिपल का यह कहना उनकी स्वभावजन्य विवशता है कि सचमुच इसमें बड़े माल पड़े हैं। लंगड़ का नकल के लिए घर बार छोड़कर तहसील में जाना, प्रिंसिपल का स्कूल की राजनीति को लेकर आना तथा क्लर्क तक का मास्टर खन्ना को जूतियाने की धमकी देना आदि स्वतंत्र भारत मंे न्याय और शिक्षा संस्थाओं की दयनीय स्थिति का बोध कराता है।
शहरी रिक्सा वाला गवंई रिक्सा वाले को हिकारत की निगाह से देखता है। रिक्शा वाले को डाटते हुए बड़ी पहलवान ने कहा कि क्या ठाकुर साहब चिल्लाता है, मैं बामन हूँ। बद्री पहलवान की आटे की चक्की गाँव से 10 मील आगे लगी जिस पर रामदीन भीखम खेड़वी ने कविता लिखी-
‘‘क्या करिश्मा है ऐ रामदीन भीखम खेड़वी
खोलने कालेज चले आटे की चक्की खुल गई।’’4
लोग इसे काॅलेज के बजट से जोड़ के देखने लगे। रामदीन ने बद्री पहलवान का रिक्शा रोककर कहा कि मेरे घर डाकुओं की चिट्ठी रूप्पन ने ही भिजवाई थी। मेरे पास इसका सबूत है। रंगनाथ वैद्य जी के नुस्खे पर स्वास्थ्य सुधार के लिए रूप्पन के जिस कमरे में ठहरा था, वह अश्लील साहित्य से सुसज्जित था। इसी क्रम में उपन्यास में आए गाँव के लोगों और यहाँ तक कि चोरों-बदमाशों तक के संस्मरण उल्लेखनीय है।
सड़क के नजदीक होने के कारण शिवपालगंज में विकास भाषण देने के लिए अफसरों का आना, वैद्यजी का प्रचार-प्रसार को-आपरेटिव का गबन, रामस्वरूप सुपरवाइजर का मालिश कराना, लंगड़ की नकल का न मिलना, साहित्यकारों के नवीन शब्दों तथा काफी हाउसों में लगने वाले ठहाकों पर व्यंग्य, राधेलाल की भगाकर लाई औरत, प्रेमपत्र लिखने में लड़के का निकाला जाना और 25 हजार ईंट लेकर माफ कर देना, लड़के के पास से तमंचे के बरामद होने पर खन्ना का वाइस प्रिंसिपली के लिए दरख्वास्त का लिखाना और प्रिंसिपल का हर आदमी से खन्ना की शिकायत करना आदि ऐसे सन्दर्भ हैं जो स्वतन्त्र भारत के गाँवों के सामाजिक जीवन का पोल पट्टी खोलते है।
स्वतन्त्र भारत में जमींदारी उन्मूलन में पुरानी चली आ रही जमीदारियाँ तो समाप्त हो गयी पर शिक्षा संस्थाओं, को-आपरेटिव योजनाओ तथा ग्राम पंचायतो के रूप में नई-नई जमीदारियाँ पैदा हो गई और उन पर गोलबन्द, लठबन्द, दलाल तथा आर्थिक अपराधी, प्रभावशाली गवंई गुण्डे काबिज हो गये। उनके यहाँ उसी प्रकार स्वार्थियों एवं चापलूसो की बैठके होने लगी जिस प्रकार पूर्व के दरबारों में हुआ करती थी।
प्राईवेट माध्यमिक शिक्षा संस्थाओं की सबसे दयनीय स्थिति का चित्रण उपन्यास में किया गया है। स्कूलों की कार्यकारिणी समितियों के चुनाव को लेकर किस प्रकार की दलबन्दी हुआ करती थी और उनके तथा को-आपरेटिव समितियो के चुनाव में धांधली करने के लिए किस प्रकार के हथकण्डे अपनाये जाते थे, इसका अत्यन्त सजीव चित्र उपन्यास में मिल जाएगा। इस प्रकार रंगनाथ, रूप्पन, बद्री पहलवान, वैद्यजी, सनीचर, छोटे पहलवान, जोगनाथ, लंगड़ भीखम खेड़वी, प्रिंसिपल खन्ना, मालवीय और गयादीन आदि उपन्यास में आए ऐसे पात्र हैं जो आजाद भारत के गाँवों का भाग्य निर्मित कर रहे हैं। शिवपाल गंज और उसके आस-पास जुआ का अड्डा दारोगा जी और डकैतों की जाली चिट्ठी, बख्तावर सिंह का किस्सा, छंगामल विद्यालय का वातावरण, गाँव के सट्टे, मुकदमेबाजी, काॅलेज के पैसे से चक्की लगाना, नवयुवकों की साहित्यिक अभिसोच, विकास योजनायें, को-आपरेटिव काॅलेज में प्रेमपत्र, छोटे पहलवान के पिता का अपने पुत्र द्वारा ही पीटा जाना, गाँव की अदालत पंचायत, गयादीन के घर की चोरी और पुलिस गाँव सभा का चुनाव तथा गाँव में लगने वाला मेला आदि ‘रागदरबारी’ उपन्यास में आए ऐसे संदर्भ हैं, जो ग्रामीण अंचलों की सही तस्वीर पेश करते हैं। श्रीलाल शुक्ल के चित्रण में इतनी विश्वसनीयता और ताजगी है कि यह नहीं जान पड़ता कि ये चित्र केवल चित्रण के लिए चित्रित है बल्कि ऐसा जान पड़ता है कि वे अपने मूल रूप में कैमरे द्वारा लिए गए चित्र हैं। इस दृष्टि से यह हिन्दी का अनोखा आंचलिक उपन्यास है, जो अभी तक लक्ष्मण रेखा खींचने में समर्थ रहा है।
घटनाओं और विवरणों की दृष्टि से रागदरबारी उपन्यास जितना विश्वसनीय और स्वाभाविक बन पड़ा है, उतना ही विश्वसनीयता और सहजता उसकी भाषागत बुनावट में भी है। वातावरण के स्वाभाविक निर्माण में तो उपन्यासकार को आशातीत सफलता मिली है।
सूक्ष्मातातिसूक्ष्म घटनाओं और मनोवृत्तियों को चित्रित करने वाली शैली और भाषा के प्रयोग से भी उपन्यासकार ने परहेज नहीं किया है पर इतना अवश्य है कि उसने अश्लीलता के चित्रण का सायास प्रयास नहीं किया है बल्कि वह वर्णन क्रम में सहज ढंग से आकर प्रस्तुत हो गया है।
नवयुवक राधेलाल की भगाकर लायी गयी औरत को नवयुवक छेड़ते हैं। इस घटना की सूचना सनीचर ने रंगनाथ को दी और बतलाया की छेड़ने वाले छोकड़े बद्री पहलवान के अखाड़े के थे। आज बद्री पहलवान को-आपरेटिव गबन की मीटिंग में रूक गए हैं। गबन करने वाला फुटट्फैरी करताला- लासेबाज था जैसे आंचलिक शब्दों का प्रयोग और गालियों का प्रयोग उपन्यास में हुआ है। छोटे पहलवान का यह कहना- जिसकी दुम उठाकर देखो मादा नजर आता है। सच्ची बात ठोंस दूँगा तो कलेजे में कल्लायेगी।’’5 गबन हुआ और प्रस्वाव में सरकार से अनुदान की माँग की गई, यह है सरकारी समितियों का हाल और उनके संचालको की भाषा। पिता कुसहर को मारने पर जब लोग छोटे पहलवान को धिक्कारते हैं तो वह बेबाक ढंग से कहता है- ‘‘इसके मारे कहारिन ने घर में पानी भरना बंद कर दिया है और भी बताऊँ। अब क्या बताऊँ। कहते जीभ गंधाती है।’’6 बात यहाँ तक पहुँच चुकी है। गाँवों की संस्कृति का यदि समय रहते संस्कार नहीं किया गया तो गाँव नरक बन कर रह जाएँगे। इस प्रकार एक गाँव शिवपालगंज को केन्द्र में रखकर उपन्यासकार ने सम्पूर्ण भारत वर्ष के गाँवों की कहानी कह दी है।
रागदरबारी का अभिधात्मक अर्थ है दरबार का राग। ‘दरबार’ अपने आप में एक खास तरह की निरंकुशता तथा ऊँचाई तथा निचाई के स्तर को समेटे भारतीय प्रजातंत्र को मुँह चिढ़ाती, सच्चाई के रूप में जाना पहचाना शब्द है। समूचे मध्यकाल तथा पूर्व-मध्यकाल में जिस प्रकार निरंकुशता के प्रति जी हजूरी का भाव भारत ही क्या विश्व के अधिकांश देशों में देखने को मिल जाता है, संविधान का पवित्र भावना के ऊपर आज भी उसे हम कुंडली मारकर फन फैलायें पूरी प्राण-प्रतिष्ठा में मौजूद पाते हैं। दरबारी हाँ में हाँ मिलाने की संस्कृति के राग दरबारी के रूप में कलात्मक तथा घृणित सांस्कृतिक विकास के कटु अंकन के रूप में हम उपन्यास को आसानी से रेखांकित कर सकते हैं ‘‘आहा ग्राम्य जीवन भी क्या है’’ वाला देशी संस्कार। ग्राम देवता को नमस्कार करने वाली बात तो दूर उसके दर्शन तक इस उपन्यास में नहीं होते। गहरे स्तर पर जिनका गाढ़ा परिचय हमें मिलता है वे हैं- हर पीढ़ी के नपुंसकता। वास्तविकता यह है कि संभावना के नाम पर जिसकी पूँछ उठाई उसी को मादा पाया है। ‘‘मादा’’ होते जाने का भाव रागदरबारी के लिए उर्वर भूमि को ही सृजन नहीं करता, अपितु उसमें उचित खाद बीज के माध्यम से उसे अबाध विकास तथा बढ़ते हुए कुनबे को भी रेखांकित करता है। देशी मिठाइयों के संदर्भ में रचनाकार की की गई टिप्पणी ‘‘ये हमारे देशीकारीगरों के हस्त कौशल का उत्तम नमूना है… प्रजातंत्र और उससे जुड़ी योगक्षेम की भावनाओं के विदू्रप व्यवहारीकरण को पूरी स्पष्टता तथा मार्मिकता के साथ रेखांकित करता है। भारी भरकम आदर्शों तथा व्यवस्थाओं का जिस प्रकार गलत देशी करण हुआ है। वह उपन्यास में शिद्दत से उभारा गया है। वह हस्त कौशल, बूढे वैद्य जी के ब्रह्मचर्य का उपदेश तथा पुरुषत्व के रक्षक के रूप में सर्वोपरी समाज की बीमारी को घटने की जगह बढ़ाने वाले के रूप में स्थापित करता है। पूरा का पूरा गाँव वैद्य जी की दवा खाकर कहीं शनीचरा से सनीचर जी तो कहीं, बद्री पहलवान से बद्री बाबू, रूप्पन बाबू से विदू्रप तथा रंगनाथ से बेरंग हो जाता है। उपन्यास के तथाकथित सफल तथा विद्रोही पात्र या तो बद्री पहलवान के अथवा रूप्पन बाबू के पीछे खड़े होते नजर आते हैं जो कि घोषित रूप से वैद्यजी की संतान है और उनके वारिश।
गाँधी जी के उद्गार तथा नेहरू के संकल्प-हर आँखों के आँसू पोछने का व्यवहारिक रूप गाँव के स्तर पर जिस रूप में हम देखते हैं- उससे कोई आशाजनक पहलू नजर नहीं आता, दृष्टिगत होता है तो भयावहता का माहौल जिसमें आँसू पोछने की बात तो दूर उन्हें पूरी तरह से संवेदनहीन तथा नष्ट करने का माहौल नजर आता है। गाँव सिर्फ वहीं तक गाँव है जहाँ तक परवाना करने की जगह सड़क भले ही गई हो, पर परवाना करने वाली गठरियाँ ठेठ पाँव की ही है। विद्रूपता का तो आलम यहाँ तक है कि अंधेरे के झुट पुट में दैनिक क्रिया कर्म करने वाली भारतीय नारी जाति की गोपनीयता तथा लज्जा ट्रक के तेज प्रकाश में भी अपने को पूरी तरह निर्लज्ज साबित करने पर तुली पड़ी है। एक शब्द चित्र खड़ा कर उसी में एक या दो वाक्य व्यंग्य का भी जोड़ देना उपन्यासकार की मुख्य तकनीक है। इसी कारण इसकी रोचकता जितनी पाठ्य होने में है उतनी अभिनीत होने में नहीं। बनाया गया सीरियल इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। यही खूबी इसे उपन्यास परम्परा के ढाँचे से अलग करती है। समग्रतः रागदरबारी उपन्यास जहाँ आजादी के बाद के भारत की विदू्रपता को गहरे स्तर पर रेखांकित करता है वह इसे पूरी अर्थवत्ता में प्रस्तुत करने के लिए कारगर निश्चित पद्धति का अनुभव भी कराता है। अपने शिल्प और कथ्य की दृष्टि से अपने उपर्युक्त गुणों के कारण रागदरबारी एक विशेष उल्लेखनीय कलाकृति के रूप में प्रतिष्ठित है।
सन्दर्भ सूची –
हिन्दी उपन्यास का विकास, मधुरेश, पृ0 186
राग दरबारी, पृ0 9
वही, पृ0 10
वही, पृ0 45
वही, पृ0 71
वही, पृ0 64

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