पुरवाई के लिए साक्षात्कार श्रृंखला की तीसरी कड़ी में युवा लेखक/समीक्षक पीयूष द्विवेदी ने ‘आमचो बस्तर’. ‘मौन मगध में’, ‘लाल अंधेरा’ आदि दर्जन भर से अधिक चर्चित पुस्तकों के लेखक राजीव रंजन प्रसाद से उनके जीवन, रचनाकर्म व आगामी उपन्यास को लेकर बातचीत की है।
सवाल – अपनी जीवन-यात्रा के विषय में बताइये। दिव्यांगता की चुनौती से जूझते हुए सरकारी उपक्रम में वरिष्ठ प्रबंधक बनना और फिर लेखन की तरफ अग्रसर होना, ये सफर कितना कठिन और संघर्षपूर्ण रहा?
राजीव – दिव्यांगता मन की स्थिति है। मैंने अपनी कमी को ताकत बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। यह ठीक है कि खेलना-दौडना जैसी कतिपय गतिविधियाँ ठीक तरह से करना संभव नहीं। खेलने के लिये साथी न मिले तो पुस्तकें मित्र बन गईं। मैं अपनी कमियों से भरपूर लड़ा हूँ। देश भर में घूमा हूँ, वर्ष भर स्थान स्थान का भ्रमण करता हूँ। अब भी बस्तर अंचल के दुरूह पर्वतीय-पठारीय परिक्षेत्र पर शोध के लिये कई-कई सप्ताह के दौरे तय करता हूँ। हार न मानने की प्रवृत्ति ने ही मेरे कैरियर में ऊँचाई की दिशा तथा लेखन के सफर में यात्रा-जनित अनुभवों को सम्मिलित किया है।
सवाल – आपकी अधिकांश किताबें ऐतिहासिक और शोधपूर्ण विषयवस्तु पर आधारित हैं। ऐसे विषयों में रुचि का कोई विशेष कारण?
राजीव – छत्तीसगढ का जनजातीय बाहुल्य बस्तर क्षेत्र मेरे लेखन के केंद्र में रहा है। इस अंचल में नक्सलवाद के उद्भव के साथ होने वाले सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तनों पर मेरी निगाह वर्ष 2005 के पश्चात से आरम्भ हुए “सलवा जुडुम” आंदोलन के दौरान गयी थी। इसी क्षेत्र का निवासी होने के कारण अपनी लहु-लुहान भूमि के प्रति कर्तव्य महसूस हुआ कि वर्तमान परिस्थिति और पीड़ा को उचित शब्द प्रदान किये जायें। इसी के साथ मैंने शोध को अपने लेखन की बुनियाद बनाया। मैं वर्ष 1982 से ही कवितायें-कहानियाँ लिख रहा हूँ तथा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनका प्रकाशन तथा आकाशवाणी जगदलपुर से इनका प्रसारण होता रहा है। बस्तर अंचल पर शोध आधारित लेखन के आरम्भ के साथ ही मेरी इतिहास पर रुचि बढती चली गयी। किसी भी क्षेत्र को जानना समझना है तो अतीत से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। साहित्य अथवा साहित्यकार केवल किसी समयविशेष का दर्पण बन कर नहीं रह सकता। उसे अतीत की कसौटी पर ही वर्तमान की परख करनी होगी। यही कारण है कि धीरे-धीरे मेरा कार्य शोध आधारित और अनेक उपन्यास के कथानक इतिहास के केनवास पर रचे गये।
सवाल – पहली किताब ‘आमचो बस्तर’ से लेकर अंतिम प्रकाशित किताब ‘लाल अंधेरा’ तक एक लेखक के तौर पर अपने लेखन में किस तरह का विकास देखते हैं?
राजीव – आमचो बस्तर मेरी पहली प्रकाशित कृति है। इस उपन्यास से एक लेखक के रूप में मेरी पहचान बनी। मैंने पाठकों की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिये सतत श्रम किया है। जिन विषयों को मैंने चुना, वे परम्परागत से हट कर हैं, मेरा शोधक्षेत्र वस्तुत: युद्ध क्षेत्र है जहाँ काम करने, शोध करने में जान का खतरा भी अंतर्निहित है। इसके बाद भी मुझे अपनी कथावस्तु झकझोरती रहती है, मैं चुनौतियाँ स्वीकार करता हूँ और निरंतर जो देखा उस वास्तविकता को पूरी लेखकीय सच्चाई के साथ सामने रखता रहा हूँ। जनजातीय क्षेत्र की अपनी समृद्ध संस्कृति होती है जिसे समझ कर सामने लाना तो कार्य का एक हिस्सा भर है, परंतु वाम-उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में वैचारिक संघर्ष का भी धरातल बना होता है। वामपंथी लेखन कथित जनपक्षधरता का लबादा ओढ़े क्रूर माओवादियों के पक्ष में खड़ा दिखाई पड़ता है, ऐसे में मैं कह सकता हूँ कि मैंने लीक से हट कर लिखा है, आदिवासी समाज के पक्ष में अपने कथानक बुने हैं, मानव-अधिकार की वास्तविक परिभाषा क्या होनी चाहिये, इस दायरे को स्पष्ट करते हुए शहरी-माओवादियों को अपने लेखन से कटघरे में खड़ा करने का कार्य भी किया है। यह लम्बी लड़ाई है तथा इसे मैं आमचो बस्तर से आरम्भ करने के पश्चात “लाल अंधेरा” तक, लगातार लड़ रहा हूँ।
एक लेखक के रूप में मैंने विविधता भी अपने पाठकों को दी है। मेरे लिखे प्रमुख उपन्यास हैं – आमचो बस्तर, ढोलकल, बस्तर – 1857 तथा लाल अंधेरा। मेरी शोध आधारित कृतियाँ हैं – दंतक्षेत्र, बस्तर के जननायक, बस्तर-अनकही अनजानी कहानियाँ, तथा बस्तरनामा। मैंने यात्रा वृतांत भी लिखे हैं, जिनमें – मौन मगध मेंएवं मैं फिर लौटूंगा अश्वत्थामा चर्चित रहे हैं। तू मछली को नहीं जानती शीर्षक से मेरा काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ था। पर्यटन पर आधारित मेरी पुस्तक है – ‘बस्तर पर्यटन और सम्भावनायें’ । मेरा लिखा नाटक संकलन है – ‘खण्डहर’। इसके अतिरिक्त मैंने कृषि जैसे गंभीर विषय पर भी कलम चलाई है। वर्ष 2015 में मेरी पुस्तक प्रगतिशील कृषि के स्वर्णाक्षर – डॉ. नारायण चावड़ा प्रकाशित हुई थी जो कि एक कृषिवैज्ञानिक की जीवनी है। इस कृति का अंग्रेजी अनुवाद ‘A Man With Golden Seeds’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था।
सवाल – अब अश्वत्थामा को केंद्र में रखकर आपका एक वृहद् ऐतिहासिक उपन्यास आ रहा है, इसके विषय में कुछ बताइए।
राजीव – भारतीय इतिहास के साथ विचारधाराओं का बड़ा खेल हुआ है। सामाजिक दरारों को चौड़ा करने के लिये ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा गया है। मुझे लगता है कि जिस हथियार से विकृतिकरण हुआ है, वही माध्यम सुधारात्मक हो सकता है। कुछ समय पूर्व मेरी पदस्थापना खण्डवा के निकट इंदिरासागर परियोजना में थी। इसी दौरान मैं बुरहानपुर के निकट स्थित असीरगढ के किले को देखने के लिये गया, जिसके विषय में जनचर्चा है कि यहाँ आज भी अश्वत्थामा आते हैं, किले में अवस्थित शिवमंदिर में पूजा अर्चना करते हैं। इस जनश्रुति के कारण मेरे मन-मस्तिष्क में एक कथानक कुलबुलाने लगा। अगर मैं अश्वत्थामा को वास्तविक चरित्र मानता हूँ तो वह अकेला चरित्र होगा जो पाँच हजार वर्षों से धरती पर विचरण कर रहा है। मेरे उपन्यास में कतिपय परिस्थितियाँ ऐसी गढ़ी गयी हैं कि दिल्ली से कुछ इतिहास की छात्र-छात्रायें अपने अध्ययन दौरे के लिये किले में आये हैं। वे रात्रि को किले में रुक कर अश्वत्थामा के होने न होने का परीक्षण करने के लिये शिवमंदिर में रात्रि बिताने का निर्णय लेते हैं। उस रात वहाँ कुछ ऐसा घटनाक्रम होता है कि अश्वत्थामा छात्रों के समक्ष आ जाते हैं…..। कहानी का जो ट्रीटमेंट है वह अलग है। यहा तीन भाग में लिखा जाने वाला उपन्यास है जिसमें हर भाग इतिहास का एक कालखण्ड प्रस्तुत करता है अर्थात – प्राचीन भारत, मध्यकालीन भारत एवं आधुनिक भारत। इतिहास के इतने बडे कैनवास को सामने लाने के लिये मैंने महाभारत को आधार कथा के रूप में रखा है। जल्दी ही इस उपन्यास का पहला भाग पाठकों के लिये उपलब्ध होने जा रहा है।
सवाल – इसके रचनाकर्म के दौरान किस तरह की चुनौतियां आईं?
राजीव – मैं इतिहास का छात्र नहीं रहा हूँ। बस्तर पर शोध करते हुए मुझे इतिहास को आवश्यक रूप से अपने अध्ययन का भाग बनाना पड़ा और यहीं से मेरा अतीत का अध्ययन आरम्भ हुआ। इस वृहद विषय में जितना भीतर उतरों, सोच के उतने वातायन खुलते जाते हैं। यह उपन्यास गहन अध्ययन की मांग करता रहा, एक-एक पृष्ठ बीसियों पुस्तकों के सैकड़ों पन्नों को पढ़ जाने के पश्चात लिख सका हूँ। अपने दृष्टिकोण को इतिहास के तथ्यों के साथ जोड़ कर लिखना अधिक जिम्मेदारी का कार्य है। आपको ध्यान रखना पड़ता है कि आपके पात्र देश, काल और परिस्थिति का उसी तरह पुनर्निर्माण करें, जैसा वे उस दौर में रहे होंगे। आपको अपनी निजी सोच के बंधनों और विचारधारा के दायरों से उपर उठ कर सोचना आवश्यक है, अगर इस विषय पर लिखा जाना है। अब मेरे पाठक ही बता सकेंगे कि क्या मैंने इस विषयवस्तु से न्याय किया है अथवा नहीं।
सवाल – हिंदी साहित्य के वर्तमान परिदृश्य पर आपकी क्या राय है? इसका क्या भविष्य देखते हैं आप?
राजीव – हिंदी साहित्य बदलाव के दौर से गुजर रहा है। यह युग परिवर्तन है। बासी विषयों, नकली क्रांतियों और सांचों में ढली कहानी-कविताओं की बोझिलताओं का युग बीत रहा है। नये विषयों, वास्तविक विमर्शों और अपने समय की जटिलताओं को पूरी नग्नता के साथ नये समय का लेखक अपनी रचनाओं में ले कर प्रस्तुत होने लगा है। अंग्रेजी में इस समय को “ट्रांजीशन फेज” कहते हैं, जिसमें पुरातन अपनी प्रतिस्थापनाओं के टूटने पर नये लेखन को दोष देते हुए उसे नकारता जाता है, परंतु नदी अपना रास्ता बनाती चलती है। वर्तमान लेखन में जिस तरह के प्रयोग हो रहे हैं, वे पाठकों से स्वयं को जोड़ने की सकारात्मक दिशा भी तय करने लगे हैं। मुझे भविष्य उज्ज्वल दीख पड़ता है।
सवाल – साहित्य की भाषा को लेकर इन दिनों बहस प्रबल है। कुछ नए लेखकों द्वारा अंग्रेजी शब्दों का लेखन में न केवल अंधाधुंध प्रयोग किया जा रहा बल्कि इसे सही साबित करने की भी कोशिश हो रही है। इस विषय में आपकी क्या राय है? हिंदी साहित्य का भाषिक स्वरूप कैसा होना चाहिए?
राजीव – जैसा कि मैंने पिछले प्रश्न के उत्तर मे कहा है, वर्तमान समय साहित्यिक परिवेश के ट्रांजीशन का है। ऐसे समय में अनेक तरह के प्रयोग किये जायेंगे, पाठक उन्हें स्वीकारेंगे अथवा नकारेंगे। अंग्रेजी शब्दों का चलन बढ़ा है। अनेक बार यह प्रयोग इतना अधिक हो जाता है कि पढ़ते हुए अटपटा लगता है। जो अटपटा लगता है, वह पढ़ा नहीं जाता, स्वत: अस्वीकार हो जाता है। यह ठीक है कि एक जीवित भाषा अनेक भाषा के शब्दों को आत्मसात करती हुई चलती है। हिंदी को जीवित भाषा बनाये रखना है तो हमें केवल अंग्रेजी ही नहीं अपितु अनेक देशी भाषाओं के शब्दों को भी अपनाना होगा। साहित्यकार को सजग हो कर शब्दों का चयन और प्रयोग करना चाहिये। जबरदस्ती के अंग्रेजी शब्द-प्रयोग आपकी भाषा को आधुनिक नहीं अपितु फूहड़ बनाते हैं।
सवाल – हिंदी साहित्य पर एक समय के बाद से एक ख़ास विचारधारा का वर्चस्व रहा है। साहित्यकारों की साहित्यिक चेतना पर विचारधारा हावी रही, बहुधा अब भी है। आपकी दृष्टि में इस स्थिति ने साहित्य का कितना और कैसा नुकसान किया है?
राजीव – आपका इशारा साहित्य में वामपंथी खेमेबाजी की ओर है। आपका प्रश्न सही है और राहत ही बात है कि यह वर्चस्व टूट रहा है। अगर लेखक संघ यह तय करने लगेंगे कि क्या और कैसा साहित्य रचा जाना चाहिये तो हिंदी की वही दुर्दशा होगी, जो पिछले दो दशकों का सच है। किसान-मजदूर के नाम पर जो कुछ और जितना कुछ लिखा गया उसे पढ़ने के लिये वही वर्ग तैयार नहीं जिसे सर्वहारा कहा जाता है। एक बात स्पष्ट कहना चाहता हूँ कि “जनपक्षधरता” शब्द पर वामपंथी विचारधारा की ठेकेदारी को समाप्त मानिये। जो भी साहित्यकार है, वह संवेदनशील होता है, जनपक्षीय ही होता है। पार्टीलाईन पर लिखना राजनीति है, साहित्यसर्जना नहीं। थोड़ी पुरानी बात है, वेब पत्रिका साहित्यशिल्पी के एक अंक में प्रकाशित मेरे एक आलेख पर एक महान वामपंथी साहित्यकार (नाम जाने दीजिये, विषयवस्तु महत्वपूर्ण है) भड़क गये। उन्होने बेहतरीन असंसदीय गालियों के साथ अपना पूरा बायोडाटा सुनाते हुए मुझे गिनाया कि वे किन-किन पत्रिकाओं में प्रकाशित होते हैं, इसलिये महान साहित्यकार हैं, किन किन लेखक संघों के साथ हैं, इसलिये महान साहित्यकार हैं तथा किन-किन संस्थाओं से सम्मानित हुए हैं इसलिये महान साहित्यकार हैं। मैंने उन सभी पत्रिकाओं, साहित्यिक संघों तथा संस्थाओं से अस्पृश्यता बरती है, तथापि सुकून है कि पाठकों ने मुझे कभी निराश नहीं किया है।
सवाल – वो लेखक/लेखिका जिनका लेखन आपको प्रभावित करता है?
राजीव – मुझे नयापन प्रभावित करता है, इसलिये नये दौर के अनेक लेखक-लेखिकाओं ने प्रभावित किया है। मनीषा कुलश्रेष्ठ जी की स्वप्नप्राश पढने के पश्चात कई दिनों तक असहजता रही थी; वे ऐसा रच रही हैं, जैसा लिखना किसी का भी सपना हो सकता है। केवल कृष्ण की किस्सागोई अनूठी है। भगवंत अनमोल ने हाल में चुनौतीपूर्ण विषयों को उठाया है जो प्रभावित करते हैं।आशीष त्रिपाठी जैसे लेखक हैं, जिनकी पहली किताब ‘पतरकी’ ने ही हलचल मचा दी है।….। यह सूची लम्बी है। मैं कहना चाहता हूँ कि विचारधाराओं के मकड़जाल से बाहर निकल कर अब उन रचनाकारों को पढ़ने और तवज्जों देने का समय आ गया है जिन्हें जान-बूझ कर उपेक्षित किया गया है।