प्रवासी साहित्यकारों की साहित्यिक साधना, उनके संघर्ष, सुदूर देश में भी भारत की मिट्टी के प्रति उनका लगाव और हिन्दी भाषा और साहित्य की समृद्धि हेतु इनकी अनवरत सृजनशीलता ने आज हिन्दी साहित्य-जगत में विशिष्ट स्थान अर्जित किया है । उषा राजे सक्सेना ब्रिटेन की चर्चित साहित्यकार हैं। अब तक आपके कई कविता संग्रह,कहानी संग्रह और संपादित पुस्तक प्रकाशन में आ चुके हैं। मेधा बुक्स, दिल्ली द्वारा प्रकाशित “मिट्टी की सुगंध – भाग 2” आपकी अद्यतन  संपादित कहानी संग्रह है जिसमें ब्रिटेन के हिन्दी  साहित्यकारों की कुल चौबीस कहानियाँ संकलित हैं। 
ये कहानियां कथा-वस्तु की दृष्टि से वैविध्य पूर्ण हैं। प्रत्येक कहानीकार ने जिस प्रकार कहानी में कथावस्तु, पात्र,स्थिति, परिवेश को गठित किया है वह सहज ही पाठकवर्ग को एक सूत्र में आबद्ध रखने में सक्षम हैं। विदेश में रहकर अपने देश की मिट्टी से जुड़े रहना और यहाँ की संस्कृति की खुशबू को एक अलग जमीन पर बिखेरना स्तुत्य कार्य है। 
संकलित कहानियों में विदेश की आबो-हवा में मिश्रित भारतीयों की खुशी भी है तो पराये देश में एकाकीपन से जूझते कुंठित मन भी हैं। यहीं अपने संस्कारों और प्रथाओं, रस्मो–रिवाजों को अनुसरित करते सहृदयी पात्र भी हैं तथा भारतीय संस्कृति को विस्मृत करते पाश्चात्य सभ्यता में रंगे हुए लोग भी हैं। स्त्री का शोषण है तो कहीं गृहणियों की विवशता और निरीहता भी है। 
‘स्वर्ण लंका’ कहानी में कादम्बरी मेहरा जी ने कुशल गृहणी ‘शांता’ और ‘अर्चना’ की व्यथा को जिस संजीदगी से गूँथा है वह एक तरफ तो पाठक को द्रवीभूत कर देता है दूसरी ओर पुरुषों की मानसिकता के प्रति आक्रोशित करता है । कादंबरी जी ने इस कहानी में एक साथ कई पहलुओं को उद्घाटित किया है यथा- धर्म परायणता के बोझ को ढोती भारतीय स्त्री, उन्मुक्तता की तलाश में कुढ़ती नारी, सम्बन्धों को सँजोकर रखने वाली गृहणी और वासना की पूर्ति हेतु, सीमा का उल्लंघन करने के बावजूद आदर्श कहलाने वाले पुरुष। 
दूसरी ओर लंदन के परिवेश पर लिखी गई ‘वह रात’ कहानी की ‘अंजला मैकाफ़ी’ है जो दो पुरुषों की ब्याहता होने पर चार बच्चों की परवरिश अकेले करती है। दोनों पतियों से परित्यक्ता अंजला यद्यपि अवैध कार्य करके अपना और बच्चों का पालन-पोषण करती है परंतु यह अवैध कार्य उसकी कामुकता या वासना नहीं अपितु उसकी गरीबी की विवशता है जो रात भर मासूम बच्चों को अकेले छोड़कर धनोपार्जन की जुगाढ़ में अपने देह का प्रतिदिन निर्यात करती है। 
उषा राजे सक्सेना जी ने जिस सूक्ष्मता से अंजला के कर्म और दायित्व का गठन किया है वह उसके लिए सम्मानप्रद ही है। उसकी बड़ी बेटी अनीता और बेटा मार्क उसके बारे में थोड़ा बहुत जानते हैं और अबोध बच्चे अपनी माँ का समर्थन करते हैं। “ममी ज़्यादातर पड़ोसियों की तानेबाजी और चुगलियों से बचने के लिए  पिछले दरवाजे से ही बाहर जाना पसंद करती हैं। कल रात भी वह पिछले दरवाजे से ही पड़ोसियों से छुप-छुपाकर गई होगी। एक बार पड़ोसी कैरोलाइन ने ममी को बाहर जाते देखकर पुलिस को फोन कर दिया कि घर नंबर 65 में बच्चे अकेले हैं। पुलिस हम सबको अपने साथ ले जाने ही वाली थी कि मम वापस घर आ गईं। बाद में अनीता ने मुझे बताया कि उसने पुलिस गाड़ी देखते ही ममी को मोबाइल पर फोन करके बता दिया था और ममी ठीक समय पर पिछवाड़े के दरवाजे से घर आ गई। पड़ोसियों को मुह की खानी पड़ी।” 
जबकि ‘मारिया’ कहानी की माँ – बेटी ‘मारिया’ और ‘मार्था’ भी एक ही पुरुष के पाशविक कामुकता की शिकार होती हैं परंतु दर्द का घूंट पीकर रह जाती हैं । लेखिका जाकिया जुबेरी ने दोनों के दर्द और व्यथा को अभिव्यक्ति तो दी है परंतु दर्द से विमुक्ति का मार्ग नहीं दिखाया है। “भाई हो, बाप हो, पति हो या प्रेमी, नारी तो एक माँ होती है।”
जिस निश्छल स्त्री की छवि जाकिया जी ने खींची है, आज का समाज उसके योग्य नहीं है । अपने ही प्रेमी के हाथों बेटी का शोषण होते देखना और असमय गर्भवती बेटी का गर्भपात कराना जो कि हत्या है यह किसी भी माँ के लिए अति दुखदायी स्थिति है। मारिया जिस पुरुष पर अपरिमित प्रेम उड़ेलती है, उससे अगाध स्नेह रखती है वही कायर और कामुक पुरुष अपनी पुत्री का यौन शोषण करता है । यह अंश पढ़कर मन बहुत समय तक मंथन करता है कि आखिर समाज किस रास्ते जा रहा है? क्यों स्त्री मौन रह जाती है? क्यों नहीं अपने अधिकारों के प्रति सजग होकर प्रतिरोध करती है? क्यों निरीह,असहाय,बेबस और लाचार बन जाती है? इन समस्याओं का अंत कब और किस रूप में होगा यह कह पाना अति मुश्किल है? अगर स्त्री अपना एक स्थान बनाना चाहती है तो उसे बाहर की दुनिया का सामना कम और परिवार में अधिक कष्ट उठाना पड़ता है। बहुत ही कम स्थिति ऐसी बनती है कि जब स्त्री की भावनाओं का सम्मान करने और उसकी उड़ान में मदद देने वाले पति और परिवार उसको सहयोग देते हों। 
‘उसका घर’ कहानी में प्रेरणा के जीवन की इसी विडम्बना को दर्शाया गया है। लेखन उसकी तपस्या है, शौक है, भावभिव्यक्ति का माध्यम है परंतु पति सुरेश को उसकी कविताओं में अनजान प्रेमी की झलक दिखाई पड़ती है जिसके चलते वह पत्नी को उपेक्षित करता है और उसे हेय दृष्टि से देखता है। पत्नी के मृत्योपरांत उसकी लेखन संपदा को जो पच्चीस वर्षों का श्रम था बिना सँजोए चैरिटी में देने के लिए तैयार होता है। उसका मानना है कि – “मेरे सामने उसे लिखने की इजाजत ही कहाँ थी । मुझे बच्चों की माँ और पत्नी चाहिए थी,लेखिका नहीं। अपने घर में मुझे कविताओं के माध्यम से प्रेम का इजहार नहीं चाहिए था।” 
लेखिका अरुण सब्बरवाल ने इन पंक्तियों में एक संकीर्ण मानसिकता वाले पुरुष के दंभ को प्रस्तुत किया है जिसे पत्नी की रूप में शायद नौकरानी की चाह थी। पत्नी, पति का घर बसाने के लिए  अपनी निजी जिंदगी की आहुति दे दे और उसके बताए मार्ग का अनुसरण करे वह भी बिना अपनी इच्छा को व्यक्त किए तब तो वह संस्कारी यदि इसके विपरीत हो तो वह कदाचारी। साहित्यकार जो समाज का पथ प्रदर्शक होता है वह अपने ही परिधि में कितना कुंठित व शोषित है इसकी कल्पना भी द्रवीभूत करती है। प्रेरणा के लेखन का सम्मान उसके अपने ही घर में नहीं है। जो  उसका सम्मान करता है उस व्यक्ति को अश्लील दृष्टि से देखा जाता है। 
‘मिट्टी की सुगंध – भाग 2’ कहानी संग्रह की एक विशेषता यह भी है कि कहानियाँ एक विशेष संदर्भ को प्रस्तुत करती हैं और संदेशात्मक भी हैं। 
उदाहरणार्थ  ‘तिरस्कार’ कहानी में पदमेश गुप्त जी ने भारतीय मूल की  एक  ऐसी लड़की  का विवेचन किया है जो अहंकार के चलते रंगभेद की समस्या से ग्रसित होती है और निराशा और कुंठा का शिकार हो जाती है। बचपन से अपने घर की लाड़ली सिमरन अपने रूप और सौंदर्य पर इतराती है तथा अपनी छोटी बहन राखी के साँवले  रूप का उपहास लेती है और तिरस्कार भी करती है । उसे अपने इस बर्ताव का आभास  तब होता है जब वह रॉबर्ट नाम के अंग्रेज़ से विवाह कर लंदन जाती है और उसे अपने रंग को लेकर शर्मिंदगी उठानी पड़ती है। “सिमरन का कुछ लोगों से संवाद शुरू कराने के लिए रॉबर्ट बोला, फ्रेंड्स आप लोगों को सिमरन की ड्रेस कैसी लगी? “मैंने दिलाई है उसे।” 
इतने में पीछे से रॉबर्ट की माँ बोलीं, “और कौन हो सकता है, हम सब जानते हैं कि तुम्हें ब्राउन कलर से कितना प्यार है… इसीलिए तो तुम भारत से भूरी बीवी लेकर आए हो।” सिमरन को इन बातों से कष्ट पहुंचता। “बचपन से भारत में राजकुमारी कही जाने वाली सिमरन इंग्लैंड आकार पाकी हो गई । वह रॉबर्ट के साथ बाहर पार्टियों में जाने से कतराने लगी।” इक्कीसवीं शताब्दी के इस दौर में भी अब तक अमेरिका और यूरोपीय देशों में रंगभेद,नस्ल और अश्वेत  समस्या की विषाक्त जड़ें अपना स्थान सुरक्षित किए हुए हैं। 
कृष्ण कुमार जी ने अपनी कहानी ‘नो डेड मिलनी प्लीज़’ में लंदन की धरती पर भारतीय संस्कृति के रस्मों – रिवाजों को लेकर तथा रूढ़िवादिता का खंडन नए ढंग से किया है। पुत्री सोनल के विवाह में उनके समधी रिश्तेदारों से मिलवाकर मिलनी का रुपया लेते हैं और सोनल के पिता सहर्ष सम्मान सहित सबको देते भी हैं परंतु अतिशयता  तब हो गई  जब वर पक्ष के लोग अपने पूर्वजों के नाम का भी मिलनी मांगने लगे। जो सामने हमारी आँखों के प्रत्यक्ष है उनका सम्मान करना जायज है परंतु धन की लोलुपता हेतु मृतकों के भी पैसे लेना यह अनुचित है। कृष्ण कुमार जी ने इस कहानी में बड़ी सरलता से एक गंभीर मुद्दे को उठाया और उसका अंत भी कराया है। 
निष्कर्षत:  स्पष्ट  है कि ‘मिट्टी की सुगंध’ की सभी कहानियाँ भारतीय संस्कृति, परंपरा, धर्म और अपनी मूल अस्मिता को सँजोये हुये हैं। इनमें संवेदना रूपी पूंजी भी है और पाश्चात्य देशों का सौंदर्य भी।  कहानी के पात्रों में परिवेश में ढलने की सहजता भी है और अपनी जड़ों को मजबूती से पकड़े रहने की दृढ़ता भी है। परिवेश का गठन इस प्रकार हुआ है कि पाठक वातावरण में आसानी से  रम जाता है और आगे के पड़ाव को जानने की उसकी जिज्ञासा बढ़ती ही जाती है। कहा जा सकता है कि विदेश की धरती पर प्रवासी साहित्यकार जिस प्रकार देश की सांस्कृतिक सुगंध बिखेर रहे हैं वह अभिनंदनीय है। उषा राजे सक्सेना जी द्वारा संपादित यह पुस्तक ब्रिटेन की धरती पर रचे जा रहे हिन्दी कहानियों को और अधिक समझने का एक सशक्त माध्यम है।

डॉ. अनुपमा तिवारी, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिंदी, अलायंस विश्वविद्यालय, बंगलूरी, कर्नाटक, (भारत)
फ़ोनः 88869995593 / 8142623426
ई-मेलः anutosh.tiwari82@gmail.com       

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