समीक्षक : डॉ जीतेंद्र जीतू
शोभा स्वप्निल से मेरी प्रथम भेंट नजीबाबाद आकाशवाणी केंद्र पर करीब बीस साल पहले हुई थी। हम शायद एक काव्य गोष्ठी में सम्मिलित होने पहुंचे थे। मुझे अब स्मरण नहीं कि उनकी पहली किताब जो स्वप्नों पर थी, तब तक आ चुकी थी अथवा नहीं। फिलहाल मैं जिस किताब की चर्चा करने जा रहा हूँ वह उनका कविता संग्रह है जो हाल ही में प्रकाशित हुआ है और जो उन्होंने मुझे मुम्बई से भेजा है।
एक कवियत्री होने के नाते शोभा का मन कविता में ही सोचता है। उनके पास संवेदना का अथाह समंदर है जो उनके घर के पास के समंदर से होड़ लेता प्रतीत होता है। उनकी ये संवेदनाएं प्रेम के लिए होती हैं, रिश्तों के लिए होती हैं और संबंधों के लिए होती हैं। बानगी देखिए –
प्रेम जब होता है
होता है
जिससे होता है
होता है
उसका होता है एक
अपना ही साम्राज्य
जिस पर
नहीं चलता किसी का
कोई प्रतिबंध।
(प्रेम पुष्प)
रिश्तों/संबंधों के लिए भी वे अपनी संवेदनाएं बचाकर रखती हैं। वस्तुतः वे अपनी कविताएं रिश्तों के जल से ही सींचती हैं। रिश्ते वे जो कभी न टूटें। रिश्तों को बचाने के लिए अपनी कविता में वह यह सलाह देती नज़र आती हैं-
रिश्तों का पेड़
और फले – फूले
महकता रहे
इसलिए
करते रहनी पड़ती है
कटाई- छँटाई
अहंकार – स्वार्थ की
अनावश्यक बिखरी
टहनियों की
मीठे स्वर का गुंजित कर गान
रखना पड़ता है रिश्तों का ध्यान।
प्रेम और रिश्ते सहेजना हर एक के लिए संभव नहीं होता। एक स्त्री होने के नाते वह रिश्तों को हाथ से फिसलने नहीं देती। रिश्ते जो माँ के साथ होते हैं और रिश्ते जो पिता के साथ होते हैं। एक मार्मिक कविता में उन्होंने पिता को आत्मीय संवेदनाओं के साथ स्मरण किया है। इस कविता की कुछ पंक्तियां देखिए –
पापा तुम्हें हमेशा
एक मजबूत बुलंद
इमारत की तरह पाया
जो देता रहा सर पर
सदा साया
तुम स्वयं ही झेलते रहे
धूप – छांव
कभी दिखने ही नहीं दिए
अपने घाव
हमारे सभी नाज़ नखरों को
हँसकर उठाया
दुनिया की बुरी नज़रों से
हमको बचाया।
(बुलंद इमारत)
यह लंबी कविता वस्तुतः पहली पीढ़ी के जाने के बाद मन, वचन और आचरण में समकक्ष होती दूसरी पीढ़ी की कथा बन जाती है। यहां भाइयों के माध्यम से वह दूसरी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व दर्शाकर भाइयों की सकारात्मक तुलना पिता के साथ करती हैं। पिता के जाने के बाद वह भाइयों में पिता के आचरण की कल्पना करती हैं।
आज जब उठ गया है
सर से तुम्हारा साया
तो भाइयों को
तुम्हारा वही कोट पहनते पाया
कल जो अल्हड़ नादान थे
बुलन्द इमारत बनते जा रहे हैं
मुझे इस बुलंद इमारत के
वो नींव के पत्थर
याद आ रहे हैं।
…………..
आज भाइयों के स्वभाव का परिवर्तन
सब कहानियां कहता है
भाई भी जैसे पहले थे
अब नज़र नहीं आते हैं
बिना उठाये सुबह
जल्दी उठ जाते हैं
माँ को नहीं सताते हैं
घर आते ही बच्चों की
फरमाइशों में घिर जाते हैं
अपनी पीड़ा कभी नहीं बताते।
(बुलंद इमारत)
शोभा अपने आसपास की घटनाओं के प्रति जागरूक हैं। स्त्रियों और छोटी-छोटी बच्चियों के साथ अमानुष घटनाएं उनके कोमल मन को व्यथित कर देती हैं।
उनकी संवेदनाएं ही कहिए जो उन्हें अपने इष्ट देव से इस भांति के सवाल पूछने के लिए बाध्य कर देती हैं-
द्रौपदी का तो चीरहरण ही
हुआ था कि
तुम दौड़े – दौड़े आये
पर रोज़ समाचारों की खबरें
मेरा दिल दहलाये
द्रौपदी की पुकार में जो बल था
क्या वह सात महीने या सात साल की
बच्चियों की चीखों में नहीं था
या फिर तुमने
सुना ही नहीं था।
(सुनो कृष्ण, उत्तर दो)
शोभा की कविताएं कहीं से भी राजनीतिक नहीं होतीं। उन्हें राजनीति आती भी नहीं और अपने तईं राजनीति में उनकी कोई रुचि भी नहीं। वे प्रतिरोध की कवियित्री भी नहीं हैं। होतीं तो प्रतिरोध के साथ भी वह मित्रतापूर्वक पेश आतीं। कही-कहीं उनका प्रतिरोध दिखाई देता है तो वह भी सॉफ्ट होता है।
अपनी कविता ‘मजदूर’ में सामाजिक – आर्थिक चेतना का स्वर मुखर होने से वे स्वयं को नहीं रोक सकी हैं –
मेरे नाम की आग जलाकर
तुम बहुत सेंक चुके
सियासत की रोटियां
बस अब बन्द करो
काल से डरो
समय चेता रहा है
मौत बनकर सरों पर मंडरा रहा है
भूखे किसानों की मेहनत खाओगे
तो अगले जन्म में
टिड्डी बनकर आओगे
चमगादड़ की मौत मारे जाओगे।
(मजदूर)
शोभा के पास एक सकारात्मक दृष्टि है। वह अच्छी- बुरी सभी परिस्थितियों में जीना जानती हैं। व्यक्तिगत रूप से उन्होंने यह बात मुझे बतलाई भी है कि उनका जीवन संघर्ष भरा रहा है। तो भी अपनी कविताओं में वह जीने की प्रेरणा देती नज़र आती हैं –
जैसे सोना
आग में दहककर
कुंदन हो जाता है
पलाश भी संघर्ष की आग में
तप कर मुस्कुराते हैं
नंदन-वन की तरह
अपने आकर्षण में
बांध के नज़र समझाते हैं कि
हिम्मत और साहस से
चट्टानों पर भी
खिला जा सकता है।
(पलाश)
अपने विरुद्ध विभिन्न षड्यंत्रों का उत्तर वह निम्न प्रकार देती हैं-
जैसे हर रोज़ रोटी खाकर भी
सब नहीं सीख पाते रोटी बनाना
ऐसे ही मैं भी न सीख पाई
रोज़ – रोज़ फरेब खाकर भी
फरेब देना।
(फरेब नहीं प्यार दो)
संबंधों को निभाने वाले बहुत बड़ा प्रेमी होता है, यह जान लीजिए। प्रेम में प्रकृति को भी प्रेमी मानने से उन्हें संकोच नहीं। कलकल करते झरने के प्रति उनका प्यार कुछ यों उमड़ता है कि वे दीवानी हो जाती हैं। कम से कम उनकी  निम्न पंक्तियों से तो यही सन्देश मिलताहैं-
तुम निर्झर से कलकल
गुंजित करते स्वर
तीव्र कर देते पिपासा
और मैं धूप – सी
तपती किरणों – सी
डूब – डूब जाती तुममें
डूबी रहती तब तक
जब तक नहीं हो जाती शाम।
(प्यासी किरण)
और अपने प्रति प्रेमी के प्यार को वह इस तरह पहचानती हैं-
तुम कभी नहीं बोलते
कि प्यार करते हो मुझसे
पर बोल देती है
तुम्हारी वो फिक्र
जब ज्वार में तपती
मैं बिंदास सोती हूँ
और तुम फ़िक्र में मेरी
जागते हो तमाम रात।
(जो तुम नहीं कहते)
प्रेम करते और सम्बंध निभाते वे कब दार्शनिक हो गईं, पता ही नहीं चला-
सब आते हैं
अपने हिस्से की ढेरी उठाते हैं
खाते हैं जीते हैं
चले जाते हैं
और वो
हर ख़त्म हुई ढेरियों पर
फिर से लगातार
लगाने में ढेरी व्यस्त हो जाता है।
(ढेरी अपने हिस्से की)
और..
वह छोटी डिबिया
जिसे छिपाकर
रख दिया था मैंने
किसी बड़े डिब्बे में
खो गई है
उसमें रख छोड़ा था मैंने
जीवन का उद्देश्य
मैं जब भी कोशिश करती हूं
उसे ढूंढने की
मेरे हाथों में आ जाते हैं
कुछ छोटे – बड़े अन्य डिब्बे
और फिर से इन्हीं
अन्य डिब्बों में खो जाती हूं मैं
और फिर
भूल जाती हूं कि
मैं खोजने आई थी
उद्देश्य जीवन का
जिसे रख दिया है मैंने
किसी डिबिया में बंद करके।
(जीवन की अलमारी)
अपनी पुस्तक शीर्षक कविता में कवियित्री सत्य और मिथ्या जैसे गूढ़ चिंतन का संधान करती नज़र आती हैं। प्रत्येक कवि दार्शनिक होता है और उसका दर्शन स्वयं के संधान से प्रारंभ होता है। उसका चिंतन अपनी कविता में उन प्रश्नों की गहराई में जाता है जिनकी वह सारी उम्र व्याख्या – विश्लेषण नहीं कर पाता। संस्कृति व प्रकृति के भेद – अभेद को समझना कवियित्री के चिंतन – अनुचिंतन का मुख्य ध्येय है। इसके लिए उन्होंने प्रेम जैसे शाश्वत विषय का उदाहरण बनने और बनाने का प्रयत्न किया है किंतु कविता की गहराई वस्तुतः कवि की गहराई होती है। शोभा विचारों की नहीं अनुभूतियों की कवियित्री है। इसलिए उनकी इस कविता में भी मुख्यतः भावों की ही प्रधानता है। कुछ पंक्तियों पर दृष्टिपात कीजिये-
देर तक मंथन के बाद भी मैं बदलती रही
एक कांधे से दूसरे कांधे पर गुनाहों की गठरी..
(सत्य और मिथ्या की तुला पर)
कुल मिलाकर, शोभा की कविताएं पुराने प्रतिमानों को ध्वस्त करने की प्रतिबद्धता नहीं दर्शातीं, न ही ये नए प्रतिमानों को स्थापित करने का कोई उपक्रम ही करती हैं। ये तो साधारण शब्दों में एक कवियित्री के बयान हैं इन्हें आप रोज़मर्रा के जीवन में अनायास आये उतार-चढ़ावों, प्रेम, संघर्ष आदि का प्रस्फुटन समझिए। यही इन कविताओं का सौंदर्य है।
हिंदी कविता के समंदर में शोभा स्वप्निल जैसे साधारण छवि लेकर उतरने वाले लोग कभी डूबते नहीं है बल्कि ये समंदर की विराटता को बनाये रखने में मदद करते हैं।  कविता लिखने की इनकी ज़िद समंदर को ज़िंदा रखती है। इनके लिखे उद्गार जीवन के सच्चे प्रतिबिम्ब होते हैं इसलिए इनके लिखे पन्ने कभी समंदर के जल से भीगते नहीं, डूबते नहीं, तैरते रहते हैं। भीगती हैं पाठकों की आंखें जो इनके संघर्षों की छाया इनकी लिखी पंक्तियों में देखती हैं।
समय की पदचाप के
पीछे चल
निकल जाएंगे हल।
(समय की पदचाप)
………………..
पुस्तक : सत्य और मिथ्या की तुला में (काव्य संग्रह/शोभा स्वप्निल)
प्रकाशक: न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन
नई दिल्ली
मूल्य 200 रुपये

4 टिप्पणी

  1. आपकी समीक्षा पढ़कर ये पुस्तक पढ़ने की इच्छा जागृत हो उठी है। बेहद संवेदनशील कविताओं की मन को छू लेने वाली समीक्षा!

  2. एक छोटी सी मुलाकात को डॉ जितेन्द्र जीतू जी ने इतना मान देकर मेरी पुस्तक की समीक्षा की ।धन्यवाद ज्ञापित करने हेतु निःशब्द हूँ।बहुत ही सुन्दर और सार्थक समीक्षा की है।साथ ही पुरवाई पत्रिका ने इसे प्रकाशित किया,उसके लिए मैं सम्पादक मंडल की भी आभारी हूँ।
    साहित्य को समर्पित सुन्दर पत्रिका ।
    बहुत बहुत साधुवाद पुरवाई की टीम का।आशा है आगे भी पुरवाई के महत्वपूर्ण लेख, कहानी, कविता,समीक्षाएं पढ़ने को मिलते रहेंगे।

  3. बहुत अच्छी समीक्षा। कवयित्री के पास अपनी अंतर्दृष्टि है जो उनकी कृति को मूल्यवान बनाता है। मानवीय संबंधों से जुड़े कई जटिल मुद्दों को वह जिस सहजता और बेबाकीपन से कह जाती हैं, वह चौंकानेवाला है पर इसीसे उनकी वैचारिक मौलिकता भी प्रमाणित होती है। यही मौलिकता साहित्य-संसार को इनकी देन है।

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