एक दम्पति परिवार ऊँचे दर्जे की जिंदगी जीने वाले। अचानक से पति के मन में ख्याल आया कि क्यों ना कम्पनी का सी.ई.ओ वह खुद बन जाए। ऐसे में उसने अपने एक सीनियर का मर्डर कर दिया। अब कम्पनी के फंड को इस्तेमाल किया अपनी पत्नी के नाम एक बड़ा सा रिसोर्ट खरीदने में, जिसके लिए अच्छा खासा सौ करोड़ का बीमा भी करवाया। फिर अचानक हुआ कुछ यूँ कि उसकी पत्नी ने ही अपने पति को मार डाला ताकि बीमा की रकम पर वो ऐश कर सके। लेकिन नहीं मर्डर तो असल में हुआ ही नहीं! फिर मर्डर हुआ किसका?और एक नहीं कई मर्डर हुए!
लेकिन सुनिए, कहानी आपको कोई पुराने जमाने की फिल्मों जैसी नहीं महसूस हो रही? जहाँ हीरो, हिरोइन मिलकर झूठ, प्रपंच गढ़ते हैं और फिर उस एक झूठ को छिपाने के लिए और कई झूठ। एक मर्डर को छुपाने के लिए और कई मर्डर। मर्डर, मसाला, मिस्ट्री फिल्म ऐसे ही तो तैयार होती है ना क्यों? क्या बोलती जनता?  
फिर जनता जनार्दन दर्शक को जब फिल्म की कहानी में आगे क्या होने वाला है सब अपने आप पता चलता जाए तो वो आपकी फिल्म में दिलचस्पी क्यों लेने लगा भला? क्या सिर्फ तेज-तर्रार बैकग्राउंड स्कोर, हॉट नायिका, कामुक अदाओं से सभी को अपने चंगुल में फंसा कर बच निकलने वाली कहानियों से मर्डर मिस्ट्री पूरी हो जाती है? क्या पुलिस वाले सचमुच इतने बेवकूफ होते हैं? कि उन्हें सामने दिलजोई करती हुई या उनके बिस्तर तक को गर्म करने के लिए तैयार नायिका के पीछे की मंशाओं का पता ना चले? क्या इंशोरेंस क्लेम देने वाली कम्पनियों में बैठे लोग इतने मूर्ख होते हैं कि वे अपने क्लाइंट के लिए मर्डर तक रचने को तैयार हो जाएं? खैर 
शुक्र है हमें असल और फ़िल्मी दुनिया का इतना तो भान है कि हम उसे हकीकत ना मान बैठें लेकिन क्या हो गर आपको पता चले कि ऐसी फ़िल्में किसी सत्य घटनाओं पर आधारित हैं! क्यों खा गये न गच्चा? फिल्म भले ही पुराने जमाने की मर्डर मिस्ट्री हो, भले ही उसमें गीत-संगीत, बैकग्राउंड स्कोर, कॉस्ट्यूम, मेकअप आदि सब कुछ पुराने जमाने का हो लेकिन आज भी क्या बीते जमाने का कुछ मसाला लगाकर फिर से चमकीले रैपर में आज तक बॉलीवुड वालों ने पेश-ए-खिदमत नहीं किया? 
फिर एक्टिंग के मामले में एक आध को छोड़ बाकी पर आप दया ही करोगे। कंगना बनी ‘श्रेया नारायण’ ना तो खूबसूरत लगी और ना ही उन्होंने अपनी कामुक अदाओं से भी पर्दे पर जलवा-ए-फ़रोश वाला काम किया। कम से कम निर्देशक या कास्टिंग टीम को चाहिए था और ना सही तो लड़की तो ऐसी हो जो दर्शकों के दिलों को ही छू सके नहीं? अकरम खान राजवीर के रूप में ठीक लगे तो वहीं विक्रम मल्होत्रा के किरदार में अमित्रयान औसत रहे, वहीं सन्नी सिंह चौहान उदय सक्सेना के रूप में सबसे ठीक कहे जा सकते हैं। राशिद खान, मकबूल रिजवी, स्वाति, आदित्य सिंह आदि अपने-अपने किरदार में उतना ही कर पाए जितना उन्हें स्पेस मिला। 
शिमारू मी पर इस हफ्ते रिलीज हुई इस फिल्म के लिए बद्रिश पाटिल ने स्क्रीन प्ले तो ठीक लिखा लेकिन डायलॉग के मामले में उनके हाथों में कुछ नहीं था अफ़सोस कुछ एक डायलॉग बाजी ही उम्दा हो जाती। कॉस्ट्यूम डिजाइनर ने फिल्म की थीम के मुताबिक़ काम करने की पूरी कोशिश की होगी ऐसा माना भर जा सकता है क्योंकि जब फ़िल्में ही पुराने जमाने की स्क्रिप्ट जैसी हों तो उसमें निर्देशक दिवाकर नाइक ने जैसे उन्हें निर्देश दिए होंगे वैसे ही उन्होंने किया। हाँ एक बात अच्छी है वो ये कि फिल्म की लोकेशन फिल्म के मुताबिक़ जमती है।
तेज तर्रार पार्श्व ध्वनि और ना याद रहने वाला गीत जिस फिल्म में हो और कलरिंग, वी एफ़ एक्स, सिनेमैटोग्राफी, एडिटिंग से जब फ़िल्में धुंधली सी नजर आने लगे तो वे पुराने जमाने की कहानियों को ही अपने कंधों पर ढोती हुई चलती हैं। यह बात जरुर याद रहे। 
अपनी रेटिंग – 2.5 स्टार               

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