पुस्तक का नाम – यायावरी लेखक – अरविंद कुमारसंभव समीक्षक – डा. किशोर सिन्हा, पटना प्रकाशक – सबलपुरा प्रकाशन, जयपुर
समीक्षक
डॉ. किशोर सिन्हा
प्रकृति ने प्राणी-जगत् के लिए ढेरों उपहार संजो कर रखा है जिसे जो, जब चाहे अपनी आवश्यकता के अनुसार इस्तेमाल कर सकता है, अपनी ज़िंदगी संवार सकता है। हमारे चारों ओर बिखरी अप्रतिम हरितिमा, पेड़-पौधे, पहाड़, नदियां, झरने, मरुथल- सभी कुछ कहते जान पड़ते हैं; बशर्ते कि हम उनकी आवाज़ सुनें। इनकी आवाज़ कानों से कम, आंखों और हृदय से अधिक सुनी जा सकती है और ये तभी संभव है, जब हम सख्य-भाव से, प्रणम्य-भाव से इनके निकट जायें।
इसका सबसे सरल और सुंदर रास्ता यायावरी-मन से होकर गुज़रता है। भ्रमण और पर्यटन के ज़रिये आप नयी राहों का अन्वेषण तो करते ही हैं; यदि आप पर्यटक-दृष्टि-सम्पन्न भी हैं तोे रास्ते की दुरूहता आपको सुगम प्रतीत होने लगेगी।
इतनी बातें यहां मैं इसलिये कह पा रहा हूं कि जाने-माने लेखक, कवि और पर्यटक, श्री अरविन्द कुमारसंभव की पर्यटन पर लिखी एक अनोखी पुस्तक है ‘यायावरी’। वैसे तो पर्यटन पर ढेरों पुस्तकें मौजूद हैं, पत्र-पत्रिकायें भी अपने विशेषांकों के ज़रिये तमाम जानकारियां परोसती रहती हैं; लेकिन अरविन्द जी की ‘यायावरी’ इसलिये ख़ास है क्योंकि इसमें सिर्फ़ स्थानों का वर्णन नहीं है; बल्कि उस स्थान से जुड़ी हुई कथायें-किंवदंतियां, वहां की संस्कृति, खान-पान, वेशभूषा, आचार-व्यवहार, उपकरणों आदि का भी पर्याप्त वर्णन है, जो निश्चित तौर पर अनुभवसिद्ध है; क्योंकि ये स्वयं बहुत घुमन्तु इन्सान हैं।
अब जैसे, उत्तराखंड के पहाड़ों की जानकारी देने के क्रम में कुमारसंभव जी दही जमाने के बर्तन- ‘ठेकी’ का उल्लेख करते हुए कहते हैं- ‘‘यह ऊंचाई पर उगने वाले गेथी वृक्ष की मोटी डाल को खोखला करके बनती है।……. इसी लकड़ी से रसोई के नित्य प्रयोग के लिए घी रखने का बर्तन भी मिलता है, जिसे कुमली कहते हैं….।’’ इस तरह के अनेक वर्णन इस पुस्तक में मिलेंगे।
‘यायावारी’ की सबसे बड़ी ख़ासियत ये है कि इसे हिमालय-क्षेत्र, पूर्वोत्तर क्षेत्र, दक्षिण क्षेत्र, पश्चिम भारत, मध्य भारत, दिल्ली, ब्रज क्षेत्र आदि अध्यायों में विभाजित किया गया है, जिससे सम्पूर्ण भारतवर्ष की यात्रा इस एक पुस्तक के सहारे की जा सकती है।
ये किसी से छिपा नहीं है कि आज पर्यटन-स्थलों की बहुत दुर्दशा हो रही है, पहाड़ और जंगल काटे जा रहे हैं, नदियों का मुंह मोड़ा जा रहा है, कंक्रीट के जंगल हमारी प्राकृतिक संपदा को अतिक्रमित करते जा रहे हैं। इन प्रश्नों को भी कुमारसंभव ने बड़े संवेदनापूर्ण ढंग से उठाया है- ‘‘…हाय री नियति… हम हिमालय पुत्रों, गंगा तनयों ने अपने ही इन्हीं प्रतीक देवों की क्या दुर्गति कर डाली है? जाओ जाकर देखो और विलाप करो…’’
इस वेदना का वर्णन करते हुए कुमारसंभव जी इस बात को बड़े ही सुंदर तरीके से अतीत से जोड़ देेते हैं, जब वे प्राचीन हिमालयी तीर्थयात्रा का उल्लेख करते हैं- ‘‘…यात्रा की एकमात्र शर्त यह होती थी कि यात्री अपने सभी उत्तरदायित्व- यथा, बच्चों का विवाह, कर्ज़ आदि से मुक्ति प्राप्त कर ले। यात्रा के समय तीर्थयात्री अपने सभी बंधु-बांधवों से अच्छी तरह मिल लेता था, क्योंकि दुरूह हिमालयी यात्रा से बहुत कम जीवित वापस लौट पाते थे….।’’
इस प्रकार पुस्तक ‘यायावरी’ वर्तमान के साथ-साथ अतीत का वर्णन भी करती चलती है ताकि लोग- विशेषकर नयी पीढ़ी अपनी अनमोल विरासत को जान सके, समझ सके। इस दृष्टि से इसकी अहमियत और बढ़ जाती है।
‘यायावरी’ पुस्तक के अंत में पर्यटन-चार्ट दिया गया है, जिसमें प्रमुख नगरों के बीच दूरी दर्शाई गयी है। इसके अलावा भारत के प्रमुख हिल-स्टेशन, सुन्दर समुद्रतट, प्रमुख दुर्ग तथा प्रमुख अभयारण्य की सूची है। और सबसे बड़ी बात कि आप भ्रमण पर जाये ंतो क्या-क्या सावधानियां बरतें इसकी जानकारी भी दी गई है।
वास्तव में ‘यायावरी’ पर्यटन पर केन्द्रित आम पुस्तकों से थोड़ा हटकर है जिसे कोई भी पर्यटक हर समय अपने साथ रखना चाहे। इसके लिए मैं कुमारसंभव जी को हार्दिक बधाई देता हूं कि वे ऐसी और अनुभवसिद्ध पुस्तकों की रचना करें।