रंगकर्मी-पत्रकार आलोक शुक्ला की हाल में आई पुस्तक ‘एक रंगकर्मी की यात्रा’ एक पठनीय आत्मकथ्य है। हालाँकि आत्मकथ्य के बजाय इसे खुद का चिट्ठा कहना ज्यादा बेहतर होगा, क्योंकि इसमें गुजरे जीवन के तमाम अच्छे-बुरे प्रसंग बहुत ही बेलाग तरह से लिख दिए गए हैं। इस क्रम में नाकाम मोहब्बत की दास्तान से लेकर फिल्मी दुनिया में मिले धोखों को उतनी ही सहजता से बताया गया है जितना कि छोटी-बड़ी खुशियों को। पुस्तक में कोई गहरा आत्ममनन तो नहीं लेकिन एक दुनियावी आत्मालोचना अवश्य है।
होम टाउन रीवा से लेकर मुंबई होते हुए दिल्ली तक के इस सफर में उन्होंने कई तरह के काम किए जिनमें सचमुच की सीआईडी में काम करने से लेकर ‘एफआईआर’ और ‘पुलिस फाइल’ जैसे सीरियलों में काम करने तक के अनुभव शामिल हैं। सिनेमा-टीवी-रंगमंच में अभिनय के साथ-साथ मीडिया में काम किया। बासु चटर्जी, सागर सरहदी और हबीब तनवीर जैसी हस्तियों के संपर्क में आए। हबीब तनवीर के ग्रुप में जर्मनी की यात्रा की। और, उदाहरण के लिए, इस यात्रा से जुड़े व्यवधानों और उनके निराकरण का उतार-चढ़ाव से भरा दिलचस्प किस्सा भी पुस्तक का हिस्सा बन गया है।
हबीब तनवीर शंगेन वीजा चाहते थे जिसके लिए एंबेसी तैयार नहीं थी। इस अड़ंगे से निबटने में कैसे यह खबर भारतीय मंत्रालय तक पहुँची और नतीजतन कैसे जर्मन मंत्रालय ने खुद अपनी एंबेसी को एक साथ तीस लोगों का वीजा की अनुमति देने का निर्देश दिया, और कैसे देर शाम बंद हो चुके एंबेसी दफ्तर को खुलवाकर अकेले आलोक शुक्ला ने तीस वीजा पर एक साथ ठप्पे लगवाए, यह एक दिलचस्प किस्सा है। इसी तरह सागर सरहदी ने भी आखिरी क्षण में वादा तोड़कर उन्हें अपनी फिल्म ‘चौसर’ में काम नहीं दिया। कई अन्य कलाकार काम न देने की ऐसी ही वादाखिलाफी की खुंदक में फिल्म की नाकामी की दुआ करने लगे, और दुआ को पक्का करने के लिए अजमेर शरीफ चादर चढ़ाने गए, लेकिन आलोक ने इतना ही किया कि दिलासे के तौर पर उन्हें ऑफर किए जा रहे अदना-से रोल से पूरी तल्खी के साथ इनकार कर दिया।
इस तरह ये किताब उस दुनिया को सामने लाती है जो सिनेमा और टीवी के परदे पर दिखने वाली किसी यथार्थवादी कहानी के यथार्थ से भी कई गुना ज्यादा खुरदुरी है। पुस्तक में उसके ब्योरे बहुत ही अनायास तरह से मौजूद हैं। दो हकीकतों का कंट्रास्ट कई बार पुस्तक में मुखर होकर दिखता है। मसलन, बताया गया है कि आमिर खान अपने भांजे इमरान खान को हबीब के पास लाए और कहा कि वे कुछ महीने उसे अपने ग्रुप में भर्ती करके एक्टिंग सिखा दें, लेकिन उन्होंने इसलिए इनकार कर दिया कि ग्रुप के एक्टर खाने के बाद ऐसा हंगामा करते हैं कि ‘हर जगह ग्रुप की इज्जत ही उतर जाएगी’। बाद में जब उन्होंने इमरान को लिया तो इमरान खुद ही छोड़कर आ गए।
पुस्तक सिनेमा की लकदक दुनिया के हाशिये पर मची उठापटक को उसके संघर्षों के साथ दिखाती है। इसे उन युवाओं को अवश्य पढ़ना चाहिए जो सिनेमा में जाने के इच्छुक हैं और सोचते हैं कि संघर्ष करके वे भी किसी दिन स्टार बन जाएँगे। यह पुस्तक उस दुनिया के भोगे हुए यथार्थ को पेश किया गया है जहाँ पहले तो रोल का वादा करके भीड़ में खड़ा कर दिया जाता है, फिर यह रोल दिलाने का कमीशन भी माँगा जाता है।
ऐसे ही एक वाकये का जिक्र करते हुए आलोक इस अन्याय के खिलाफ अपने संघर्ष के बारे में बताते हैं कि न सिर्फ उन्होंने उस रोल से मना कर दिया, बल्कि धोखाधड़ी के खिलाफ आर्टिस्ट एसोसिएशन में शिकायत दर्ज करवाकर अपना पेमेंट भी हासिल किया। ये प्रकरण कई तरह की नाकामियों के बीच भी डटकर खड़ी रही लेखक की जुझारू शख्सियत का पता देते हैं। दरअसल यह पुस्तक खुद भी कोरोना के दौर में आलोक के हिस्से आई दोहरी कैद से निकली है, जब उन्हें एक ऐसी बीमारी ने आ घेरा जिसमें चलना-फिरना भी असंभव हो गया। तब कोरोना काल और बीमारी की गृह-कैद में उन्होंने संस्मरण-लेखन के जरिए खुद को अभिव्यक्त करना जारी रखा।
पुस्तक में लेखक का बयान जितना सहज है वैसा ही उनका व्यक्तित्व भी प्रतीत होता है। शुरुआती रीवा के दिनों की चर्चा में भाजपा के सांस्कृतिक संगठन संस्कार भारती में काम करने का संस्मरण इस लिहाज से दिलचस्प है। आलोक ने संस्था के जिला संयोजक के रूप में हिंदू भावनाएँ उभारने वाला नाटक करने में खुद को असमर्थ पाकर कुछ अरसे बाद उससे त्यागपत्र दे दिया। ‘वैसे में शहर के रंगकर्मियों ने मुझे अलग-थलग करने की कोशिश की और वे मुझपर दक्षिणपंथी होने का तमगा लगाने की कुचेष्टा करते रहे, जबकि दक्षिणपंथी मुझे वामपंथी झुकाव का कहते रहे….कमाल की बात यह कि जो अपने को उस समय वाम का झंडाबरदार कहते रहे उनमें से ज्यादातर अब खुद दक्षिणपंथ की शरण में हैं।’
यह पुस्तक कोई बहुत इत्मीनान से लिखा गया गद्य नहीं है, बल्कि एक स्फूर्त और अनगढ़ किस्म का वृत्तांत है। मानो किसी बेचैनी में एक के बाद एक ब्योरे इसमें बेतरतीब ढंग से उड़ेल दिए गए हैं। और इस बेतरतीबी की सहजता में ही एक प्रवाह बन गया है क्योंकि इसमें कोई ढोंग नहीं है। इससे इसमें आया हर पात्र अपने सचमुच के कद में ही दिखता है। यह चीज अमिताभ बच्चन और शाहरुख खान से जुड़े प्रसंगों में भी है।
बाद के पृष्ठों में लेखक ने ‘फिल्मी परदे पर सफल होने का मंत्र’ भी अपने पाठकों को बताया है कि ‘आप पूरी ईमानदारी से मक्कारी करिए’। उनकी सलाह है- ‘अपने मन के भावों को छुपाना सीखिए’। यह फिलासफी निचोड़ है उनके फिल्मी दुनिया के अनुभवों का, जिसमें हैसियत वालों ही नहीं बल्कि खुद की तरह संघर्ष कर रहे साथियों के विचित्र व्यवहार के विवरण भी शामिल हैं जिनकी मौकापरस्ती का दंश कहीं ज्यादा देर तक सालता रहता है। इसी वजह से इस पुस्तक का पूरा नाम है- ‘एक रंगकर्मी की यात्रा (बॉलीवुड, नाटक और धोखा)’।
संगम पाण्डेय जाने माने लेखक और पत्रकार हैं.
संपर्क : sangampg@yahoo.co.in

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.