पुस्तक – मन-पाखी; लेखक – डॉ. योग्यता भार्गव; प्रकाशक – निखिल पब्लिशर्स; मूल्य – 225 रूपये
समीक्षक
आचार्य देवेन्द्र देव, बरेली (उत्तर प्रदेश)
चाहे वह कविता की जन्मभूमि, तमसा का तट हो अथवा मर्यादापुरुषोत्तम कहलाने वाले चक्रवर्ती सम्राट राम का दरबार,बरसाने  के गोपराज वृषभानु की ड्यौढ़ी हो अथवा राणा भोजराज का राजप्रासाद,कवि के कर्णकुहरों में जिस स्वर ने सर्वप्रथम प्रवेश करके, उसके अन्तर्मन को छूते हुए,उसकी अन्तश्चेतना को झकझोरा वह करुणाराव एक नारी का ही था। उनकी वेदना के मूल में था अपने प्राणप्रिय का विछोह किन्तु उसका कारण बना स्वयं व्याध का शर, अथवा व्याध के प्रतीक समाज के व्यंग्यबाण।यद्यपि पुमान वर्ग में शापित यक्ष,तुलसी आदि भी वियोगजन्य पीर के भोक्ता, वाहक बलाहक हुए परन्तु उनकी व्यथा-वेदना अलग प्रकार की थी।क्रौंची,सीता, राधा और मीरा की पीड़ा रही तो एक प्रकृति की, किन्तु थी परस्पर सर्वथा भिन्न।क्रौंची और मीरा में यदि निराशा थी तो राधा में हताशा।सीता की वेदना में,अपने सर्वसमर्थ जीवनसाथी के समक्ष आहत विश्वास-जनित, कुण्ठागर्भित,आत्मघातिनी निपट निरीहता ही थी जिसने उन्हें भूमिष्ठ होनै को बाध्य किया, विवश कर दिया।
आज की नारी की वेदना में प्रस्तुत प्रकारों के बहुगुणित स्वरूपों के संगुम्फन, समेकन के अतिरिक्त और भी बहुत कुछ दृष्टिगत होता है जिसकी जीवन्त झलक अत्यन्त संवेदनशील, भावात्मिकावृत्ति की संवाहिका, मध्य भारत की नवोदित कवयित्री डा.योग्यता भार्गव के सद्य:प्रकाशित कविता-संग्रह ‘मन पाखी’में मिलती है।संग्रह की सभी सैंतालीस कविताओं में अधिसंख्य शाब्दिक तिनकों से जोड़े गये बया के वे घोसले हैं जो अपनी-अपनी निर्मिति के संघर्षों की कहानी बयाँ कर रहे हें।
मीठी किलकारियों से जीवन की भोर जगाने,देवी के रूप में पूजी जाने वाली बालिका, अपनी बढ़ती आयु के साथ पहले अपने माता-पिता के लिए, फिर स्वयं अपने लिए कितनी बड़ी समस्या बनती जाती है,यह आज किसी से छिपा नहीं है।समुन्नत हिमाद्रि के पवित्र गोमुख से प्रोद्भूत होकर, गिरि- कान्तारों, वन्य प्रान्तरों,खुले मैदानों एवं मरुस्थलों को अपने अमृतोपम जल से अभिसिंचित, आप्लावित, आप्यायित करती हुई, अन्ततोगत्वा खारी और अपेय जलराशि के अधिस्वामी महार्णव में समाहित हो जाने वाली गंगा की नियति, जनकनंदिनी से किंचिन्मात्र भी न्यून नहीं है।
जब मायके में ही बालिका को  दोयम दरजे की सन्तति समझा जाता है तो अन्येतर स्थानों,अवसरों की बात ही क्या कहीं जाय? ‘मन-पाखी की रचनाएं उपर्युक्त पात्रों के इर्द-गिर्द घूमती तों हैं परन्तु वैसी हताशा नहीं ओढ़तीं,उनमें समानान्तर प्रतिक्रिया भी पलती है और उसकी मुखर अभिव्यक्ति भी देखने को मिलती। आज की नारी के संवेदित हृदय,मन-मानस में अनुराग है तो विपरीतिजात विद्रोह भी।निरति है तो विरति भी।औदात्य है तो वितृष्णा भी।वह प्रिय के मिलन पर पूर्णता की अनुभूति करती है तो उसकी अनुपस्थिति में उसे अधूरेपन का अहसास भी होता है।नियति से संघर्ष करती, ममत्व के निमित्त विकल, अधिकार-गृह (मायके और ससुराल) में अपने अधिकार को खोजती,अपने अस्तित्व को टटोलती,आह के दाह से चाह को बचाती,बचपन के सावन में अपने मौन की स्वयं परीक्षा लेती उसकी ‘मन- पाखी’ असंगत विश्वासों के जाने किन-किन विद्रूप लोकों की यात्रा करती,अन्यमनस्कता की डाल पर आकर चुपचाप बैठ जाती है।
‘आज, आम फिर बौरा गये’ के साथ ‘अभी कहां खत्म होना था यह ठौर/अभी तो आया था गुठलियों का दौर’ अभिव्यक्ति में कितना निर्दोष भोलापन झलकता है।’पत्थर की छोटी-सी कत्तल’ फेंककर गिराये गये खजूर की संकुलित मिठास का रस लेती हुई वह यथावसर ‘पीछे हटते-हटते वह चुन लेती है सही राह, जो पहुंचा देती है उसे मंज़िल की ओर’ ये पद पंक्तियाँ कवयित्री की आशावादी सोच और मनोबल की पुष्टि करती है।यही आत्मविश्वास ‘साज़िश’ के उदर विदारते हुए, ज़िम्मेदार होने की अनुभूति कराते हुए, जिजीविषा और जीवट से ओतप्रोत उसे ‘उड़ान’ भरने को प्रेरित व प्रोत्साहित करता है।अपेक्षाओं और उलझनों के युग में शिकायतों के दौर न कभी कम हुए हैं,न कभी कम होंगें।किसी अभिनव स्वप्न के दर्शन और पोषण में आशा के पीछे भागते हुए पाखी की हंसी भी खो सकती है और उसे वे सारे अभीष्ट भी मिल सकते हैं जो उसकी गति के,उसकी उड़ान के अभिप्रेत लक्ष्य रहे हैं।इस प्रकार ‘मन-पाखी’ में योग्यता की योग्यता की अपेक्षा उसकी भावात्मकता अधिक मुखर हुई है जो स्वाभाविक भी है।।
कविताओं की सरल-तरल भाषा, अपने शीर्षक के अन्तर्निहित मन्तव्यों को सहजता के साथ पाठक तक पहुंचाती है। हाँ एक बात और वह यह कि यदि ‘पाखी’ के स्थान पर ‘पाँखी’ होता तो अधिक अच्छा होता क्योंकि पंख को जितना ‘पाँख’ व्यंजित करता है उतना ‘पाख’ नहीं।अस्तु। कविता-साहित्य के क्षेत्र में, अनेकानेक सम्भावनाओं वाले योग्यता रूपी इस सारस्वत कदम्ब का मैं हार्दिक अभिनन्दन करता हूं।

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