इसे हिंदी साहित्य का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि इसमें एक समय के बाद से लोकप्रियता-विरोधी दृष्टि स्थापित हो गयी। एक ख़ास विचारधारा का हिंदी साहित्य पर वर्चस्व कायम होने के बाद जब उसके लेखक खुद लोकप्रिय नहीं लिख पाए, तो उन्होंने लोकप्रियता को श्रेष्ठ साहित्य का विरोधी करार देते हुए त्याज्य बना दिया। इसका सबसे बड़ा नुकसान खुद हिंदी को हुआ क्योंकि अपराध और रहस्य-कथा लेखक जो लोकप्रिय थे, उसके साहित्यिक दायरे से बाहर चले गए।
इसे इस तरह समझें कि विदेशों में जहां जेम्स हेडली चेज, अगाथा क्रिस्टी जैसे लेखक सम्मानित रहे, तो वहीं भारत में जिनके उपन्यास ‘वर्दी वाला गुण्डा’ की आठ करोड़ से अधिक प्रतियाँ बिकीं वे वेद प्रकाश शर्मा हिंदी लेखन की मुख्यधारा से बाहर रखे गए। यही स्थिति सुरेन्द्र मोहन पाठक और इस जॉनर के अन्य तमाम लेखकों के साथ भी रही। ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ जैसे उपन्यास लिखने वाले बाबू देवकीनंदन खत्री के देश में विचारधारा विशेष के लेखकों ने साहित्य को गंभीरता का पर्याय बनाकर यह स्थिति उत्पन्न की और इसीका परिणाम है कि आज हिंदी के लेखक हजार-दो हजार प्रतियाँ बेचकर बेस्टसेलर कहलाने को अभिशप्त हो गए हैं।
हालांकि इन सबके बीच ही शायद साहित्य जगत को अपनी इस भूल का आभास भी धीमे-धीमे हो रहा है जिसका प्रमाण है कि अब सुरेन्द्र मोहन पाठक की आत्मकथा एक बड़े प्रकाशक ने प्रकाशित की है, तो वहीं हाल में उनके उपन्यास भी हिंदी-अंग्रेजी के प्रतिष्ठित प्रकाशकों द्वारा छापे गए हैं। इससे लगता है कि अपराध और रहस्य-कथाओं से परहेज की भावना धीमे-धीमे ही सही, हिंदी जगत से दूर हो रही है और ऐसे साहित्य को भी महत्व मिलने की उम्मीद बन रही है।
इस उम्मीद को संजीव पालीवाल का उपन्यास ‘नैना’ और पुख्ता करता है, जिसका प्रकाशन वेस्टलैंड जैसे बड़े प्रकाशन से हुआ है। ‘नैना’ का प्रकाशन कहीं न कहीं यह उम्मीद देता है कि अब अपराध कथाएँ लिखकर भी हिंदी के मुख्यधारा प्रकाशकों के पास प्रकाशन के लिए जाया जा सकता है। यह बड़ी बात है।
खैर, बात ‘नैना’ की करें तो संजीव पालीवाल का यह उपन्यास कहने को तो एक अपराध-कथा है, जिसकी कहानी देश की मशहूर न्यूज़ एंकर नैना वशिष्ठ की हत्या के इर्द-गिर्द घूमती है, लेकिन यदि आप ध्यान से इस उपन्यास को पढ़ें तो पाएंगे कि ये अपराध-कथा तो केवल एक छलावा भर है, उपन्यास की मूल कहानी मीडिया जगत के सामाजिक चरित्र के उद्घाटन पर केन्द्रित है। परन्तु, यदि केवल इतने ही विषय पर इस उपन्यास को रखा जाता तो बात बड़ी सादी-सी हो जाती, सो अपराध-कथा की चाशनी में लपेटकर इस समाज-कथा को पाठकों के समक्ष एक रसात्मक कलेवर में परोसा गया है।
नैना की सामाजिक स्वच्छन्दता को सही ठहराने के लिए लेखक ने उसके पति के भी दुश्चरित्र होने का संकेत दिया है, लेकिन यह बचाव बड़ा कमजोर लगता है। सवाल उठता है कि नैना जिस दुश्चरित्रता के शक में अपने पति से दूरी बनाती है, खुद उसीमें आकंठ डूब क्यों जाती है? डूब ही नहीं जाती बल्कि उसका आनंद भी लेने लगती है।
नैना की हत्या और उसके कातिल की खोज, की अपराध-कथा में मीडिया की पृष्ठभूमि के सिवाय ऐसा कुछ भी नहीं है, जो हिंदी के अपराध-कथा पाठकों को नया लग सके। अव्वल तो हत्याकाण्ड की जांच बड़ी सपाट लगती है, दूसरे हत्यारे को छुपाने का जो फ़ॉर्मूला लेखक ने इस्तेमाल किया है, वो लेखन से लेकर टीवी तक की अपराध-कथाओं में लम्बे समय से लगातार प्रयोग हो-होकर बेहद घिस चुका है, अतः अब उसमें ऐसा कोई विशेष आकर्षण नहीं रह गया है जो पाठकों को ज्यादा देर तक बाँध सके।
इस उपन्यास में प्रयुक्त हत्यारे को छुपाने के फ़ॉर्मूले की रग-रग से पाठक इतने परिचित हो चुके हैं कि अपराध-कथाओं का कोई मंझा हुआ पाठक यदि इसके अंत से पहले ही नैना के कातिल का अनुमान लगा ले, तो कोई बड़ी बात नहीं है।
बात इसकी समाज-कथा की करें तो जिस मीडिया जगत की यह कथा है, वहां उपन्यास के अनुसार सद्चरित्रता और नैतिकता के लिए कोई स्थान नहीं है। इस संसार के सभी पात्र कम या ज्यादा अपने-अपने स्वार्थ को साधने की कोशिश में लगे हैं, फिर चाहें उसके लिए जो भी पैंतरे अपनाने पड़ें। नैना का चरित्र ऐसा है कि अपने पति के अलावा तीन अन्य पुरुषों से उसके सम्बन्ध हैं।
एक तरफ अपने मैनेजिंग एडिटर गौरव वर्मा और एक राजनेता के साथ वो शारीरिक सम्बन्ध रखे हुए है, वहीं आउटपुट एडिटर नवीन शर्मा से भी बेहद निकटता है। पति सर्वेश से उसके रिश्ते बहुत ठण्डे हैं और दोनों अलग-अलग कमरों में सोते हैं। सर्वेश जब इस बात के लिए नैना को टोकता है, तो वो उसे कुंठित कहते हुए घर से निकल जाने का फरमान सुना देती है। सर्वेश सही हो ऐसा नहीं कहा जा सकता, लेकिन गलत करते हुए भी स्वयं को सही बताने का ‘नारीवादी हठ’ नैना में भी है।
डॉ. कविता नामक पात्र जब कहती हैं कि ‘नैना स्मार्ट थी, पुरुषों की दुनिया में कामयाब कैसे होना है, वो जानती थी’ तब लगता है कि वे पुरुषों को सीढ़ी बनाकर आगे बढ़ने के तरीके की ही बात कर रही हैं, क्योंकि लेखक भले गौरव वर्मा के जरिये यह स्थापित करवाने का प्रयास करें कि ‘नैना इतनी टैलेंटेड थी कि उसे आगे बढ़ने के लिए अपने शरीर का इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं थी’, लेकिन पाठक बखूबी यह समझ सकते हैं कि नैना कामयाबी की ऊंचाइयों पर अपने शरीर का इस्तेमाल करके ही पहुँचती है। यहाँ तक कि अपनी कामयाबी की राह में उसे स्त्री भी बर्दाश्त नहीं, आमना चौधरी के प्रसंग से यही जाहिर होता है।
नैना की सामाजिक स्वच्छन्दता को सही ठहराने के लिए लेखक ने उसके पति के भी दुश्चरित्र होने का संकेत दिया है, लेकिन यह बचाव बड़ा कमजोर लगता है। सवाल उठता है कि नैना जिस दुश्चरित्रता के शक में अपने पति से दूरी बनाती है, खुद उसीमें आकंठ डूब क्यों जाती है? डूब ही नहीं जाती बल्कि उसका आनंद भी लेने लगती है।
पुरुष के कुकृत्यों का विरोध करते-करते खुद उसके जैसा बन जाना, आधुनिक नारी की एक बड़ी समस्या है और नैना भी इससे ग्रस्त नजर आती है। हालांकि व्यावसायिक जीवन से अलग व्यक्तिगत जीवन में नैना को बड़ा सरल और सहृदय दिखाया गया है, परन्तु इससे उसके चारित्रिक दोष समाप्त नहीं हो जाते अपितु ये वर्णन ही बनावटी लगने लगता है।
नैना को जिस तरह कामयाब होते दिखाया गया है, उससे कहीं न कहीं यह अनुचित स्थापना होती है कि मीडिया जगत में महिलाएं केवल अपनी योग्यता से सफलता के शीर्ष पर नहीं पहुँच सकतीं।
बेहतरीन समीक्षा