हिंदी सिनेमा के इतिहास में अब तक सैंकड़ों ऐसी फिल्में बन चुकी हैं जो कन्या भ्रूण हत्या जैसे मामलों को दिखाती हैं। लेकिन गम्भीरता के साथ या उनमें किसी तरह का हॉरर का तड़का लगाकर शायद ही कोई कायदे की फ़िल्म बनी हो। 26 नवम्बर को ओटीटी प्लेटफॉर्म पर यह कमी पूरी करती है फ़िल्म ‘छोरी’। हालांकि यह कोई ओरिजनल स्टोरी नहीं है। लेकिन रीमेक होने के बावजूद यह देखने लायक बन पड़ी है तो अपनी कहानी, स्क्रिप्ट, एक्टिंग और सिनेमैटोग्राफी तथा कैमरा एंगल से लिए गए उम्दा दृश्यों के नजरिये से।
फिल्म में दरअसल तीन कहानियां है। जिसमें से दो कहानी सुनाती है भान्नो देवी यानी मीता वशिष्ठ। पहली ये कि कहानी एक छोटे से गांव में बड़ा सा पेड़ था। पेड़ पर कौआ अपने परिवार के साथ सुख-शांति से जीवन बिता रहा था। फिर एक दिन जहरीली काली नागिन पेड़ से लिपट गई। धीरे-धीरे उसका जहर सारे पेड़ में फैलने लगा, पत्ते गिरने लगे। सारे फल टूटकर गिर गए। देखते-देखते घना पेड़ विधवा की मांग जैसा सुना पड़ गया। जैसे ही कौआ अंडे देता वैसे ही नागिन उसे खा जाती। एक दिन वहां चिड़िया आई, उसने घोंसला बनाया और अंडा दिया। लेकिन कौए ने उसे आपस में बदल लिया। कौए का अंडा बच गया।
अब दूसरी कहानी भी भान्नो देवी की ही जुबानी। वह कहानी सुनाते हुए बताती है कि बहुत साल पहले की बात है। उसने अपने देवर योगेश्वर की शादी सुनैनी नाम की छोरी से करवाई। नाम उसका सुनैनी था मगर सीरत से थी वो डायन भान्नो देवी की नजर में। अब घर में सुनैनी के पैर पड़ते ही भान्नो देवी का सुखी परिवार बर्बाद हो गया। उसके चार बालक थे, चारों छोरे। तीन छोटे और सबसे बड़ा राजबीर। डायन ने तीनों छोटे छोरों पर ऐसा जादू किया कि वे उसके वश में हो गए। सुनैनी बालकों के कान भरने लगी। एक दिन देखते-देखते तीनों बालक अपनी मां भान्नो से अलग रहने लगे। वे दिन रात अपनी भाभी से चिपके रहते। उसने सब तरीके आजमा लिए, पर वह अपने उन तीनों बालकों को उनकी भाभी के चंगुल से छुड़ा ना पाई। वह कहती है कि ‘जब सारे दरवाजे बंद हो जाते तो ऊपर वाला अपने आप रास्ता दिखाता है।’
इस तरह उसके बेटे राजबीर की चार शादियां हुईं। क्यों हुई? उसका कारण तो आपको फ़िल्म देखने के बाद ही पता लगेगा। फ़िल्म अपने पहले ही कुछ मिनटों में हॉरर फिल्म का ऐसा मसालेदार तड़का पेश करती है कि बीच-बीच में जब भी ऐसे सीन आते हैं तो, आप एकदम से घबरा भी जाते हैं उन्हें देखते हुए। आखरी बार ऐसा हॉरर का तड़का कायदे से ‘तुम्बाड़’ फ़िल्म में देखने को मिला था। लेकिन हॉरर के मसाले से रंगा-रंग रंगी यह फ़िल्म खत्म होते-होते जब तीसरी कहानी पेश करती है, साक्षी बनी ‘नुसरत भरुचा’ के माध्यम से। तो दिल में एक अजीब सी कसमसाहट छोड़ जाती है। और इसके अंत में जब आप यह लिखा देखते हैं कि जितने समय में आपने यह फ़िल्म देखकर पूरी की है उतने से समय में इस देशभर में एक शतक से ज्यादा (यह आंकड़ा 113 लड़कियों का दिया जाता है। जो कि यूनाइटेड नेशनल पॉपुलेशन फंड के सालाना ‘स्टेट ऑफ वर्ल्ड -2020 में दर्ज है।) लड़कियां कोख में मारी जा चुकी हैं।
अब उन्हें मारने के कारण हजार हो सकते हैं। लेकिन फ़िल्म में परंपरा, रुढ़ विचार के साथ-साथ अच्छी फसल का होना भी एक टोटके के रूप में नजर आता है। हाल ही में आई फ़िल्म ‘सरदार उधम’ की तरह ही एक सीन में जब आप कुएं में पड़ी उन सैंकड़ों भोली-नादान बच्चियों के मृत शरीर के रूप में देखते हैं, तो आपकी आंखें छलछला आती हैं। इस बीच फ़िल्म के एक सीन में जब साक्षी अपनी ही कोख उजाड़ने चलती है, तब सुनैनी के भयानक रूप को देखते हुए डर तो लगता है लेकिन जैसे ही यह सीन ख़त्म होता है तब आपको उस पर ही नहीं अपितु अब तक इस दुनिया में बेवजह मारी गई उन बच्चियों का स्मरण भी हो आए। लाज़मी है कि इसी के साथ सुनैनी कि आंखों से बहने वाले अश्रुजल बिंदू आपकी आंखों के कोरों में स्वत: आ ढलकें।
साहित्य पढ़ते समय हम ‘रस’ के नौ प्रकारों को पढ़ते हैं जिसमें से एक करुण रस के बारे में आप जानते हैं तो उसका स्थायी भाव भी यह फ़िल्म अपनी ओर से जगा जाती है। इसके साथ ही जब आप वीभत्स और भयानक रस का परिपाक इस फ़िल्म को देखते हुए अपने भीतर उतार पाते हैं तो यह फ़िल्म बनाने वालों की ही नहीं बल्कि फ़िल्म देखने वालों की भी सार्थकता बनकर सामने आती है।
फिल्म ‘छोरी’ के निर्देशक ‘विशाल फुरिया’ ने अपनी ही मराठी फिल्म ‘लपाछपी’ को रीमेक के तौर पर इसे हिंदी में बनाया है। इससे पहले वे ‘क्रिमिनल जस्टिस’ वेब सीरीज
बनाकर दर्शकों एवं हम समीक्षकों का दिल जीत चुके हैं। विशाल ने ‘बली’ , ‘द मिसिंग स्टोन’ , ‘बॉम्बर्स’ जैसी कुछ चर्चित तो कुछ नामालूम फिल्में भी बनाई हैं। उनकी फिल्म ‘छोरी’ को देखने के बाद उनके भीतर के कलाकार तथा पर्दे पर रंग जमाने में कामयाब होने वाले निर्देशक से उम्मीदें बंध जानी स्वाभाविक हैं। उन्हीं की बनाई मराठी फिल्म में जो भूमिकाएं ‘उषा नायक’ और ‘पूजा सावंत’ ने निभाईं थीं। उन्हीं भूमिकाओं को इसके हिंदी रीमेक वर्जन में आप ‘मीता वशिष्ठ’ और ‘नुसरत भरुचा’ के माध्यम से देखते हैं। कायदे से देखा जाए तो बॉलीवुड के पास अच्छी कहानियों की कमी नहीं है। लेकिन बस उन्हें बनाने में उनकी नेक नियति नजर नहीं आती। इसलिए रीमेक पर रीमेक बना लिए जाते हैं। यही फ़िल्म पहले ही हिंदी में आती तो मराठी से ज्यादा सम्भवतः कमाई कर सकती थी।
ऐसी फिल्में जिनमें परंपराओं, रूढ़ियों वाली कहानी के साथ उनमें हॉरर का तड़का लगाकर उन्हें पेश किया जाता है तो वे कुछ समय पहले आई ‘स्त्री’ जैसी फिल्मों की तरह सफल भी हो जाती हैं। कमाई के लिहाज से भले ही न हो पाए लेकिन आमजन एवं बौद्धिक वर्ग जब उन्हें सराहने लगे तब निश्चित ही यह उनकी असल कमाई ही कही जाएगी।
इस फ़िल्म की कहानी को तो निर्देशक ने स्वयं ही लिखा लेकिन उनके साथ मिलकर इसके डायलॉग्स रचे हैं ‘विशाल कपूर’ ने और स्क्रीनप्ले भी उन्हीं का लिखा गया है। कपूर अगर ऐसा ही कमाल अपनी साल 2022 में आने वाली फ़िल्म ‘अटैक’ तथा ‘फोरेंसिक’ जैसी फिल्मों में दिखाए तो उनका फिल्मी कैरियर ग्राफ काफी ऊपर जा सकता है। एक्टिंग के लिहाज से किसी एक की एक्टिंग अच्छी कहना बाकी कलाक़ारों के साथ अन्याय होगा। ‘नुसरत भरुचा’ , ‘मीता वशिष्ठ’ , ‘राजेश जैस’ , ‘सौरभ गोयल’, ‘पल्लवी अजय’, ‘ग्रेसी गोस्वामी’ आदि सभी ने अपना काम आला तरीके से किया है।
मीता वशिष्ठ तो यूँ भी फिल्मी दुनिया में अपनी एक्टिंग के दम पर हमेशा दिल जीतती आईं हैं। इससे पहले उन्हें हाल ही में ‘कागज़’ , ‘कसाई’ , ‘क्रिमिनल जस्टिस’ में ऐसे ही उम्दा अभिनय करते हुए देखा गया था। ‘भारत एक खोज’ (1989) में दिखने के बाद से ही मीता वशिष्ठ बेहतरीन अभिनय करने वाली अभिनेत्रियों में गिने जाने वाला नाम बन गईं थीं। तिस पर ‘रुदाली’ , ‘तर्पण’ , ‘ताल’ , ‘दिल से’ , ‘द्रोहकाल’ , ‘गुलाम’ , ‘क्राइम जस्टिस’ , ‘कोई लौट के आया है’ , ‘कांची’ , ‘तृष्णा’ , ‘क्योंकि सास भी बहू थी’ जैसे धारावाहिकों तथा फिल्मों और अब वेब सीरीज में निभाए गए उनके एक से बढ़कर एक अहम किरदारों को नजरअंदाज किया ही नहीं जा सकता।
‘छोरी’ फ़िल्म की एक बड़ी स्टार कास्ट ‘नुसरत भरुचा’ ‘प्यार का पंचनामा’ , ‘प्यार का पंचनामा-2’ , ‘छलांग’ , ‘ ‘अजीब दास्तान्स’ , ‘सोनू के टीटू की स्वीटी’ , ‘ड्रीम गर्ल’ जैसी फिल्मों एवं सीरीज में काम करके अपने आपको बेहतर साबित करने की कोशिशें लगातार करती रही हैं। ‘कल किसने देखा’ , ‘आकाशवाणी’ , ‘जय मम्मी दी’ जैसी हल्की फिल्मों में उनका अभिनय भी हल्का देखने को मिला था। लेकिन बात करें ‘छोरी’ फ़िल्म की तो इसमें वे अब तक का अपना सबसे बेहतर प्रदर्शन करती नजर आईं हैं। नुसरत को चाहिए कि वे ऐसे ही किरदारों को ज्यादा चुने जो उनमें अभिनय की भूख को बढ़ाए, साथ ही वे अपनी इस कौशलता को और अधिक विकसित एवं समृद्ध बना पाए।
‘राजेश जैस’ तो जैसे एक्टिंग स्कूल है पूरा का पूरा ही। उनका अभिनय तथा उन भूमिकाओं के हिसाब से जमने वाला संजीदा लुक हमेशा से भीड़ से अलग उन्हें बनाता है। ‘राजी’ फ़िल्म में फिर सरवर का किरदार हो या ‘रब ने बना दी जोड़ी’ में खन्ना का। ऐसे ही ‘एयरलिफ्ट’ , ‘वनरक्षक’ , ‘रूही’ , ‘रुद्रकाल’ , ‘करीम मोहम्मद’ , ‘ब्रीणा’ , ‘पंचायत’ , ‘पाताल लोक’ , ‘स्कैम 1992’ , ‘इस प्यार को क्या नाम दूँ’ ‘रॉकेट सिंह’ , ‘टशन’ , ‘अजब सिंह की गजब कहानी’ जैसे उनकी झोली में ऐसे दर्जनों काम, उन सभी में जुदा-जुदा किरदार तथा एक्टिंग का ऊंचा स्तर देखा जा सकता है। ‘राजेश जैस’ को जब वे एक्टिंग की दुनिया में मशरूफियत थोड़ी कम रखते हों तब उन्हें एक एक्टिंग स्कूल खोलकर बराबर उसमें शिक्षा देनी चाहिए। ताकि स्ट्रगल कर रहे लोग उनसे सही अभिनय के गुर सीख सकें। उनके साथ मीता वशिष्ठ को भी ऐसा ही कुछ किया जाना चाहिए।
एक अन्य कलाकार ‘सौरभ गोयल’ ने इस फ़िल्म में दो भूमिकाएं करके हेमंत तथा राजबीर के रोल में अपने आपको काफी अच्छे से अपनी अभिनेय कला के माध्यम से देने लायक बनाने की काफी अच्छी कोशिश करते दिखाई देते है। जब फ़िल्म की शुरुआत में वे जिस तरह के सीन में नजर आते हैं और उसके बाद फ़िल्म खत्म होते-होते बीच-बीच में आकर जिस तरह अपने आपको साबित करने की कोशिश करते हैं वह सराहनीय है। ‘घर पे बताओ’ , ‘सिटी ऑफ ड्रीम्स’ , ‘मोसागल्लू’ , ‘रसगुल्ला’ , ‘लाखों में एक’ , ‘द फाइनल कॉल’ , ‘रंगबाज’ , ‘सील’ , ‘क्राइम पैट्रोल’ , ‘अकीरा’ जैसी कुछ अच्छी तो कुछ गुमशुदा टाइप फिल्मों में काम करके अपने आपको हमेशा साबित करने की सार्थक कोशिशें उनके द्वारा हुई हैं।
‘ग्रेसी गोस्वामी’ चाइल्ड आर्टिस्ट के तौर पर इस फ़िल्म में बेहद कम समय स्क्रीन पर देखने को मिलीं लेकिन अपने अभिनय एवं अंदाज़ से प्रभावित किया। ‘स्टार भारत’ के टीवी सीरियल ‘मायावी मलिंग’ में नजर आने वाली ग्रेसी ने कुछ बड़ी फिल्मों जैसे ‘कमांडों 3’ , ‘थप्पड़’ , ‘बेग़म जान’ , ‘द टेनेंट’ , ‘बालिका वधु’ के साथ-साथ ‘क्यों उत्थे दिल छोड़ आए?’ सोनी टीवी के धारावाहिक में आकर लगातार बतौर चाइल्ड आर्टिस्ट सबके दिल में जगह बनाने में कामयाबी हासिल तो की ही है, इसमें कोई दोराय नहीं।
अब बात करें फ़िल्म के बाकी कुछ पहलुओं की तो फ़िल्म में बैकग्राउंड देने वाला चेहरा चिर-परिचित नाम है। ‘केतन सोडा’ के बैकग्राउंड स्कोर ने इससे पहले भी ‘स्त्री’ , ‘हैदर’ , ‘जवानी जानेमन’ , ‘फैमली मैन’ (वेब सीरीज) , ‘सोनचिरैया’ , ‘तलवार’ , ‘विक्की डोनर’ , ‘पटाखा’ , ‘दंगल’ , ‘दृश्यम’ जैसे बेहतरीन काम करके सभी को न केवल मनोरंजित किया है बल्कि भरपूर अपने लिए तारीफ़ें भी बटोरीं हैं। फिल्मों में इस तरह का बैकग्राउंड स्कोर हो तो कमजोर लगने वाली फिल्में भी झेलने लायक बन जाती हैं। जबकि केतन के किए गए अब तक के कामों को देखते हुए लगता है कि जैसे मानो वे भी फ़िल्म बनने से पहले उसकी कहानी सुनते होंगे हमेशा।
इस फ़िल्म का एक और बेहतर पक्ष है इसके लिए
‘ विशाखा कुल्लरवार’ का किया गया कॉस्ट्यूम डिजाइन। विशाखा कॉस्ट्यूम डिजाइनिंग के मामले में ‘वीरप्पन’ , ‘आर्टिकल 15’ , ‘थप्पड़’ , ‘बुद्धा इन ट्रैफिक जैम’ और ‘घायल वन्स अगेन’ में भी अपने आपको हमेशा बेहतर ही प्रस्तुत किया है। फिल्मों के अनुकूल अगर कॉस्ट्यूम डिजाइन न हों तो भी फिल्में अजीब तथा फीकी बन जाती हैं अक्सर। इस मामले में ‘छोरी’ फ़िल्म कहीं भी निराश नहीं करती।
अपने एडिटिंग के काम से कई फिल्मों की लाज बचाने वाले ‘उन्नीकृष्णन प्यूर परमेस्वरान’ ने इस फ़िल्म में जिस तरह की एडिटिंग की है वह भी इस फ़िल्म को ऊंचे स्तर तक ले जाने में अहम भूमिका निभाती है। साथ ही ‘उत्कर्ष भारद्वाज’ द्वारा की गई फ़िल्म के अनुरूप सटीक कास्टिंग। शेख फारूक आदि के वीएफएक्स भी इस फ़िल्म को रीमेक होने के बावजूद अच्छा एवं दर्शनीय बनाने के साथ-साथ सराहनीय कहे जाने योग्य भी प्रोडक्ट बनाकर सामने लाते हैं।
इन सबसे इतर इसमें अपनी अहम भूमिका निभाती है तो गीत-संगीत के नाम पर एक लोरी। जो सुनने में जितनी अच्छी लगती उससे कहीं ज्यादा वह इस फ़िल्म की थीम के चलते आपका मन भारी करने लगती है। कुलमिलाकर कॉस्ट्यूम, मेकअप, कास्टिंग डायरेक्टर का काम, फ़िल्म के वीएफएक्स, एटिडर सभी जब ऐसे उम्दा काम करने लगें तो फिल्में दिल जीतने में कामयाब हो जाती नहीं हैं बल्कि यादगार और उदाहरण बनकर सामने आती हैं।
यूँ इस देश में चार तरह के वर्ण हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और इन सभी के वंश को बढ़ाने का उत्तरदायित्व लेने वाला आदमी भले ही होता हो उनकी रूढ़ियों के मुताबिक। लेकिन जब उन्हें कोख ही न मिला करेंगीं तब वे अपना वंश किसके दम पर आगे बढ़ाएंगे? यह भी फ़िल्म अपनी समाप्ति के बाद सोचने का भरपूर अवसर देती है। जैसे इसी फ़िल्म के एक डायलॉग्स में आप सुनते हैं – ‘क्या किसी रूल बुक में लिखा है? कि लड़कियां वो खेल नहीं खेल सकतीं जिन पर लड़कों का कॉपीराइट है।’ ऐसे ही एक सीन में जब ओटीटी पर्दे पर साक्षी यानी नुसरत भरुचा के हाथ, पांवों को रस्सी से बंधा पाते हैं तो वे उन बरसों पुरानी सड़ी परंपराओं को ही रूढ़ियों की बेड़ियों के सदृश्य नजर आने लगती हैं। फ़िल्म के बदलते सीन के साथ जब भान्नो देवी (मीता वशिष्ठ) के दो रूप एक ममतामयी तथा दूसरा किसी दुश्मन सास जैसा देखने को मिलता है तो फ़िल्म का ही एक डायलॉग जो समाज का सच है वह सार्थकता प्राप्त कर लेता है। वह डायलॉग बहुतेरे लोगों की जबान पर यूं भी गाहे-बगाहे आ ही जाता होगा। ‘एक औरत ही औरत की सबसे बड़ी दुश्मन है। इसी तरह एक संवाद और सुनाई पड़ता है जहां काजला बने राजेश जैस कहते हैं ‘अपनी औकात में रह, छोरी है। छोरी बनकर रह। औकात मैं नहीं आप भूल रहे हैं हर छोरी में एक मां होती है और मां से बड़ा ना किसी का ओहदा है ना किसी को औकात।’ यह संवाद भी औरतों को जो कमतर बताते हैं उन्हें फिर से उनकी महत्ता को बताने का काम करता है।
इस तरह यह फ़िल्म मात्र एक छोरी या फ़िल्म में पीड़ित होते हुए दिखाई गई कुछ लड़कियों या छोरियों की कहानी न रहकर पूरे देश की छोरियों की कहानी बन जाती है। अंत में सत्यमेव जयते टीवी शो वाला ‘ओ री चिरैया’ जब बजता है तो एक बार पुनः आपकी आंखों के कोरों को वह गीला कर ही जाता है। लंबे समय से कोई सामाजिक पृष्ठभूमि पर आधारित फ़िल्म या हॉरर के कई सारे मसालों वाली फिल्म का मिक्सचर आपकी आंखें नहीं चख पाई हैं, तो उन्हें इस फ़िल्म का स्वाद जरूर चखने दीजिएगा।
ऐसी फिल्में दिल के कोनों में गहरे अंतस्तल तक जाकर इस कदर बैठ जाती हैं कि जिसके बाद आप कुछ और स्वाद चखने में शायद लम्बा समय लगाएं। अमेजन प्राइम पर आई इस फ़िल्म को कानों से देखेंगे और आंखों से सुनेंगे तो इसका स्वाद लंबे समय तक बना रहेगा।
गज़ब की समीक्षा करते हो