Saturday, July 27, 2024
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अनघा जोगलेकर की कहानी – लिटमस पेपर

गोरी चिट्टी, सुनहरे बाल, नीली आँखें, घमंड में ऐंठी हुई गर्दन और गजब का एक्सेंट। ऑस्ट्रेलिया में पैदा हुई, पली-बढ़ी ‘ज्वो’ मेरे साथ भारत भ्रमण पर आई हुई है। मैं… ज्वो का पिता।
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हिंदुस्तान की उड़ान भरने वाली ऑस्ट्रेलियन एयरलाइंस की फ्लाइट में बैठते ही मैंने अपनी पैंट की जेब से एक लिस्ट निकाली लेकिन वह लिस्ट देखते ही ज्वो के चेहरे के भाव तिक्त हो उठे। उसे देख कुछ दिन पहले का मंजर मेरी आँखों के सामने घूम गया।
“व्हाट्स रॉन्ग विद यू पॉप्स!” गुस्से में ज्वो की आँखों का रंग नीले से थोड़ा कत्थई हो चला था।
“क्या हुआ ज्वो?” उसके गुस्से को देख मैंने पूछा। 
“इन वेकेशन्स ऑल ऑफ माय फ्रेंड्स आर गोइंग टू स्विट्जरलैंड पॉप्स एंड….एंड यू….” इतना कह ज्वो ने कोरियर से आई एयर टिकट्स मेरे सामने रखी टेबल पर पटक दीं, “हिडुस्टान… माय फुट,” वह धीरे से बोली।
“ज्वो, हिडुस्टान नहीं….. हिंदुस्तान,” मैंने कहा तो वह झल्ला उठी।
“व्हाटएवर….” कहते हुए उसने लापरवाही से कंधे उचका दिए।
मैंने कुछ न कहा। मुझे यूँ चुप खड़े देख वह एक बार फिर भड़की, “पॉप्स, योर हिडु… हिंडु…. हिंदु…स्तान एंड स्विजरलैंड – नो मैच…. नो कंपेरेजन एट ऑल ।”
उसके गुस्से से सर्वथा अप्रभावित मैंने मुस्कुराकर उसकी ओर देखा कि कम-से-कम ज्वो ने हिंदुस्तान का उच्चारण तो ठीक से किया। 
“बेटा, अब तो टिकट आ चुकी,” मैंने शांत आवाज में कहा।
“देन कैंसल इट…” शायद वह यही कहना चाहती थी लेकिन कुछ दिन पहले मेरी कही बात कि जिंदा रहते एक बार पूरा हिंदुस्तान घूमना चाहता हूँ, याद कर शायद चुप रह गई थी।
मैं बहुत कम उम्र में ही अपने माता-पिता के साथ ऑस्ट्रेलिया आ बसा था। फिर यहीं एक ऑस्ट्रेलियन लड़की से शादी कर ली, यहीं अपना व्यवसाय जमा लिया और बाद में काम और घर में इस तरह उलझा कि कभी हिंदुस्तान जा ही न पाया। लेकिन पिछले दो-तीन वर्षों से ज्वो को देख मन दुखी-सा हो गया है। यहाँ रहकर ज्वो बहुत रूखी-सी हो चुकी है। न रिश्तों की फिक्र और न ही बोलने में शालीनता। ज्वो का व्यवहार भी बहुत प्रैक्टिकल-सा हो गया है।  
बार-बार मेरे मन में आ रहा था कि ज्वो एक बार हिंदुस्तान की माटी की खुशबू सूंघ ले तो सब ठीक हो जाएगा। 
“पॉप्स…पॉप्स!” ज्वो ने पुकारा तो मैं वर्तमान में लौट आया।
“पॉप्स, फास्टन योर सीट बेल्ट, प्लेन टेकऑफ होने वाला है,” ज्वो ने याद दिलाया।
“अं….हं…हाँ, मैं तो भूल ही गया था। तुमने सीट बेल्ट बांध लिया न?”
मेरे प्रश्न पर ज्वो ने जो लुक दिया उसे देख मेरा मन कसैला हो गया है लेकिन मुझे अपने हिंदुस्तान पर पूरा विश्वास है कि मैं जिस मंशा से वहाँ जा रह हूँ वह जरूर पूरी होगी। 
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दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उतरते ही ज्वो ने इधर-उधर देखा है। हल्की चलती हवा में ज्वो के सुनहरे बाल उड़ रहे हैं। इतने लम्बे सफर और उस बन्द प्लेन की हवा में इतने घंटे सांस लेने के बाद यहाँ की खुली हवा ने ज्वो की थकान थोड़ी कम कर दी है।
हमने हवाई अड्डे से ही जल्दी-जल्दी में टैक्सी बुक कर ली है और अब हम होटल की ओर चल दिए हैं। 
आलीशान होटल के आर्किटेक्चर और हमारा बुक किया हुआ कमरा देख ज्वो को आश्चर्य हुआ है।
“क्या हुआ ज्वो! ऐसे क्या देख रही हो?”
“हिन्दू….हिंदुस्तान इस नॉट सो पूअर।” 
ज्वो की कही बात पर मैंने मुस्कुराकर कहा, “ज्वो, तुम हिंदुस्तान को भारत भी कह सकती हो।”
“भारत… यस इट्स ईजी। नाउ व्हाट नेक्स्ट…” ज्वो ने पूछा।
“मेरी लिस्ट के मुताबिक हम सबसे पहले कुतुबमीनार चलते हैं लेकिन पहले फ्रेश हो जाएँ, कुछ खा लें…. फिर निकलते हैं।“  
मेरी आँखों में भारत तैरने लगा ।  
“कुतुब… व्हाट?” लेकिन ज्वो क़ुतुब शब्द पर अटक गयी है।  
“कुतुबमीनार… कहते हैं कि इसे कुतुबुद्दीन ऐबक ने अपनी जीत की खुशी में बनवाया था।”
“ओके…ओके…” ज्वो ने सर हिलाया।
होटल से निकलते ही मैंने जानबूझकर टैक्सी न करते हुए एक ऑटो बुक करवाया है। ऑटो को देखकर ज्वो को हँसी आ गई। लेकिन वह कुछ बोली नहीं। शायद ‘ओखली में सर डाल ही दिया है तो मुसल से क्या घबराना’ कहावत इसी तरह के समय के लिए बनी है।
कुतुबमीनार के बाहर ऑटो को खड़ा कर मैं ड्राइवर का मोबाइल नंबर ले ही रहा हूँ कि ज्वो आगे बढ़ गई है।
वह फटी-फटी आँखों से कुतुबमीनार की ऊंचाई देख रही है। कुतुबमीनार के पास खड़े उस खंभे को देख वह मेरी ओर पलटी है।
मैं फिर मुस्कुराया जैसे जानता था कि ज्वो अभी ऐसे ही पलटेगी, “ज्वो, यह खंबा किसी ऐसी अनोखी धातु से बना है जो किसी भी मौसम में खराब नहीं होता। इस पर अब तक कितने ही प्रयोग हो चुके हैं लेकिन इसका राज कोई न जान सका। इसे 1600 साल पहले चंद्रगुप्त ने बनवाया था।”
“चन्द्र… गुप्त….हम्म,” यह कह ज्वो अब आसपास की जगह घूम रही है। शाम तक उसने कुतुबमीनार का पूरा इतिहास अपने साथ लाई ट्रैवल बुक में लिख लिया है। उसने इस ट्रिप को एक एडवेंचर तरह लेना शुरू कर दिया है। 
रात में खाने की टेबल पर बैठकर भी ज्वो खिड़की से बाहर आसमान को देख रही है। उसकी आँखों मे आज का देखा कुतुबमीनार सजीव हो उठा है। 
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देर तक सोने वाली ज्वो आज सुबह जल्दी उठ गई है। बरमुडा और टॉप पहने, अपने गीले बालों को झटकते हुए वह होटल के कैफे में मेरा इंतज़ार कर रही है।
मेरे आते ही उसका पहला प्रश्न है, “व्हाट्स नेक्स्ट इन योर लिस्ट पॉप्स?”
मैं मुस्कुराया, “अब ग्वालियर के किले की बारी है ज्वो।” 
“व्हाट अबाउट टाज… मेहल पॉप्स?” ज्वो ने पूछा तो मैंने उसकी ओर आश्चर्य से देखा।
“डोंट लुक एट मी धिस। आई हैव आल्सो प्रिपेयर्ड माय आइटेनरी।”
“ओके बाबा…. ” मैं उसकी बात पर मुस्कुरा दिया, “पता है ज्वो, आगरा का ताजमहल पूनम की रात को बहुत सुंदर दिखता है। चंद्रमा की किरणों में नहाया हुआ…. मानो उसपर आसमान से दूध की धार गिर रही हो। उस दूधिया रौशनी में संगमरमर की दीवारें सजीव हो उठती हैं जैसे खुद-ही-खुद पर लिखीं आयतें पढ़ रही हों।”
मेरी बात ज्वो को कितनी समझ आई… पता नही लेकिन मैंने जो भी कहा वह उसने अपनी ट्रेवल बुक में लिख लिया।
आगरा से होते हुए अब हम ग्वालियर पहुँचे हैं।
किले पर पहुँच ज्वो की प्रश्नवाचक निगाहें मेरी ओर उठ गई हैं। उसने अपनी ट्रेवल बुक भी खोल ली है।
“ज्वो, यह किला….. छठवीं शताब्दी में राजा सूरज सेन ने बनवाया था और यह जो पर्वत देख रही हो न, जिस पर यह किला बना है, इसे गोप पर्वत कहते हैं।” 
मैं ज्वो को बताता जा रहा हूँ, “इस किले पर कई आक्रमण हुए पर हिंदू राजाओं ने इसे गिरने नहीं दिया। यह किला भारतीय इतिहास की धरोहर है।” यह सब बताते हुए मेरी आँखें छलक आईं हैं। मुझे देख ज्वो विचलित हो उठी है।
अब हम ग्वालियर के राजमहल की ओर चल पड़े हैं। वहाँ की चांदी की ट्रेन देख ज्वो बच्चों की तरह हुलस उठी है। राजमहल की शानोशौकत देख ज्वो ने पूछा है, “हू इज… आई मीन… अब यहाँ…. कौन रहता है पॉप्स?” 
ज्वो को इस तरह अंग्रेजी से हिंदी में आते देख मेरा मन खिल उठा है, “अब यहाँ सिंधिया का राज परिवार रहता है।”
“सिंधिया….” ज्वो ने यह भी अपनी ट्रेवल बुक में लिख लिया है।
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अब ज्वो रात का समय सोने में बर्बाद करना नही चाहती। उसके कहने पर मैंने रात की फ्लाइट बुक कर ली है ताकि हम हमारे अगले पड़ाव – कोणार्क के सूर्य मंदिर सूर्योदय के समय तक पहुँच सकें। ज्वो ने आज बरमूडा और टॉप की जगह लम्बे कुर्ते के साथ जींस पहन ली है।
कोणार्क के सूर्य के रथ के आकार का मंदिर देख ज्वो आश्चर्यचकित हो उठी है। सूरज की पहली किरण जो मंदिर को चमका रही है, उसने ज्वो के मन को भी रोशन कर दिया है।
“यह मंदिर देश के 10 भव्य मंदिरों में से एक है ज्वो।”
मेरी बात सुन सम्मोहित-सी ज्वो उस मंदिरनुमा रथ को देख रही है जिसमें 12 विशाल पहिए लगे हैं और इस रथ को 7 ताकतवर घोड़े खींच रहे हैं। अभी सूर्योदय हुआ-ही-हुआ है और उसकी किरणों से पूरा मंदिर लाल हो उठा है। साथ-ही-साथ पत्थर की विशाल चट्टान से बना ऐसा भव्य शिल्प देख ज्वो का चेहरा कमल की तरह खिल उठा है।
“माय गॉड…” इतना कह ज्वो ने मेरी ओर देखा है।”
“चलो ज्वो, चंद्रभागा नदी के किनारे भी हो आते हैं।”
ज्वो चुपचाप मेरे साथ चल पड़ी है। मैं उसे नदियों का महत्व बताता जा रहा हूँ, “भारत में नदियों को माँ कहा और माना जाता है ज्वो। ये नदियाँ ही तो हम सबका माँ की तरह पालन पोषण करती हैं। इन नदियों के पानी से कितनी ही सभ्यताएँ फली हैं।”
ज्वो ने अपनी गुजर चुकी माँ को याद करते हुए चंद्रभागा के पानी को हाथों में ले लिया है। अंजुली के पानी में शायद ज्वो को अपनी माँ का चेहरा दिखा है। उसकी आँखों में मोती चमक उठे हैं। वह एक साथ रो भी रही है और हँस भी रही है। 
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खास ज्वो के कहने पर मैंने उसे अलग-अलग शहरों की अलग-अलग नदियों के बारे में विस्तार से बताया है। साथ ही यमुना, नर्मदा के साक्षात् दर्शन करते हुए अब हम वाराणसी पहुँचे हैं। आज ज्वो ने लम्बे कुर्ते और जींस की जगह ग्वालियर से खरीदा सलवार कुर्ता पहना है। नीले रंग के उन कपड़ों में उसकी आँखें कुछ ज्यादा ही नीली दिख रही हैं।  
हम काशी विश्वनाथ मंदिर के प्रांगण में खड़े हैं। अंदर शिवलिंग पर जलाभिषेक हो रहा है। खुश्क शब्दों में बात करने वाली ज्वो ने आज वहाँ खड़े पंडे से ‘प्लीज़’ कहकर अंदर जाने की अनुमति मांगी है। गर्भगृह में होते अभिषेक की जलधार से शिवलिंग के साथ ज्वो का अंतस भी भीग रहा है। 
शिवलिंग से निकलती अदृश्य तरंगों में ज्वो खोती जा रही है। पंडितों के मुख से उठते मंत्रोच्चार शिवालय में गूंज रहे हैं। ज्वो भी उनके साथ धीरे-धीरे उन मंत्रों को दोहराने का प्रयत्न कर रही है। उसके नेत्र आनंदातिरेक में सजल हो उठे हैं।
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काशी विश्वनाथ मंदिर से शिव के साकार रूप को आँखों मे बसा अब हम बनारस पहुँचे हैं। 
संध्या का समय हो चला है। हम दौड़े-दौड़े गंगा किनारे पहुँचे हैं। गंगा आरती शुरू हो चुकी है। उस अद्भुत दृश्य को ज्वो विस्फारित नेत्रों से देख रही है। सलवार कुर्ते की जगह कोणार्क से खरीदी मोतिया रंग की जरी बॉर्डर की साड़ी पहनी ज्वो स्वयं भी गंगा-सी उज्जवल दिख रही है।
सूर्य अस्त होने की तैयारी में है। अंधकार घिरने को है। उस बढ़ते अंधकार में भी अपार जनसमूह उमड़ा हुआ है। गंगा आरती के बड़े-बड़े दीप जल उठे हैं। वे दीप ज्वो की आँखों में भी प्रज्वलित हो उठे हैं। मंत्रोच्चार की पवित्र गूंज चारों दिशाओं के साथ उसके मन को भी शुद्ध कर रही है। 
गंगा आरती के बाद वहाँ खड़े जनसमूह ने अपने हाथ में पकड़े दीप गंगा की धार में प्रवाहित कर दिए हैं। ज्वो ने अपनी चप्पल के साथ हाथ में पकड़ी ट्रेवल बुक भी दूर टीले के नीचे रख दी है। अब हाथ धोकर वह भी एक बड़े से पत्ते पर दीया रख उसे प्रज्वलित कर रही है। उसने भी सब की देखा-देखी अपना दीप गंगा में प्रवाहित कर दिया है। दीपों से जगमगाती गंगा की लहरें उसके अंतस को भी जगमगा रही हैं। सबको कहते सुन उसके मुख से भी अस्फुट से शब्द निकले हैं, “जय…. माँ…. गंगे….”
ज्वो भावविभोर हो माँ गंगा का भव्य रूप देख रही है। उसकी ऐंठी हुई गर्दन कब नमस्कार की मुद्रा में झुक गई है इसका उसे भी पता न चल पाया है। उसके हाथ अपने-आप जुड़ गये हैं। नीली आँखों का दम्भ गालों पर ढुलक आया है। अब उसने भी माँ गंगा को साष्टांग प्रणाम किया है।
पास ही खड़ा मैं ज्वो को स्नेह से निहार रहा हूँ। अचानक मैंने पूछा, “ज्वो, तुम्हारी ट्रेवल बुक?”
“अब उसकी जरुरत नहीं है पापा….” यह कहते हुए ज्वो की आँखों के नीलम चमक उठे हैं। 
उसे पॉप्स से पापा पर आते देख  मैंने आशीर्वाद देते हुए उसके सर पर हाथ रख दिया है। मैं उसे समझा रहा हूँ, “ज्वो, हम चाहे जहाँ रह लें, चाहे जिस भी कल्चर में पले-बढें लेकिन हमारी अपनी मिट्टी की महक हमें हमारी संस्कृति की याद दिला ही देती है। यह जो मिट्टी है न, यह लिटमस पेपर की तरह होती है ज्वो। जैसे लिटमस पेपर अम्ल और क्षार की पहचान कराता है वैसे ही अपने देश की माटी विदेशी कल्चर में रहते हुए भी हमें हमारी पहचान से अवगत करा ही देती है,” मैंने अर्थपूर्ण नजरों से उसे देखते हुए पूछा है, “है न ज्वो!”
ज्वो ने पलट कर मेरे मुँह पर अपनी उंगली रख दी है। अपने भर्राए गले से उसने कहा है, “ज्वो नही पापा…जान्हवी….”
“जान्हवी…. जान्हवी…. जान्हवी….”
आज पहली बार मैं अपनी बेटी को उसके असली नाम से पुकार रहा हूँ। उसके शब्द ‘ज्वो नही पापा… जान्हवी’ मेरे कानों में गूंज रहे हैं।
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