
हिन्दी साहित्यकारों को भला कितने दिनों तक लॉकडाऊन में रखा जा सकता था? उन्होंने फ़टाफ़ट फ़ेसबुक लाइव औऱ ज़ूम के ज़रिये अपने मित्रों, प्रशंसकों और पाठकों तक पहुंचना शुरू किया। राजपाल एण्ड सन्स, वाणी, राजकमल, यश आदि ने लाइव की शुरूआत की तो मुंबई के प्रलेक प्रकाशन के जितेन्द्र पात्रो ने तो लाइव का इस क़द्र इस्तेमाल किया कि रोज़ाना दिन भर प्रलेक ऑनलाइन ही रहता है।
एक ज़माना था जब कवि या लेखक अपनी रचनाएं सुनाया करते थे। सुन सुन कर बहुत से धार्मिक ग्रन्थ तक लिखे गये। कथा-वाचन एक लोकप्रिय सांस्कृतिक गतिविधि थी। पंडित विद्यानिवास मिश्र वाचिक परम्परा में ‘अभिव्यक्ति के सलोनेपन’ की बात करते हैं। अभिव्यक्ति के सलोनेपन को समझाने में ही पूरा संपादकीय ख़र्च हो जाएगा। यह मान लिया जाए कि वाचिक परम्परा ने वर्षों, दशकों और सदियों तक हमारी संस्कृति, परम्परा और साहित्य को जीवित रखा।
कोरोना वायरस ने लॉक-डाउन के ज़रिये पूरे समाज को घरों में बन्द कर दिया है। मज़ेदार बात यह है कि कोरोना भी चीन के वुहान शहर से विश्व भर में फैला और ज़ूम ऐप भी चीन ने ही बनाया जो विश्व के लोगों को इस लॉकडाऊन में एक दूसरे से संपर्क साधने में सहायक सिद्ध हो रहा है। मुझे याद है कि कोरोना की शुरूआत में ही न्यूयॉर्क से भाई अशोक व्यास ने अपने टीवी चैनल के लिये ज़ूम पर मेरा साक्षात्कार किया था।
यानि कि जीवन की सच्चाई यह है कि हम हर काम के लिये गूगल और चीन पर निर्भर हैं। बिना गूगल के दिशा-निर्देश के हम कुछ कर नहीं पाते और ये करने के लिये ज्यादातर गैजेट चीन ही बनाता है। कल तो कमाल ही हो गया जब मैं अपने शहर हैरो के एक हार्डवेयर स्टोर से डोर-बेल ख़रीदने गया तो दुकान के मालिक सरदार जी ने जितनी भी डोर-बेल दिखाईं सभी की सभी चीन की बनी थीं।
फ़ेसबुक लाइव आदि पर समस्या लाइव के शुरूआत में ही दिख जाती है। बेचारा वाचिक करीब पांच से दस मिनट तक एक ही बात कहता सुनाई देता है – “क्या मेरी आवाज़ आप तक आ रही है? सुनिये… क्या आप मुझे सुन पा रहे हैं? अरे अभी तक तो पीयूष जी (या कोई भी जी) स्वयं ही नहीं आए हैं? हैलो… हैलो… क्या मेरी आवाज़ आप सुन पा रहे हैं?” कुछ वरिष्ठ साहित्यकार ऐसे भी हैं जो संघर्ष करते रहते हैं मगर सही पेज पर जा नहीं पाते हैं। जब तक वे पेज पर पहुंचते हैं, समय निकल चुका होता है।
अर्च्च्ना चतुर्वेदी ने ठी कहा।भारत मे WiFi current.अपने मन म
से आते जाते हैं ।पार्लर को भूल जाए hairdresser
ही खुल जाए
सम्पादकीय वर्तमान परिदृश्य को उजागर कर रही है।दर्शक उस्तादों को भी सुन पा रहे हैं और नए रचनाकारों को भी।
पर कभी आभास होता है “अति सर्वत्र वर्जते ,”, ।
साहित्य में वाचिक परंपरा, हस्तलिखित से मुद्रित पुस्तकों तक की लंबी यात्रा के बाद एक नए प्रकार से इसकी पुनर्वापसी का महत्त्वपूर्ण अवलोकन किया है।
सार्थक समकालीन बेहतरीन लेख
बीच-बीच में सम्वाद शैली का प्रयोग सम्पादकीय को और भी अधिक जीवन्त बना रहा है।