• प्रियंका ओम

एक
मैं उस ओर जाना चाहती हूँ
जिधर हो नीम अँधेरा !
अंधेरे में बैठा जा सकता है
थोड़ी देर सुकून से
और बातें की जा सकती हैं
ख़ुद से
थोड़ी देर ही सही
जिया जा सकता है
स्वयं को !
अंधेरे में लिखी जा सकती है कविता
हरे भरे पेड़ की
फूलों से भरे बाग़ीचे की और
उड़ती हुई तितलियों की
अंधेरे में देखा जा सकता है सपना
तुम्हारे साथ होने का
तुम्हारे स्पर्श की,
अनुभूतियों के स्वाद चखने का
सफ़ेद चादरों को रंगने का
और फिर तुम्हारे लौट जाने पर
उदास होने का !
मैं उस ओर जाना चाहती हूँ
जिधर हो नीम अँधेरा !
क्यूँकि अंधेरे में,
दिखाई नहीं देती उदासियाँ !
दो
आज बहुत दिनों बाद
लिखी है मैंने प्रेम कविता
क्यूँकि मुझे नही भाता
तुम्हारा शब्द समर्थ होना
बल्कि सुहाता है तुम्हारा
प्रेम आसक्त होना
तुम्हारे शब्दों में
मेरा परिलक्षित होना
मुझे नही भाता
तुम्हारा कुछ और लिखना
लिखना जो तुम चाहो
तो लिखो रंग और सुगंध
जैसे
सफ़ेद शर्ट के बीच से झाँकती
बसंती पीले रंग की साड़ी सी
कौंध जाती है तुम्हारी याद ”
या लिखना
लाल कुर्ते में तुम्हारी तस्वीर
मेरी आँखो का दुकूल पैरहन है
मुझे नही भाता
तुम कुछ और लिखो
लिखना जो चाहो तो
कवि श्री नरेश मेहता से लिखो
“तुम्हारा संस्मरण ही सुगंध है प्रिया”
क्यूँकि ख़ुशबुएँ महबूब की याद होती है !
तीन
तुमसे अलग मेरा जीवन
मूक, अवाक् और विस्मित
विलीन हो गया अनगिनत क्षण
गवाह मेरा एकाकी
अशांत मन !
तुम हमेशा से निष्ठुर थे
क्या पाया तुमने
मुझे छोड़ कर
क्या तुम विचलित नहीं?
क्या मिल गया तुम्हे वो सब
जो पाना चाहते थे
मुझसे अलग होकर !
देखा है मैंने तुम्हें
जिन्दगी की झंझावात से जूझते हुए,
रफ्तार की तरह भागते हुए
एक दिन जब थक जाओगे
फिर तलाशोगे मेरे निशाँ
और मै करुँगी तुम्हारा आलिंगन
ठीक उसी तरह
जैसे किया था पहली बार
लेकिन उसका क्या
चला गया जो वक़्त
ज़िन्दगी से पंछी की तरह
मुक्त ; आजाद लेकिन उदास
बिना किसी ख़ुशी के
बिना किसी आँसू के
किसी भी याद के बिना
मेरा जीवन जो आकांक्षी था
रहेगा बेस्वाद !!
चार
गणित नहीं हूँ मैं कि सुलझा लोगे मुझे
न हूँ मैं कोई पुराना इतिहास
की खंडर में ढून्ढ लोगे मुझे
गृह सज्जा का विकल्प नहीं मैं
कि कीमत लगाते हो मेरी
न इस्तेमाल की कोई वस्तु
कि करते हो दान मेरा
औरत हूँ मैं,
मेरा सम्मान कीजिये
मुझसे ही सृस्टि है
मैं ही सृजन करती हूँ
मेरा सम्मान कीजिये।
समझने को कोशिश मुझे ?
अबूझ पहेली हूँ
त्रिया चरित्र भी कहा तुमने मुझे
स्वीकार है ।
किन्तु भाग्य पर भारी हूँ
तुम पुरुष हो
दम्भ है, धिक्कार है ।
पांच
तुम्हारे लिए मै सिर्फ काया थी
सुलभ, उपलब्ध
उपभोग मात्र साधन
तुम मेरे लिए सब कुछ थे
लेकिन तुम्हारे लिए
मै बस्स भोग्या,
तुम्हारे शब्दों की स्याही
मेरे श्याम वर्ण से भी काली थी
जो मेरे मन और आत्मा पर
ढ़ेरो कालिख बिखेरती थी
और तुम्हारे विचारों की सुक्ष्मता
जब मेरे छोटे कद पर
कटाक्ष करते थे
तब तुम्हारे अन्दर का बौनापन
निवस्त्र हो जाता था ।
एक द्वंद छिड़ गया था
तुम्हारी धृष्टता और
मेरी सहजता में
तुम्हारी विजय निश्चित थी
तुम पुरुष अभिमानी
मै प्रकृति की मारी
कमज़ोर नारी
किन्तु आज,
तुम्हारे चेहरे पर
अकेलेपन के दर्द से
उभर आई रेखायें
मेरी जीत की गवाही
और तुम्हारे हार की निशानी है।

1 टिप्पणी

  1. बहुत खूबसूरत शब्दों से रोपा है आने भावों को प्रियंका। ऐसे ही आगे बढ़ती रहो।

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