Saturday, July 27, 2024
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सुमित चौधरी की चार कविताएँ

1- हम लौट आएंगे एक दिन पूरे हुजूम के साथ

लौट जाओ
अपने घरों को
लग जाओ चूल्हे-चौके में
पाल लो भेड़, बकरियां और गाय
बंदकर दो विश्वद्यालयों को
और बना दो देश को विश्वगुरु
जिससे बचा रहे
तुम्हारे देश का मान मर्दन होने से

हमारे लिखने-पढ़ने से
तुम्हरे आताताईपन का भेद खुल जाता है
तुम्हारे कर्मकांडी ज्ञान धराशायी हो जाते हैं
तुम तिलमिला जाते हो कलम की ताकत से
और शुरू कर देते हो अपने दोगले चरित्र का राग
धीरे-धीरे चाल देते हो दीमक जैसे
तब्दील कर देते हो मलवे में हमारे सपनों को

तुम्हारे ज्ञान का गढ़ कितना अछूत है
उसमें नहीं हो सकता हमारे व्यक्तित्व का विकास
हम नहीं बधकर लेना चाहते तुम्हारा ज्ञान
हम होना चाहते हैं घुमक्कड़ी
जिससे देखी जा सके दुनिया की तमाम सभ्यताएं
जिसके-जिसके मुहाने पर कतर दी गई हों ज्ञान की शाखाएं

तुम मुट्ठी भर लोग
धूर्त और अत्याचारी हो
तुम जिस संस्कृति को जन रहे हो
हम उससे विलग होकर
पूरे हुजूम के साथ
लौट आएंगे एक दिन
अपने चौके,चूल्हे,भेड़,बकरियों और गायों के साथ
कब्ज़ा कर लेंगे विश्वविद्यालयों पर
तुम्हारे लाख कोशिशों के बावजूद भी
जिससे किया जा सके तुम्हारे मंसूबों का मर्दन

2- नानी की पीठ

बहुत चौड़ी होती है
महिलाओं की पीठ
बिल्कुल जमीदार के आँगन की तरह
जिसे हर वक्त रौदा जाता है
मैंने बचपन में
अपने नानी के पीठ को
नीले रंगों में सना हुआ देखा था
जैसे बंजर जमीन का जुता हुआ टुकड़ा
मैं उस समय समझ न सका
नानी का दर्द और पीठ पर नीले रंग का मर्म
जबकि आज सोचकर सहम जाता हूँ कि
नानी की पीठ कोई बंजर जमीन नहीं थी
वह थी एक उपजाऊ जमीन
जिस पर मेरी माँ, मेरे मामा
और मैं लदकर बड़े हुए थे
नानी पीठ के सहारे
पेट भर अन्न देती थी
पीठ से ही दुनिया नाप लेती थी
मेरी नानी अपनी आँखों के सुरमे को
आँखों से लगाकर
दूर तलक देखती थी
उसके भविष्य का सुनहरा सपना
बावजूद इसके हम नहीं समझते
स्त्रियों के पीठ का मर्म
सिवाय बंजर जमीन के टुकड़े के

3- बच्चे मुस्कुराने के सिवाय कुछ नहीं जानते

दुनिया के हर मुल्क़ में
सबसे मासूम होते हैं
बच्चे
वे कुछ नहीं जानते
कि कैसे बोए जाते हैं
काँटे भरे बीज
कैसे फ़ान दी जाती है
कंटीले तार
दो देशों के बीच
कैसे बना दी जाती है एक आंगन में
ईश्वर और अल्लाह की इमारतें

बच्चे सिवाय मुस्कुराने के
कुछ नहीं जानते
वे यह भी नहीं जानते
कि जो दूध पिया है हमने वो किसका है
संग खेला है हमने जिसके
क्या जाति है उसकी
जिस बट्टे में पिया है हमनें पानी
उसे किसने किया है जूठा
जिस खिलौने से हम खेल रहे हैं
वो है किसका
बच्चे!
सिवाय मुस्कुराने के
कुछ नहीं जानते

जबकि हम लोगों ने कुछ नहीं सीखा
बच्चों से
यह भी नहीं सीखा कि कैसे है मुस्कुराना
एक-दूजे को देखकर
कैसे होना है सहवासी
एक-दूजे के दुख-सुख में
कैसे मिटाना है पृथ्वी पर बनी अनंत रेखाएँ

जबकि पाल रखा है हमने मन के भीतर
किसी गुबार को
जो घटने नहीं देता हमारी ढ़ठिली ऊंचाई
मेमनों के बच्चों को देखकर भी
नहीं पिघलता स्वाति की बूँद तरह
हमारा मन
नहीं लपकता बच्चों जैसा
किसी दूसरे की गोद में बैठने को
तना रहता है हर समय काँटों जैसा

4- साथी

तुम जब भी साथ रहती हो
क्रांति के समय
मुझे अपने होने का एहसास होता है
और मैं यह मान चला होता हूँ
कि क्रांति अब होकर रहेगी
क्योंकि तुमने पूरी की है
एक यात्रा
चूल्हे, चौके और चकली से लेकर
सड़क तक की।

सुमित चौधरी
सुमित चौधरी
शोध छात्र- भारतीय भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय. संपर्क - [email protected]
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