ज्ञान प्रकाश विवेक की पाँच ग़ज़लें
यारो, मैं इक मकान था ऐसे गिरा कि बस
फिर उसके बाद सारा शिराज़ा बिखर गया
वो भूख का मारा हुआ जोकर था दोस्तो
जंगल में एक हिरनी अनायास गिर पड़ी
मैंने ज़रा-सा डाँट दिया था परिन्द को
चाय का कप उछल के कहीं दूर जा गिरा
जुगनू की ज़िन्दगी थी फ़कत एक रात की
थोड़ा भटक गया हूँ मेरा इंतज़ार कर
ये रेल का सफ़र बड़ा लंबा है क्या करूं
कपड़े नये पहन के मैं निकला ज़रूर था
अब तक तो आ ही जाता जो होता मैं कार में
आगे का रास्ता मुझे बिल्कुल पता नहीं
जूते की कील चुभने लगी थी मुझे ज़रा
होती है मेरे साथ हज़ारों अलामतें
हर शख़्स ढूंढता है वहाँ अपने आप को
तुम्हारी रोज़ की अनबन से रिश्ता टूट जाएगा
अभी आकाश की गुल्लक ज़रा हो जाएगी ख़ाली
कमस खाई है मैंने ऐ समन्दर तुझ से लड़ने की
ये शीशे का महल जो देखने में ख़ूबसूरत है
अभावों का उठाए फिर रहा है बोझ मुद्दत से
पुराने दोस्तों से कृष्ण जी मिलते नहीं यारो!
हमेशा फ़ासले में ज़िन्दगी रखती रही मुझको
कभी जहाज़ कभी कश्तियां बनाते हैं
ये वो शहर जहाँ बारिशें नहीं होतीं
हूज़ुर! आपने बनवाए हाईवे लेकिन
हमारे पास ज़रा-सी ज़मीन है यारो !
हमारी शहर के बच्चों में है बहुत इज्ज़त
बदन की खोल कर पुस्तक बिखर जाने को जी चाहे
मुसाफ़िर हूं मैं ऐसा सरफिरा मेरा न पूछो तुम !
मैं यूं तो काफ़िले के साथ शामिल हूँ मगर यारो
ऐ दरिया, तेरे पानी कि लहर बनता रहा बरसों
किया है जोग धारण मैंने इक मुद्दत हुई लेकिन
ज्ञान प्रकाश विवेक
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