Saturday, July 27, 2024
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हरियश राय की कलम से – मन में गहरी प्रश्‍नाकुलता को समाये दिव्या विजय की डायरी ‘ दराज़ों में बन्द ज़िन्दगी ‘

दिव्या विजय की डायरी ‘दराज़ों में बन्द ज़िन्दगी’ को पढ़ना एक सुखद अनुभूति से गुजरना है. इस डायरी से उनकी सोच, उनके अनुभव और जीवन जगत के उन घात- प्रतिघातों का पता चलता है जो दिव्या विजय की स्मृति में स्थायी रुप से दर्ज है. जनवरी 2017 से लेकर दिसम्बर 2019  तक के दिनों की स्‍मृतियों को दिव्या विजय ने बेहद मार्मिकता, सूक्ष्मतता  और संवेदनशीलता के साथ इस डायरी में दर्ज किया है. डायरी में  दिव्या विजय द्वारा अपने पति रौशन को, अपने बच्‍चो,प्रीति व रायना, को बार- बार याद करना उनकी पारिवारिकता के कई परतों को सामने रखता है. तीन सालों के अपने जीवन के जिन संदर्भों और प्रसंगों का दिव्या विजय ने अपनी इस डायरी में अंकन किया है, वे संदर्भ और प्रसंग लड़कियों को पुरुष वर्चस्व समाज द्वारा उनके सामने रखी गई उन सीमाओं और वर्जनाओं से भी बाहर आने की राह दिखाते हैं जो उनकी आजादी को, उनकी सोच को कुंद करके उन्‍हें लक्ष्‍मण रेखा में बांधे रखना चाहती हैं. अपनी इस डायरी में  दिव्या विजय सीता की तरह लक्ष्‍मण- रेखा को तोड़ती दिखाई देती है.   
इस डायरी में दिव्या विजय के जयपुर, नैनीताल, मुंबई, बैंकांक, हुआहिन, कराबी, जैसलमेर, धर्मशाला, रिखोली और मसूरी के तीन साल के संस्‍मरण संकलित हैं. इन जगहों पर गुज़ारे गये दिन और उन दिनों में पारिवारिक मित्रों के साथ बैठकों के दौरान की गई बातों और उन बातों में निहित व्यापक संदर्भों  का पता इस डायरी से चलता है जो मनुष्य के जीवन को बदलने के लिए काफी होते है. वे अपने अनुभवों के इर्द-गिर्द बहुत कुछ बुनती- पिरोती दिखाई देती हैं. इन संस्‍मरणों में एक गहरी प्रशनाकुलता है. दिव्या विजय  जीवन – जगत के अपने उन अनुभवों और छोटे-छोटे संदर्भों व घटनाओं को इस डायरी में दर्ज करती हैं जो उनके मानस पटल पर एक कचोट की तरह बसी हुई हैं जैसे मकर संक्रांति के अवसर पर छत में पतंग उड़ाना, नैनीताल में एक मुसलमान का हिन्‍दू लड़की से विवाह करना, गांधी हत्‍या के प्रसंग, मुंबई –लिट- ओ फैस्‍ट में उनकी किताब ‘अलग़ोज़े की धुन’ का लोकापर्ण, किशोर उम्र में एक लड़के द्वारा परेशान करना और बीस साल बाद उसी लड़के द्वारा अपने कृत्यों के लिए माफी मांगना और दिव्या विजय द्वारा यह कहकर उसे क्षमा न करना कि ‘’ माफी के उसके शब्‍द उसकी किशोरावस्‍था नहीं लौटा सकते और अब वह अपने अपराधों के सलीब अब वे स्‍वयं ढोएं यही उनका पश्चाताप होगा’’  ऐसी अनुभूतियों को दिव्या विजय ने अपनी इस किताब में बेहद कुशलता से याद किया हैं. 
काफका की कहानी मेटा मॉ‍र्फसिस, चेखव की कशतंका, मार्क ट्वेन की ‘ए डॉग्‍स टेल’ जैसी कहानियों के संदर्भ, मोहन राकेश की डायरी, कालिदास के संघर्ष, इजाडोरा की प्रेम कथा, खलील जिब्रान, प्रियवंद, हिमांशु जोशी, राजेन्‍द्र यादव, निर्मल वर्मा की रचनाओं के पात्रों के सहारे दिव्या विजय अपने आप को साहित्‍य की उन क्‍लासिक रचनाओं के पात्रों से जोड़ती है जो उनकी संवेदनाओं- भावनाओं- अनुरागों के अनुरूप है. साहित्‍य की इन रचनाओं के सहारे दिव्या विजय के अध्‍ययन का कैनवास भी हमारे सामने खुलता है और उनके सामाजिक सरोकारों और उनकी मन:स्थितियों का भी पता चलता है जो डायरी की संवेदनशीलता को और अधिक बढ़ाता है.
डायरी लिखना भी यदि एक कला है तो दिव्या विजय की इस डायरी में डायरी लिखने के विलक्षण और नई तरकीबों के साक्ष्य मिलेंगे जो उनके भीतर की संवेदनशीलता को सामने रखते है. प्रेम पूरी डायरी में एक अंत सलिला की तरह मौजूद है जो मन में एक अलग ही प्रभाव पैदा करता है. डायरी पढ़ते- पढ़ते कई बार निर्मल वर्मा के गद्य की भी याद हो आती है. 
अपनी इस डायरी में दिव्या विजय अपने मन से जगत में और जगत से अपने मन में बार-बार आवाजाही करती हैं  और जगत में हो रही घटनाओं को अपनी अंतश्‍चेतना चेतना में इस तरह डूबो कर लिखती है कि पाठकों को बिना प्रभावित किये बिना नहीं रहती.  यह उनके खूबसूरत  गद्य की खूबी है. स्‍त्री विमर्श के सवालों से जूझती हुई दिव्या विजय इस डायरी में सकारात्मक रुप से अपनी बात कहती हैं कि हम शायद बदलाव चाहते ही नहीं हैं तभी अच्‍छे बदलावों के प्रति भी नकारात्मक दृष्टिकोंण रखते हैं.’     
दिव्या विजय अपनी इस डायरी में मुक्ति के सवाल पर आत्ममंथन करती हैं और अपने आप से ही सवाल करती हैं  ‘स्‍वयं से मुक्‍त होना कैसे होता है ? समाज में रहते हुए ऐसी मुक्ति संभव भी है ? इस मुक्ति की आकांक्षा होती ही क्‍यों है ? उनकी यह संवेदना  निर्मल वर्मा की परिंदे कहानी की लतिका से जुड़ जाती है. परिंदे कहानी की लतिका कहानी के अंत में लतिका डाक्‍टर से सवाल करती है, ‘’ डॉक्टर, सब कुछ होने के बावजूद वह क्या चीज़ है जो हमें चलाए चलती है, हम रुकते हैं तो भी अपने रेले में वह हमें घसीट ले जाती है.’  डायरी में दिव्या विजय  स्वदेश दीपक के संस्‍मरण मैंने मांडु नहीं देखा  को बार-बार याद करती हैं और यह सवाल करती हैं कि ‘किसी का जीवन इतना डार्क कैसे हो सकता है और वह इस अंधेरे को याद रख कर शब्‍दों में कैसे ढाल सकता है.’  दिव्या विजय अपनी इस डायरी में जीवन मृत्यु जैसे शाश्वत सवालों से भी टकराती हुई जीवन की गतिशीलता और जीवन में प्रेम को सर्वोपरि रखती हैं और यही उनकी डायरी की बहुत बड़ी खूबी है.
हरियश राय
मोबाइल – +91 98732 25505

 

 

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