सुशोभित सक्तावत, सोशल मीडिया पर एक चर्चित नाम हैं। अपनी मोहक भाषा में सियासत से साहित्य तक विविध विषयों पर फेसबुक पर लिखने वाले सुशोभित पेशे से पत्रकार हैं। पत्रकारिता के कई बड़े संस्थानों में अच्छे पदों पर रहे हैं और फिलहाल दैनिक भास्कर की पत्रिका ‘अहा! ज़िन्दगी’ में सहायक सम्पादक के रूप में कार्यरत हैं। इनकी तीन किताबें मलयगिरी का प्रेत, मैं बनूंगा गुलमोहर और माया का मालकौंस आ चुकी हैं। साक्षात्कार श्रृंखला की छठवीं कड़ी में प्रस्तुत है सुशोभित सक्तावत से युवा लेखक/समीक्षक पीयूष द्विवेदी की बातचीत:

सवाल – बात की शुरुआत इस एकदम रूटीन-से सवाल से कि अपनी जीवन-यात्रा के विषय में बताइए।
सुशोभित – मेरी जीवन-यात्रा में बताने जैसा कुछ बहुत रोचक और रुचिकर नहीं है। यह एक ऐसी कहानी नहीं है, जिसको पढ़कर किसी को प्रेरणा मिल सकती हो। पीछे लौटकर देखने पर विसंगतियों की एक शृंखला ही पाता हूं। अनेक संयोगों से जुड़कर यह जीवन बना। नितांत एक्सीडेंटल क़िस्म की चीज़ों ने जीवन की दिशा बदली है। हज़ार उनके अफ़साने हैं, जिनका बयान यहां क्या करूं। कभी आत्मकथा लिखने का मन हुआ तो वो कहानी सुनाऊंगा। सिलसिलेवार न सही, कुछ महत्वपूर्ण प्रसंगों को आलोकित करने का यत्न अवश्य करूंगा। अगस्त में मेरी नई पुस्तक ‘माउथ ऑर्गन’ आ रही है, जिसमें मैंने अपने अनेक जीवन-प्रसंगों को नैरिटव फ़ॉर्म में व्यक्त किया है। जेएम कोएट्ज़ी इसको फ़िक्शनलाइज़्ड मेमॉयर्स कहेगा, किंतु एक कुहरिल कल्पना के साथ बरती गई स्वच्छंदता के बावजूद उस पुस्तक में ऐसे अनेक प्रसंग चले आए हैं, जो मेरी जीवन-यात्रा के बारे में गम्भीर सूचनाएं देते हैं, बशर्ते उन सूचनाओं का किसी के लिए कोई महत्व हो ही।

सवाल – आप कई बड़े मीडिया समूहों में अच्छे पदों पर रहे हैं, लेकिन मैंने कहीं आपके परिचय में पढ़ा था कि आपने पत्रकारिता की केवल एक साल पढ़ाई की और वो भी ‘अन्यमनस्क’?
सुशोभित – आज अगर मैं एक नौजवान की तरह नौकरी की तलाश करने निकलूं तो कम से कम मीडिया में तो मुझे नौकरी नहीं मिलेगी, बशर्ते सम्पादक की नज़र पारखी हो। आज मीडिया की दुनिया में प्रवेश के लिए पत्रकारिता की डिग्री को एक अघोषित मानदंड माना जाने लगा है, वो आपके रेज़्यूमे का हिस्सा होना चाहिए। मेरे पिता पत्रकार थे, किंतु पुराने समय में एक फ़ाक़ाकश ख़बरनवीस की जो परिकल्पना थी, उसके अनुरूप। आजीविका के लिए वे दूसरे छोटे-मोटे कार्य करते थे और पत्रकारिता के ऐवज़ में उन्हें समाचार पत्र की बीसेक प्रतियां दी जाती थीं। ये प्रतियां स्वयं ही साइकिल से वितरित कर रुपये उगाहने होते थे और यही पत्रकार का पारिश्रमिक था। मैं उन दिनों बेकार था, इसलिए उन्होंने उसी समाचार पत्र में मुझे काम पर लगवा दिया, जिसके लिए न्यायालयीन निर्णयों की रिपोर्टिंग वे किया करते थे। प्रूफ़ रीडिंग की नाइट शिफ़्ट थी और तनख़्वाह छह सौ रुपया थी। यह 1999 की बात है। बाद में मैंने अंग्रेज़ी साहित्य में स्नातकोत्तर किया। तब तक अख़बार में आठ-दस साल की नौकरी कर चुका था। पत्रकारिता की डिग्री के लिए दूसरा स्नातकोत्तर कोर्स 2007 में जनसंचार में किया। किंतु एक साल पढ़ाई करके ही उसे छोड़ दिया। अन्यमनस्क पढ़ाई उसे इसलिए कहता हूं कि पत्रकारिता के जिस सत्य और स्वरूप को पूरी-पूरी रात जागकर इतने सालों में देखा, समझा, बूझा था, उसके इर्दगिर्द भी उसकी सैद्धांतिक पढ़ाई पहुंच नहीं पाती थी, और साहित्य की पढ़ाई के उलट इसमें कोई बौद्धिक चुनौती नहीं थी। एक और वर्ष स्वयं को उसमें ख़र्च करने का कोई औचित्य तब मालूम नहीं हुआ, भले डिग्री न मिल पाए फिर।
सवाल – आप पत्रकार और साहित्यकार में से ख़ुद को अधिक क्या मानते हैं?
सुशोभित – यहां तो कोई दुविधा ही नहीं है। मैं स्वयं को साहित्यकार तो नहीं कहूंगा किंतु साहित्य मेरे जीवन का अंतर्सत्य है, यह नि:शंक है। मेरे ही नहीं, किसी के भी जीवन में अख़बार कभी वो जगह नहीं हासिल कर सकता, जो कविता की एक किताब कर सकती है। अख़बारों को इससे नाराज़ नहीं होना चाहिए। न्यूज़ पेपर को फ़र्स्ट ड्राफ़्ट ऑफ़ हिस्ट्री कहा जाता है- इतिहास का कच्चा मसौदा। किंतु सच तो यह भी है कि एक सुचिंतित इतिहास भी कभी किसी उपन्यास में व्यक्त होने वाले मनुष्य की चेतना के आत्मीय सत्यों को प्रकट नहीं कर सकता। सूचना और समाचार हमेशा साहित्य के समक्ष गौण ही रहेंगे।
सवाल – आपकी हालिया किताब ‘माया का मालकौंस’ मैंने पढ़ी है। जहां तक मेरी जानकारी है, इसमें संकलित आलेख आपने पहले फ़ेसबुक पोस्ट के रूप में लिखे थे। क्या आपको नहीं लगता कि किताब की शक्ल देते वक़्त इन लेखों को थोड़ा और विस्तार दिया जाना चाहिए था? कुछेक लेख कुछ अधिक ही छोटे नहीं रह गए हैं?
सुशोभित – कुछेक लेख छोटे रह गए, यह एक सापेक्ष दृष्टि हो सकती है। क्योंकि लेखक यह भी कह सकता है कि उनमें मुझे उतना भर ही कहना था। क्या पूर्व में फ़ेसबुक पोस्ट्स के रूप में लिखे गए इन लेखों को विस्तार दिया जाना चाहिए था? हां भी और नहीं भी। हमें यह समझना चाहिए कि एक लेखक भाषा और अवबोध के स्तर पर निरंतर एक प्रक्रिया से गुज़रता है। ‘माया का मालकौंस’ में मेरा जो लेखन संकलित हुआ है, आज चाहकर भी उसका पुनर्लेखन नहीं कर सकता। वैसा अवबोध ही नहीं रहा। तो अगर मैं किसी लेख को बढ़ाना चाहता भी तो मुझे उसका मुहावरा अब नहीं मिलता। ‘मैं बनूंगा गुलमोहर’ और ‘माया का मालकौंस’ जैसी पुस्तकों का लेखक आज जो कुछ लिख रहा है, वह उनसे बहुत फ़र्क़ है। दूसरे, अपने जिस फ़ेसबुक खाते पर मैंने वह सब लिखा था, वह अब हमेशा के लिए नष्ट हो चुका है और जिन मित्रों ने उसे तब पढ़ा था, वे भी अब कहां हैं? बहुतेरे मित्रों के लिए ‘माया का मालकौंस’ तब एक पूर्णतया अभिनव प्रवर्तन ही सिद्ध हुई है।
सुशोभित की प्रकाशित किताबें
सवाल – साहित्य क्षेत्र में आपका प्रवेश बड़ी तेज़ी से हुआ है। ये बात मैं इस अर्थ में कह रहा हूं कि बड़ी जल्दी आपकी एक के बाद एक तीन किताबें आ गई हैं, आगे शायद और भी आने वाली हैं। क्या कुछ अनुभव होता है?
सुशोभित – ये कहना ग़लत होता कि साहित्य में तेज़ी से प्रवेश हुआ। साहित्य में हमारा प्रवेश पुस्तकें प्रकाशित होने या पुरस्कार मिलने या प्रशंसकों का वर्ग निर्मित होने से नहीं होता है। साहित्य में हमारा प्रवेश तब होता है, जब किसी पुस्तक में व्यक्त होने वाला अंतर्सत्य हमें छू लेता है और हम अपनी सुदूर आकांक्षाओं में इस रोमांच को स्थान दे देते हैं कि क्या मैं भी ऐसा ही कुछ लिख सकता हूं, और क्या उसे भी कभी किसी के द्वारा पढ़ा जाएगा, जैसे आज मैं यह तॉल्सतॉय को पढ़ रहा हूं। तो कह लीजिए, साहित्य में मेरा प्रवेश 1999-2000 में हो गया था। 2007 के बाद से नियमित गद्य-लेखन किया है। 2010 के बाद से ब्लॉग और फ़ेसबुक जैसे माध्यमों की सहायता से उस लेखन को पाठक भी मिले, यह संयोग और सौभाग्य ही था। अब जाकर पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। यह भी इत्तेफ़ाक़ ही है कि कुछ माह के भीतर तीन पुस्तकें एक-एक कर आईं और अब चौथी भी प्रकाशन के लिए तैयार है। मित्रों और फ़ेसबुक-पाठकों ने इन पुस्तकों को ख़रीदकर पढ़ा है, किंतु हिंदी साहित्य की मुख्यधारा ने उन पर न के बराबर ध्यान किया है, जो कि स्वाभाविक ही है। तब इस परिप्रेक्ष्य में आप यह भी कह सकते हैं कि साहित्य क्षेत्र में मेरा प्रवेश तो अब भी नहीं हुआ है।
सवाल – एक समय आप फे़सबुक पर वाम विचारधारा के विरोधी लेख लिखते थे, फिर एक दिन अचानक आप दक्षिणपंथी विचारधारा के ख़िलाफ़ लिखने लगे और अब इन दिनों आप इन सब विचारधाराओं से अलग साहित्य आदि की बातों में लगे हैं! इतनी वैचारिक अस्थिरता क्यों?
सुशोभित – एक दिन अचानक जैसा कुछ नहीं होता है। वह बाहर से देखने वालों को लगता है। भीतर उसकी अंत:प्रक्रियाएं होती हैं। वाम विचारधारा से मेरा बुनियादी मतभेद है। वह एक विरूपित विश्वदृष्टि है और मनुष्य को एक मनोवैज्ञानिक संरचना के बजाय एक सामाजिक व्यतिक्रम में देखने की भीषण भूल करती है। वह वर्गीकरण का विभ्रम रचती है। इतना ही नहीं, वह स्वयं को सद्‌गति का इकलौता उपाय मान बैठती है और मनुष्य की विवशताओं और सीमाओं से निर्मित भिन्न परिप्रेक्ष्यों के प्रति सदाशय नहीं होने पाती। यह तो हुई दार्शनिक प्रतिफलनों की बात। वाम विचारधारा के विरुद्ध वैचारिक युद्ध छेड़ने के तात्कालिक कारण तब उपस्थित थे। कुछ घटनाओं की प्रतिक्रिया में वह उग्र और अधीर लेखन हुआ, जो अपनी तार्किक सरणी में अभेद्य होने के बावजूद अपने आशयों में आक्रामक था। मुझे उससे बचना चाहिए था। इसलिए नहीं कि वाम के विरोध में लिखने के कारण हिंदी साहित्य की मुख्यधारा आपको अपवित्र और अस्पृश्य मान लेती है, बल्कि इसलिए कि नियति के द्वारा सौंपे गए संघर्ष क्या पहले ही कम हैं, जो हम अकारण के युद्धों और टकरावों और संघर्षों में स्वयं को ख़र्च करें, ख़ासतौर पर तब, जब हम देखते हों कि इस हस्तक्षेप से कोई भी रचनात्मक परिणाम सामने नहीं आ रहा है और केवल कोलाहल ही निर्मित हो रहा है। दक्षिणपंथी विचारधारा के विरुद्ध लेखन भी कोई सुनियोजित पैंतरा नहीं था। उस विचारधारा में न्यस्त पूर्वग्रहों, जो कि वैयक्तिकता के बजाय संस्थानीकरणों को मान्यता देने वाले समस्त आग्रहों में अनिवार्यत: चले आते हैं, के समक्ष प्रतिकार की एक चेष्टा मेरे भीतर सदैव से रही थी। वाम विरोधी रण के चलते दक्षिण ने भूल से अपना मान लिया था तो उसका निस्तारण भी उस सचेत हस्तक्षेप के कारण तुरंत ही हो गया था। इधर मैं अपने चित्त में स्थिर हो गया हूं। लेखन से मुझको क्या अर्जित करना है, यह समझ लिया है। क्या पढ़ना है और क्या लिखना है और सबसे बढ़कर यह कि किस तरह की ऑडियंस को मुझे ना केवल एड्रेस करना है, बल्कि उसकी पूर्वकल्पना करके ही लिखना है, यह भी निश्चित हो चला है। तो अब आप राजनीतिक लेखन मेरे यहां नहीं देखते हैं, सम्भवतया निकट-भविष्य में तो नहीं ही देखें।
सवाल – हिंदी साहित्य में एक समय से वाम विचारधारा का वर्चस्व रहा है, जो अब धीरे-धीरे टूट रहा है। इस वैचारिक वर्चस्व का साहित्य पर कैसा प्रभाव देखते हैं आप? और आपकी नज़र में साहित्य की विचारधारा क्या होनी चाहिए?
सुशोभित – क्या सच में ही ऐसा है? सोशल मीडिया पर ज़रूर दक्षिणपंथी नैरेटिव हावी है, इंटरनेट पर वह वामंपथ के साथ बराबर की लड़ाई लड़ रहा है, किंतु साहित्य और अकादमिक अध्ययन की मुख्यधाराओं में वाम वर्चस्व यथावत है। लेखक को स्वीकृति आज भी उसी से मिलती है। हिंदी का लेखक अगर अपने लिए मान्यता की तलाश कर रहा है तो उसे वामपंथी लटकों-झटकों में ही जाना होगा, वही सबाल्टर्न की भाषा, वही सतही वर्गचेतना, वही पूर्वनिर्धारित निष्कर्ष, वही दोहरे मानदंड, और वही बौद्धिक बेईमानी। जब अज्ञेय, श्रीनरेश मेहता और निर्मल वर्मा (प्रसंगवश, तीनों ही भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता) जैसों को नहीं बख़्शा गया तो कोई टुटपूंजिया, कैरियरिस्ट, अपार्चूनिस्ट युवा लेखक क्या खाकर इनसे मुक़ाबला करेगा? वो अपने भीतर प्रतिक्रियावादी अवयव होने के बावजूद अगर ऊपर से उदारवादी स्वांग रचने को बाध्य हो जाए तो इसमें आश्चर्य नहीं। मेरा मत है कि वाम के प्रत्याख्यान के रूप में दक्षिण की प्रस्तावना वाम-विजय का सबसे बड़ा निमित्त है। दक्षिण उसके लिए बलि का बकरा है। कमज़ोर प्रतिस्पर्धी है। वह कभी नहीं चाहेगा कि पब्लिक डिबेट में उसके सम्मुख उग्र और असंयत राइट विंगर्स के बजाय एक गहरी, समोवशी, संश्लिष्ट और सुचिंतित विश्व-दृष्टि उपस्थित हो। अपने लिए आसान शत्रु और अनुकूल नैरेटिव का चयन करना वाम की सुविचारित रणनीति है। मीडिया, साहित्य और अकादमियों से वाम वर्चस्व का अंत तब तक नहीं हो सकेगा, जब तक वाम को अपदस्थ करके दक्षिण की प्रतिष्ठा का स्वप्न देखने के बजाय उत्तर-आधुनिक मनुष्य की चिंताओं और ग्रंथियों और संशयों से संवाद करने वाली एक गम्भीर दृष्टि वहां अपने लिए एक जगह बना सकेगी। साहित्य की विचारधारा के बारे में आपने पूछा है तो मैं कहूं कि मानवीय प्रसंग ही साहित्य की इकलौती राजनीति है, वही उसका पूर्वग्रह है, और ये प्रसंग बहुविध और व्यापक हैं। पूर्वनिर्धारित विचारधाराएं इस अंतर्सत्य को उलीच नहीं सकतीं।
सवाल – अंग्रेज़ी साहित्य में आपने स्नातकोत्तर किया है। आपकी फेसबुक पोस्टों से पता चलता है कि आप पढ़ने में ठीकठाक समय बिताते हैं। हिंदी और अंग्रेज़ी में से किसका साहित्य अधिक पढ़ते हैं?
सुशोभित – पढ़ने वाले की गति अगर दोनों भाषाओं में है, तो उसके समक्ष हिंदी-अंग्रेज़ी का वैसा कोई भेद नहीं होता। हिंदी की तुलना में अंग्रेज़ी में ही अधिक पढ़ा है किंतु वह सब का सब अंग्रेज़ी में लिखा नहीं गया था। वह विश्व की बहुतेरी भाषाओं से अंग्रेज़ी में अनूदित हुआ है। अगर हम सभी विश्व-भाषाओं में पढ़ी गई चीज़ों का अलग-अलग श्रेणीकरण करें तो यही पाएंगे कि हिंदी में ही सर्वाधिक पढ़ा है। इधर बहुत धीमी गति से रिल्के के शोकगीत पढ़ रहा हूं, जो जर्मन भाषा में लिखे गए थे और अंग्रेज़ी में अनूदित हैं। हम उसे अंग्रेज़ी में प्रकाशित होने के बावजूद अंग्रेज़ी का साहित्य नहीं कह सकते। दूसरी तरफ़ कुंवर नारायण और अरुण कमल का पाठ भी इसी के समांतर चल रहा है। संयोगवश ये तीनों ही कवि हैं। इधर गद्य के बजाय कविताएं अधिक लिखना भी हुआ है।
सवाल – हिंदी साहित्य के वर्तमान परिदृश्य पर कुछ कहना चाहेंगे?
सुशोभित – यह एक निरंतर विकसित होती हुई परिघटना है और बहुत सारी प्रवृत्तियां एक-एक कर प्रकट हो रही हैं। इतिहास ही इसका मूल्यांकन करेगा। मैंने इस साहित्य का वैसा सांगोपांग अध्ययन नहीं किया है और न ही इस पर मेरी इतनी पैनी नज़र है कि कोई आलोचकीय टिप्पणी करने के योग्य स्वयं को पाऊं।
सवाल – इन दिनों नए और युवा लेखकों द्वारा जो साहित्य रचा जा रहा है, उस पर आपकी क्या राय है? कुछ नए लेखक जिनका लेखन आपको प्रभावित करता हो?
सुशोभित – मैंने इन नए लेखकों में से बहुतों की पुस्तकें पढ़ी नहीं हैं और लेखक के फ़ेसबुक-व्यवहार से उसकी रचनात्मकता का अनुमान नहीं लगाना चाहिए। मेरे जैसे निष्ठावान फ़ेसबुक-लेखक के उलट अन्य लेखक अपना गम्भीर कार्य पुस्तकों में ही व्यक्त करते हैं। फ़ेसबुक उनके लिए हल्की-फुल्की टिप्पणियों का एक ज़रिया भर मालूम होता है। पुस्तकें पढ़े बिना कोई टिप्पणी कैसे करूं? अनेक युवा हैं, जो अच्छा लिख रहे हैं। उनमें से कई अभी भाषा की मोहिनी से चमत्कृत हैं। कुछ शैलीकरण पर मुग्ध हैं। कुछेक के यहां जातीय गौरव रह-रहकर बोल उठता है। निरंतर रियाज़ और जीवनानुभवों से ही उनके भीतर साहित्य का यह सत्व निर्मित होगा कि श्रेष्ठ लेखन इन सरणियों के परे होता है, और यह वही लेखन है, जो मनुष्यता के बुनियादी भयों, विश्वासों, लगावों, दुविधाओं, जटिलताओं और संशयों को व्यक्त करने में सक्षम हो, और उसके लिए एक उपयुक्त रूपाकार भी खोज लाए। सभी युवा लेखकों को स्वयं का मूल्यांकन इन्हीं मानदंडों पर करना चाहिए।
सवाल – इन दिनों लेखक लिखने के साथ-साथ किताब बेचने का दोहरा भार उठा लिए हैं। हिंदी साहित्य में पूर्णकालिक लेखक यूं ही बहुत कम हैं, ऐसे में यदि लेखक को किताब बेचने में भी समय खपाना पड़े तो वो लेखन के साथ कितना न्याय कर पाएगा? इस विषय में आपकी राय?
सुशोभित – ये तो सच है कि लेखक स्वयं अपनी पुस्तक का प्रचार करे, यह अशोभनीय लगता है। फिर आप यह भी कह सकते हैं कि अगर लेखक ही अपनी किताब के बारे में औरों को नहीं बताएगा, तो वैसा और कौन करेगा? ख़ासतौर पर तब, जब वो गुटनिरपेक्ष और गोत्रहीन हो और किसी प्रकार की मण्डली उसे हाथोंहाथ लेकर घूमने को उपलब्ध न हो। पुराने समय के लेखक क्या वैसा करते, यह पता करने का साधन इसलिए नहीं है क्योंकि उनके पास आज के जैसे सोशल मीडिया हैंडल्स नहीं हुआ करते थे, जहां से वे अपने बारे में सूचनाएं प्रसारित कर सकते। लेखक लिखता चाहे जिस कारण से हो, पुस्तक वो पढ़ी जाने के लिए ही प्रकाशित करवाता है। पुस्तक अधिक से अधिक पढ़ी जाए, यह उसकी बुनियादी इच्छा होती है। अगर लेखक सोशल मीडिया पर लोकप्रिय है, तो वो अपनी इस पूंजी को आज़माकर देखता है। बाज़ दफ़े ये भी देखा जाता है कि किसी पुस्तक का एक संस्करण खप नहीं पाया, वहीं किसी अन्य का पहला संस्करण लेखक की फ़ेसबुक-लोकप्रियता के कारण तुरंत बिक गया। इस तरह किताब को एक ओपनिंग मिल गई, ये मोमेंटम अब वो आगे कैरी करेगी। पढ़ी जाएगी नहीं पढ़ी जाएगी, सराही जाएगी नहीं सराही जाएगी, उसका कोई साहित्यिक मूल्य होगा नहीं होगा, यह बाद के प्रश्न हैं। लेकिन अगर पब्लिशिंग एक इंडस्ट्री है, और इसी कारण अगर बुक एक कमोडिटी है, तो उसकी खपत इस उद्योग का पहला नियम होगा। यह आधुनिक लेखक का आपदधर्म बन गया है कि वह अपनी पुस्तक के विवरणों, उसकी अंतर्वस्तु और उसके प्रदर्शन की सूचनाएं अपने मित्रों-पाठकों तक स्वयं प्रसारित करे। मन ही मन इससे असहज अनुभव करने वाले लेखकों के लिए तब सबसे बड़ा दिवास्वप्न तो वही होगा कि किसी दिन उनके बिना भी उनकी पुस्तक अपने गंतव्य तक पहुंच सके, उन्हें बीच में आने की ज़रूरत ना पड़े। क्योंकि लिखने या लिखने की तैयारी करने के अलावा तमाम चीज़ें लेखक को अपने केंद्र से अपदस्थ ही करती हैं।
सवाल – वरिष्ठ फ़िल्म समीक्षक जयप्रकाश चौकसे ने आपकी पुस्तक ‘माया का मालकौंस’ पर लिखते हुए आपको सलाह दी थी कि आप क्लिष्ट के बजाय सरल भाषा लिखने का प्रयास करें। इस पर क्या कहना चाहेंगे?
सुशोभित – अव्वल तो ये कि उन्होंने वैसा कहा, यह उनका अधिकार है। किंतु क्लिष्ट हिंदी क्या होता है, इस पर बात की जा सकती है। हो सकता है, मेरी भाषा मुझे क्लिष्ट न लगती हो, जिसको लगती है वह अपने भाषाबोध के बारे में स्वयं जाने। क्लिष्ट भाषा और अस्वाभाविक भाषा में भी अंतर होता है। मुझको लगता है मेरी भाषा तत्समनिष्ठ होने के बावजूद अस्वाभाविक नहीं है। वह अपनी अंतर्वस्तु के साथ सहज है और उसमें एक प्रवाह होता है। अपनी भाषा से मेरा एक निजी रागात्मक सम्बंध स्थापित हो चुका है। किसी और रूप में स्वयं को व्यक्त करना अब कठिन और अवांछनीय ही होगा। इससे पाठकों तक पहुंच कम होती हो तो मुझे इसे ही अपनी नियति मानकर स्वीकार लेना चाहिए।
पीयूष – आपसे बात करके अच्छा लगा। बहुत-बहुत धन्यवाद।
सुशोभित – साक्षात्कार सदैव ही आत्मप्रकाश का एक रोमांचक अवसर रहता है। यह भी वैसा ही अनुभव सिद्ध हुआ। इसके लिए बहुत शुक्रिया।
उत्तर प्रदेश के देवरिया जिला स्थित ग्राम सजांव में जन्मे पीयूष कुमार दुबे हिंदी के युवा लेखक एवं समीक्षक हैं। दैनिक जागरण, जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला, नवभारत टाइम्स, पाञ्चजन्य, योजना, नया ज्ञानोदय आदि देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में समसामयिक व साहित्यिक विषयों पर इनके पांच सौ से अधिक आलेख और पचास से अधिक पुस्तक समीक्षाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। पुरवाई ई-पत्रिका से संपादक मंडल सदस्य के रूप में जुड़े हुए हैं। सम्मान : हिंदी की अग्रणी वेबसाइट प्रवक्ता डॉट कॉम द्वारा 'अटल पत्रकारिता सम्मान' तथा भारतीय राष्ट्रीय साहित्य उत्थान समिति द्वारा श्रेष्ठ लेखन के लिए 'शंखनाद सम्मान' से सम्मानित। संप्रति - शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय। ईमेल एवं मोबाइल - sardarpiyush24@gmail.com एवं 8750960603

9 टिप्पणी

  1. अच्छा साक्षात्कार,,,,, बहुत दिनों बाद कोई साहित्य आधारित क्षात्कार पढ़ा,,,,सारगर्भित और संतुलित

  2. सुशोभित से उनसे उनकी रचनाप्रक्रिया, उनके गद्य की भाषा में पश्चिमी प्रभाव आदि जैसे कुछ और सवाल पूछे जा सकते थे … उन्होंने अनुवाद का भी कुछ बढ़िया काम किया है और आहा जिंदगी में नई जान फूंकी है , नई ताजगी दी है , उनकी सम्पादकीय दृष्टि के बारे में भी कम से कम सवाल होना चाहिए था … अधूरा सा है यह साक्षात्कार .

    • प्रिय अरुण जी, अगर आपके पास पृथक से मेरे लिए कोई प्रश्नमाला हो तो आपका स्वागत है। मुझे उत्तर देकर प्रसन्नता होगी।
      -सुशोभित

  3. सुशोभित सिंह शक्तावत का बेहद स्पष्ट और सुसंगत साक्षात्कार पढ़ना अलग किस्म का अनुभव रहा।इसका श्रेय जितना सुशोभित को उतना ही पीयूष को भी देना होगा।

  4. Sushobhit Sir. I am a big fan of your writing..Few months back u had some heated arguments with some extreme right wingers after u posted an article on Devi Sita..I loved that article but bcoz of the some people who think Lord Ram as only their private property u were very angry and wrote that u will never write in Hindi etc etc..I was deeply hurt by ur stance and asked u that if it is true than I will stop following u bcoz I like to read ur hindi articles more. But u blocked me after that. I guess now all that is sorted and u are back with ur beautiful writing in Hindi as earlier but I am still blocked 🙁 . Though I follow ur page and am able to read ur articles but I cant like or comment on them. Its my humble request to please unblock me. I am a big fan of ur writing.

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