सुशोभित सक्तावत, सोशल मीडिया पर एक चर्चित नाम हैं। अपनी मोहक भाषा में सियासत से साहित्य तक विविध विषयों पर फेसबुक पर लिखने वाले सुशोभित पेशे से पत्रकार हैं। पत्रकारिता के कई बड़े संस्थानों में अच्छे पदों पर रहे हैं और फिलहाल दैनिक भास्कर की पत्रिका ‘अहा! ज़िन्दगी’ में सहायक सम्पादक के रूप में कार्यरत हैं। इनकी तीन किताबें मलयगिरी का प्रेत, मैं बनूंगा गुलमोहर और माया का मालकौंस आ चुकी हैं। साक्षात्कार श्रृंखला की छठवीं कड़ी में प्रस्तुत है सुशोभित सक्तावत से युवा लेखक/समीक्षक पीयूष द्विवेदी की बातचीत:
सवाल – बात की शुरुआत इस एकदम रूटीन-से सवाल से कि अपनी जीवन-यात्रा के विषय में बताइए।
सुशोभित – मेरी जीवन-यात्रा में बताने जैसा कुछ बहुत रोचक और रुचिकर नहीं है। यह एक ऐसी कहानी नहीं है, जिसको पढ़कर किसी को प्रेरणा मिल सकती हो। पीछे लौटकर देखने पर विसंगतियों की एक शृंखला ही पाता हूं। अनेक संयोगों से जुड़कर यह जीवन बना। नितांत एक्सीडेंटल क़िस्म की चीज़ों ने जीवन की दिशा बदली है। हज़ार उनके अफ़साने हैं, जिनका बयान यहां क्या करूं। कभी आत्मकथा लिखने का मन हुआ तो वो कहानी सुनाऊंगा। सिलसिलेवार न सही, कुछ महत्वपूर्ण प्रसंगों को आलोकित करने का यत्न अवश्य करूंगा। अगस्त में मेरी नई पुस्तक ‘माउथ ऑर्गन’ आ रही है, जिसमें मैंने अपने अनेक जीवन-प्रसंगों को नैरिटव फ़ॉर्म में व्यक्त किया है। जेएम कोएट्ज़ी इसको फ़िक्शनलाइज़्ड मेमॉयर्स कहेगा, किंतु एक कुहरिल कल्पना के साथ बरती गई स्वच्छंदता के बावजूद उस पुस्तक में ऐसे अनेक प्रसंग चले आए हैं, जो मेरी जीवन-यात्रा के बारे में गम्भीर सूचनाएं देते हैं, बशर्ते उन सूचनाओं का किसी के लिए कोई महत्व हो ही।
सवाल – आप कई बड़े मीडिया समूहों में अच्छे पदों पर रहे हैं, लेकिन मैंने कहीं आपके परिचय में पढ़ा था कि आपने पत्रकारिता की केवल एक साल पढ़ाई की और वो भी ‘अन्यमनस्क’?
सुशोभित – आज अगर मैं एक नौजवान की तरह नौकरी की तलाश करने निकलूं तो कम से कम मीडिया में तो मुझे नौकरी नहीं मिलेगी, बशर्ते सम्पादक की नज़र पारखी हो। आज मीडिया की दुनिया में प्रवेश के लिए पत्रकारिता की डिग्री को एक अघोषित मानदंड माना जाने लगा है, वो आपके रेज़्यूमे का हिस्सा होना चाहिए। मेरे पिता पत्रकार थे, किंतु पुराने समय में एक फ़ाक़ाकश ख़बरनवीस की जो परिकल्पना थी, उसके अनुरूप। आजीविका के लिए वे दूसरे छोटे-मोटे कार्य करते थे और पत्रकारिता के ऐवज़ में उन्हें समाचार पत्र की बीसेक प्रतियां दी जाती थीं। ये प्रतियां स्वयं ही साइकिल से वितरित कर रुपये उगाहने होते थे और यही पत्रकार का पारिश्रमिक था। मैं उन दिनों बेकार था, इसलिए उन्होंने उसी समाचार पत्र में मुझे काम पर लगवा दिया, जिसके लिए न्यायालयीन निर्णयों की रिपोर्टिंग वे किया करते थे। प्रूफ़ रीडिंग की नाइट शिफ़्ट थी और तनख़्वाह छह सौ रुपया थी। यह 1999 की बात है। बाद में मैंने अंग्रेज़ी साहित्य में स्नातकोत्तर किया। तब तक अख़बार में आठ-दस साल की नौकरी कर चुका था। पत्रकारिता की डिग्री के लिए दूसरा स्नातकोत्तर कोर्स 2007 में जनसंचार में किया। किंतु एक साल पढ़ाई करके ही उसे छोड़ दिया। अन्यमनस्क पढ़ाई उसे इसलिए कहता हूं कि पत्रकारिता के जिस सत्य और स्वरूप को पूरी-पूरी रात जागकर इतने सालों में देखा, समझा, बूझा था, उसके इर्दगिर्द भी उसकी सैद्धांतिक पढ़ाई पहुंच नहीं पाती थी, और साहित्य की पढ़ाई के उलट इसमें कोई बौद्धिक चुनौती नहीं थी। एक और वर्ष स्वयं को उसमें ख़र्च करने का कोई औचित्य तब मालूम नहीं हुआ, भले डिग्री न मिल पाए फिर।
सवाल – आप पत्रकार और साहित्यकार में से ख़ुद को अधिक क्या मानते हैं?
सुशोभित – यहां तो कोई दुविधा ही नहीं है। मैं स्वयं को साहित्यकार तो नहीं कहूंगा किंतु साहित्य मेरे जीवन का अंतर्सत्य है, यह नि:शंक है। मेरे ही नहीं, किसी के भी जीवन में अख़बार कभी वो जगह नहीं हासिल कर सकता, जो कविता की एक किताब कर सकती है। अख़बारों को इससे नाराज़ नहीं होना चाहिए। न्यूज़ पेपर को फ़र्स्ट ड्राफ़्ट ऑफ़ हिस्ट्री कहा जाता है- इतिहास का कच्चा मसौदा। किंतु सच तो यह भी है कि एक सुचिंतित इतिहास भी कभी किसी उपन्यास में व्यक्त होने वाले मनुष्य की चेतना के आत्मीय सत्यों को प्रकट नहीं कर सकता। सूचना और समाचार हमेशा साहित्य के समक्ष गौण ही रहेंगे।
सवाल – आपकी हालिया किताब ‘माया का मालकौंस’ मैंने पढ़ी है। जहां तक मेरी जानकारी है, इसमें संकलित आलेख आपने पहले फ़ेसबुक पोस्ट के रूप में लिखे थे। क्या आपको नहीं लगता कि किताब की शक्ल देते वक़्त इन लेखों को थोड़ा और विस्तार दिया जाना चाहिए था? कुछेक लेख कुछ अधिक ही छोटे नहीं रह गए हैं?
सुशोभित – कुछेक लेख छोटे रह गए, यह एक सापेक्ष दृष्टि हो सकती है। क्योंकि लेखक यह भी कह सकता है कि उनमें मुझे उतना भर ही कहना था। क्या पूर्व में फ़ेसबुक पोस्ट्स के रूप में लिखे गए इन लेखों को विस्तार दिया जाना चाहिए था? हां भी और नहीं भी। हमें यह समझना चाहिए कि एक लेखक भाषा और अवबोध के स्तर पर निरंतर एक प्रक्रिया से गुज़रता है। ‘माया का मालकौंस’ में मेरा जो लेखन संकलित हुआ है, आज चाहकर भी उसका पुनर्लेखन नहीं कर सकता। वैसा अवबोध ही नहीं रहा। तो अगर मैं किसी लेख को बढ़ाना चाहता भी तो मुझे उसका मुहावरा अब नहीं मिलता। ‘मैं बनूंगा गुलमोहर’ और ‘माया का मालकौंस’ जैसी पुस्तकों का लेखक आज जो कुछ लिख रहा है, वह उनसे बहुत फ़र्क़ है। दूसरे, अपने जिस फ़ेसबुक खाते पर मैंने वह सब लिखा था, वह अब हमेशा के लिए नष्ट हो चुका है और जिन मित्रों ने उसे तब पढ़ा था, वे भी अब कहां हैं? बहुतेरे मित्रों के लिए ‘माया का मालकौंस’ तब एक पूर्णतया अभिनव प्रवर्तन ही सिद्ध हुई है।

अच्छा साक्षात्कार,,,,, बहुत दिनों बाद कोई साहित्य आधारित क्षात्कार पढ़ा,,,,सारगर्भित और संतुलित
शुक्रिया।
सुशोभित से उनसे उनकी रचनाप्रक्रिया, उनके गद्य की भाषा में पश्चिमी प्रभाव आदि जैसे कुछ और सवाल पूछे जा सकते थे … उन्होंने अनुवाद का भी कुछ बढ़िया काम किया है और आहा जिंदगी में नई जान फूंकी है , नई ताजगी दी है , उनकी सम्पादकीय दृष्टि के बारे में भी कम से कम सवाल होना चाहिए था … अधूरा सा है यह साक्षात्कार .
प्रिय अरुण जी, अगर आपके पास पृथक से मेरे लिए कोई प्रश्नमाला हो तो आपका स्वागत है। मुझे उत्तर देकर प्रसन्नता होगी।
-सुशोभित
सुशोभित सिंह शक्तावत का बेहद स्पष्ट और सुसंगत साक्षात्कार पढ़ना अलग किस्म का अनुभव रहा।इसका श्रेय जितना सुशोभित को उतना ही पीयूष को भी देना होगा।
बहुत आभार आपका।
Sushobhit Sir. I am a big fan of your writing..Few months back u had some heated arguments with some extreme right wingers after u posted an article on Devi Sita..I loved that article but bcoz of the some people who think Lord Ram as only their private property u were very angry and wrote that u will never write in Hindi etc etc..I was deeply hurt by ur stance and asked u that if it is true than I will stop following u bcoz I like to read ur hindi articles more. But u blocked me after that. I guess now all that is sorted and u are back with ur beautiful writing in Hindi as earlier but I am still blocked 🙁 . Though I follow ur page and am able to read ur articles but I cant like or comment on them. Its my humble request to please unblock me. I am a big fan of ur writing.
I had blocked two Nidhis. Have unblocked both now. I hope you are one of them. Cheers!
Thanks a lot Sir!