गांधी के राम
हे अभिराम ! गांधी के हे राम !
“रक्षणाय मम रामलक्ष्मणा वग्रतः
पथि सदैव गच्छताम्”
कलियुग मनु कर रहा त्राहीमाम् ।
हे वनवासी, तपस्वी, अविराम ॥
काम, क्रोध, लोभ, मोह
ईर्ष्या- द्वेष, आलस्य, छल-हठ
मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार
किया वश में तूने, तब हुआ
अहंकारी रावण का संहार ॥
ये अभिराम ! गांधी के हे राम !
साकार बिस्मिल के नाम में तू
शहीदों के बलिदान में तू ,
मातृभूमि के अभिमान में तू,
राष्ट्र- रक्षा के सम्मान में तू
सरयू की धारा में अविराम ।
ये अभिराम ! गांधी के हे राम !
नर- नारी, जीवधारी, प्रकृतसारी
प्रतीक्षारत अहिल्या हारी,
जनक- उदास, करें आंदोलन भारी
जननी आँचल पसार विलाप रही,
जानकी हाय ! असहाय फिर है पुकारती
मेरे अभिराम ! हे राम राम !
असुर शक्तियाँ कर रही है नर्तन
असहाय लोक, निर्बल – निर्भया का मर्दन,
रावण-रावण, दशानन – दुर्जन
स्व- स्व, मैं-मैं में आत्मलीन मन,
अहम् अस्मि ! अहम् अस्मि….. छद्म- छद्म
व्याकुल, विचलित, द्वन्द्वग्रस्त अन्तर्मन ॥
हे मानव श्रेष्ठ ! हे मेरे सड़कवासी राम !
भीख की कटोरियों में, जूठे पत्तलों,
झोपड़ियों, कटरा- मण्डियों में राम !
पिता की हथेलियों के छाले में राम !
माँ की फटी एंड़ियों में राम !
सर्वव्यापी, धूल- धूसरित बालपन में राम ॥
वनवासी हे राम ! मनवासी हे राम !
शोणित में हुंकार, न्याय- धर्म- पुकार,
सरफरोशी का जूनून, अहिंसा और प्यार,
राम हृदय है, राम कर्म है, सत्य- चिरंतन
आचार- विचार- संस्कार है राम ।
अनुशासन है, सु-शासन है,
वैष्णव जन है राम ! राम !
“यतो धर्मस्ततो जयः”
संघर्ष और विजय है राम !
सत्य भी राम ! शिव भी राम !
सुंदरतम है नाम राम !
हे अभिराम ! गांधी के हे राम ! राम !
प्रो० डॉ० कंचन शर्मा, मणिपुर केंद्रीय विश्वविद्यालय
संप्रति- विजिटिंग प्रोफेसर, (आई.सी.सी.आर., हिन्दी चेयर)
भारत विद्या विभाग, सोफ़िया विश्वविद्यालय, बुल्गारिया
कंचन जी!कविता पढ़ी! कविता का शीर्षक अगर गाँधी के राम” है तो कविता में भी राम ही रहने देना चाहिए था “हे राम” नहीं। इस एक शब्द से कविता की गुणवत्ता में फर्क पड़ता सा लगा।
बोलने में लहजा बहुत मायने रखता है राम-राम सुबह के अभिवादन में भी बोलते हैं ।मन में शांति, सुकून और प्रणाम भाव का सुख व खुशी उसमें समाहित होती है।
बेचारगी में भी राम ….. राम कहते हैं उसमें अफसोस होता है। उच्चारण में और उसके लहजे में कहा राम अपने भिन्न-भिन्न अर्थों व भावों में उपस्थित हैं,यहाँ तक कि मृत्यु पर भी राम नाम सत्य है चलता है।
“हे राम” गाँधी जी का आर्तनाद था गोली लगने पर ,जैसे बच्चे तकलीफ में माँ को पुकारते हैं । वरना तो उनके राम भी सिर्फ राम थे।
ऐसा हम सोचते हैं। बाकी सर्वाधिकार के साथ रचना आपकी है।
आभार पुरवाई
मेम माफी चाहूँगी हे राम का अर्थ जो आप समझ रही हैं वह नहीं है, हर क्षेत्र के शब्दों और लेहजों की अलग महत्ता होती है पूर्वोत्तर भारत में ‘हे राम’ का अर्थ होता है मेरे प्यारे राम l
आपने राम की सर्वव्यापकता बतायी, दुःख सुख दर्द में उनकी आवश्यकता बताई। अच्छी लगी पंक्तियाँ लेकिन गांधी के राम से, कविता के कथ्य का क्या सम्बन्ध और आशय है, समझ नहीं सकी।
इस कविता में राम है, जो सबका राम है उसे “गांधी के राम” मात्र से परिभाषित करना कुछ समझ नहीं आया। गांधी और गांधी के हे राम को हटा दें -तो कविता अपना विस्तार हांसिल कर पाएगी!
संभव है आप कुछ और कहना चाहती हैं- जिसे मैं समझ नहीं पा रहा हूँ! क्षमाप्रार्थी हूँ।
फिर भी:
गांधी को फिर और कहीं और कभी!