‘कटहल’ फिल्म की कुल अवधि दो घंटे से भी कम है। इतने कम समय में जातिवाद-मर्दवाद जैसी तमाम बातों पर समाज-सुधार का संदेश देने के फेर में यह फिल्म अपने उस मूल मर्म से कट जाती है, जो कटहल चोरी के साथ जुड़ा होता है। परिणामतः जिस फिल्म में एक यादगार राजनीतिक कटाक्ष बनने की क्षमता थी, वो साधारण-सी टाइमपास फिल्म बनकर रह जाती है। बात वही है कि फिल्म निर्माताओं के पास कटहल का फल यानी मूल कांसेप्ट तो बढ़िया था, लेकिन अनावश्यक मसालों की छौंक ने सब्जी को बेकार करके रख दिया है। अंततः ये कटहल न ढंग का स्वाद देती है, न सेहत को ही इससे कोई लाभ है।

जब हम कोई सब्जी बनाते हैं, तो यह बात पहले ही हमारे दिमाग में होती है कि सब्जी की प्रकृति के अनुरूप कौन-सा मसाला कितना डालना है और कौन-से मसालों को नहीं डालना है। मसालों के सुचिंतित और संतुलित प्रयोग से ही कोई भी सब्जी स्वादिष्ट बनती है। लेकिन जब कोई नौसिखुआ हलवाई सब्जी बनाने बैठता है, तो उसके दिमाग में होता है कि जितने अधिक मसाले पड़ेंगे, सब्जी उतनी ही बढ़िया बनेगी। वो तरह-तरह के मसाले झोंककर डालता है। परिणामतः स्वाद और सेहत दोनों के लिए सब्जी बेकार साबित होती है। नेटफ्लिक्स पर आई यशोवर्धन मिश्रा की ‘कटहल : ए जैकफ्रूट मिस्ट्री’ के साथ भी यही हुआ है।
यह फिल्म जिस विषय के साथ जैसी शुरुआत लेती है, वो प्रभावित करता है। हम कभी पुलिस को नेताजी की भैंस खोजते देख चुके हैं, अतः फिल्म में विधायकजी के कटहल चोरी पर पुलिस की सक्रियता देखकर व्यंग्य की मारकता ही महसूस होती है, आश्चर्य नहीं होता। कटहल के प्रति विधायकजी के लगाव में राजनीतिक संभावना को जिस तरह शामिल किया गया है, वो सटीक लगता है। कटहल चोरी की घटना की प्रारंभिक जांच में जुटी पुलिस की गतिविधियाँ भी मजेदार बन पड़ी हैं।
यहाँ तक यह फिल्म एक राजनीतिक कटाक्ष की श्रेणी में जाती नजर आती है। लगता है कि यह कटहल की मिस्ट्री धीरे-धीरे किसी बड़े राजनीतिक ड्रामे का रूप लेगी जिसका क्लाइमेक्स दमदार होगा। लेकिन लगभग आधा घंटा बीतते-बीतते आपको समझ आने लगता है कि यह फिल्म तो किसी और ही दिशा में जा रही है। कटहल की जांच अपहरण की जांच में बदल जाती है और इसी क्रम में आप देखते हैं कि कभी यह फिल्म बड़े ही टिपिकल तरीके से जातिवाद की समस्या को उठाने लगती है, तो कभी उसी अंदाज में मर्दवाद पर चोट करने लग जाती है। और तो और, कामकाजी जीवन में पुरुष अहं को रेखांकित करने की कोशिश करने से भी यह फिल्म नहीं चूकती।

इन समस्याओं पर बात करने में हर्ज नहीं है, लेकिन जिस सतही और सरल ढंग से इस फिल्म में इन समस्याओं को दिखा दिया गया है, वो पूर्वाग्रह से प्रेरित और बनावटी लगता है। जातिवाद-मर्दवाद जैसे विषयों पर कलम चलाने वाले हिंदी फिल्मों के अधिकांश पटकथा लेखकों को यह बुनियादी बात जाने कब समझ में आएगी कि आज के भारत की कहानी, प्रेमचंद के जमाने में बैठकर नहीं लिखी जा सकती।
अभिनय की बात करें तो सान्या मल्होत्रा इंस्पेक्टर की भूमिका में प्रभावित करती हैं। विधायक के किरदार में विजय राज जब भी स्क्रीन पर आते हैं, महफ़िल लूट लेते हैं। पत्रकार की भूमिका में राजपाल यादव ध्यान खींचते हैं। अन्य किरदार भी अपनी भूमिकाओं में ठीकठाक ही लगते हैं। लेकिन रघुवीर यादव जैसे सक्षम और वरिष्ठ अभिनेता के हुनर को यह फिल्म जिस तरह बर्बाद करती है, वो देखकर बुरा लगता है।
‘कटहल’ फिल्म की कुल अवधि दो घंटे से भी कम है। इतने कम समय में जातिवाद-मर्दवाद जैसी तमाम बातों पर समाज-सुधार का संदेश देने के फेर में यह फिल्म अपने उस मूल मर्म से कट जाती है, जो कटहल चोरी के साथ जुड़ा होता है। परिणामतः जिस फिल्म में एक यादगार राजनीतिक कटाक्ष बनने की क्षमता थी, वो साधारण-सी टाइमपास फिल्म बनकर रह जाती है। बात वही है कि फिल्म निर्माताओं के पास कटहल का फल यानी मूल कांसेप्ट तो बढ़िया था, लेकिन अनावश्यक मसालों की छौंक ने सब्जी को बेकार करके रख दिया है। अंततः ये कटहल न ढंग का स्वाद देती है, न सेहत को ही इससे कोई लाभ है।
रेटिंग – 2.5 स्टार
उत्तर प्रदेश के देवरिया जिला स्थित ग्राम सजांव में जन्मे पीयूष कुमार दुबे हिंदी के युवा लेखक एवं समीक्षक हैं। दैनिक जागरण, जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला, नवभारत टाइम्स, पाञ्चजन्य, योजना, नया ज्ञानोदय आदि देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में समसामयिक व साहित्यिक विषयों पर इनके पांच सौ से अधिक आलेख और पचास से अधिक पुस्तक समीक्षाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। पुरवाई ई-पत्रिका से संपादक मंडल सदस्य के रूप में जुड़े हुए हैं। सम्मान : हिंदी की अग्रणी वेबसाइट प्रवक्ता डॉट कॉम द्वारा 'अटल पत्रकारिता सम्मान' तथा भारतीय राष्ट्रीय साहित्य उत्थान समिति द्वारा श्रेष्ठ लेखन के लिए 'शंखनाद सम्मान' से सम्मानित। संप्रति - शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय। ईमेल एवं मोबाइल - sardarpiyush24@gmail.com एवं 8750960603

2 टिप्पणी

  1. यह फिल्म देखने के लिए सोचा था लेकिन आपकी बेबाक समीक्षा से फिल्म की वस्तुस्थिति का भान हो गया है ।

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