यादें भी फूलों की तरह खिलती है, खुशबू बिखेरतीहै, फिर नए मोड़ पर आकर मुरझा जाती है. कभी यूं ही होता है कि अनगिनत फिजाओं के मौसम आकर चले जाते हैं पर उन फूलों पर कभी शबनम नहीं ठहरती.
2020 की पुरानी दहलीज की चौखट पर खड़े होकर मेरी सोच बीते हुए कल और आने वाले कल के झरोखों से झांकने की कोशिश करती है, पर 2021 की दहलीज पर एक बात परिपक्वता पाती रही है कि “कल आज और कल” का कालचक्र निरंतर चल रहा है और चलता ही रहेगा. परिवर्तन एक अटल सच्चाई है. ‘आज’ कल की खलाओं में धंस जाता है और आने वाला कल एक नया आज बनकर हमें अवसर प्रदान करता है-यही कि सोचो, समझो, अब भी वक्त है. जहां आज तुम हो वहां कल कोई और रहा, यह सिलसिला पानी की धार की तरह बिना रुके बहता है और बहता ही रहेगा.
तू धार है नदिया की मैं तेरा किनारा हूं तू मेरा सहारा है मैं तेरा सहारा हूं
दो पल के जीवन से एक उम्र चुरानी है जिंदगी और कुछ नहीं तेरी मेरी कहानी है.
आज मेरा मन भी तट पर है सामने खूंखार लहरें हैं तैरना आता नहीं, पार भी जाना है,
नौका जर्जर पुरानी है और मैं भी.
कई सुराखों वाली उस नौका का एक खिवैया भी है, बस इसी बात पर गौर करते हुए एक अटूट विश्वास के साथ रंगमंच पर हट कोई अपना अपना पार्ट अदा कर रहा है, मैं भी… कल मिलती हूँ… यह दावा नहीं कर सकती…
(सागर के तट पर )
यादों में वो बातें…..
आज की दिनचर्या शुरू हुई है एक कहानी से “बिल्ला नंबर 64”.
रमेश यादव जी की कलम की प्रतिभा कहूं या दक्षता, पर जो लिखा वह दिल की दीवारों पर उकेरा गया है. वे बीते पल जीवंत चलचित्र की मानिंद परिंदों की तरह फडफडाते हुए आज के दायरे में प्रवेश कर गए हैं.
इस कहानी ‘बिल्ला नंबर 64’ के लेखक साकेत सुमन शर्मा जी है, जिन्होंने इस कहानी के किरदार श्री आलोक भट्टाचार्य को संबोधित करते हुए उनको ‘महामानव’ की उपाधि से अलंकृत किया है. हमारे अतीत में ऐसे अनेक किस्से राजा महाराजाओं के दर्ज हैं, जिनमें सिकंदर का उल्लेख है, अशोक के ‘कालीना ‘ युद्ध की वारदातें हैं, उन योगी मुनियों की बातें हैं, कुछ मतलब की, कुछ बेमतलब की, पर पठनीय पर कोई रोक नहीं. जो अच्छा है ग्रहण कर लो जो नहीं उसे जाने दो.
साहित्य के मंच पर कहानी पर चर्चा हुई जा रही है, मैं भी ज़ामिन रही हूँ इस वारदात की, पर बाहरी रूप से मौन, पर मेरे भीतर कि मैंने खुद से बतियाती हुई बहुत कुछ कह रही है, हकीकत में वही तो है जो कलम से इस कागज पर अपनी बात रख रही है.
बात मुंबई की है… एक नहीं अनेक बार सांताक्रुज में भरी सभाओं में मिलना जुलना होता रहा, कभी अंधेरी के प्रांगण में अक्सर जाने पहचाने चेहरे, वही मुस्कान, वही औपचारिक बातचीत का आदान-प्रदान. पर आज साहित्य मंच पर उस कहानी में नई पुरानी तारों को छेड़ दिया.
अमर त्रिपाठी जी ने लिखा ‘आदमी गरीब हो कोई बात नहीं, रिश्ता अमीर होना चाहिए.’ यह कथन आज इस युग में एक कथा के रूप में स्वीकार्य है पर हकीकत में इसकी हामी भरना नामुमकिन है. इसके बारे में कभी विस्तार से लिखूंगी.
नातों में कुछ तकाज़े होते हैं, जो बनते बिगड़ते रिश्तों की याद से बहुत तकलीफ दे जाते हैं. ज़हन की भीतरी खलाओं में उनके ज़ख्मों के निशान उनकी बयानी जाहिर नहीं कर सकते. पर मन की भावनाएं जितनी भीतर में उमड़ती है उतनी ही बाहर भी. बस बाहर आंसू बहाकर अपने आने मनोभावों को व्यक्त करते है, कभी कुछ पढ़कर, कभी कुछ कहकर.
कुछ अहसासात जिंदगी के एक ही समय में खुशफहमी को महसूस करवा देते हैं, पर आगे चलकर उनके दबाव में आकर अपनी मन मर्ज़ी के खिलाफ न करने वाली बात करने को मजबूर हो जाते हैं. इसे गुलामी का नाम देना उचित होगा. इसके एवज एक जिंदगी नहीं उसके साथ जुड़ी अनेक जिंदगानियाँ डूबने की कगार पर आ जाती है.
मन भीगा है उस बंगाली बाबू की अपनाइयत भरी बातों की यादों से जो अक्सर मिलने पर कहते-‘देवीजी किसी रविवार आपके घर आऊँगा और सिन्धी कढी चावल का ज़ायका लूँगा.”
‘ज़रूर अलोक जी, और साथ में कीसरो भूंडी के लड्डू भी. आप दिन तय कर बताएं मैं चार-पांच और हस्तियों को भी दावत दूँगी.’