Saturday, July 27, 2024
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ओटीटी माध्यमों की बढ़ती अराजकता

भारत में वेब सीरीजों को लेकर अभी रचनात्मक ढंग से बहुत अधिक कुछ काम हुआ ही नहीं है। इसलिए यहाँ वेब सीरीज की सामग्री में बहुत विविधता नहीं मिलती है। ऐसे में, आवश्यकता है कि वेब सीरीज निर्माता अपराध-कथाओं या भूत-प्रेत की कथाओं के आसान तरीकों की लकीर का फ़कीर बनने की बजाय देश के विज्ञान, इतिहास, धर्म, दर्शन, साहित्य आदि क्षेत्रों से जुड़े विषयों पर पूर्वग्रहों से मुक्त रहते हुए पूरे शोध एवं प्रामाणिकता के साथ वेब सीरीजें लाने की दिशा में काम करें।

कोरोना काल में आपदा को अवसर बनाने की बातों के बीच ओटीटी माध्यमों के लिए यह आपदा बड़ा अवसर सिद्ध हो रही है। सिनेमाघर बंद होने के कारण मनोरंजन के लिए इंटरनेट पर सक्रिय एक बड़े तबके का रुझान इन माध्यमों की तरफ हुआ है। दर्शकों के इस रुझान का पूरा लाभ लेने के लिए ओटीटी माध्यम लगातार नयी-नयी सामग्री लाने में लगे हैं। हॉटस्टार, अमेज़न प्राइम, नेटफ्लिक्स, जीफाइव, वूट, सोनी लिव आदि अनेक ओटीटी माध्यमों पर एक तरह से वेब सीरीजों और फिल्मों की बाढ़-सी आई हुई है।
लेकिन सामग्री की इस अधिकता के बीच यदि उसकी गुणवत्ता पर गौर कर किया जाए तो स्पष्ट होता है कि इन ओटीटी सामग्रियों में स्वस्थ मनोरंजन की तुलना में सामाजिक-मानसिक विकृतियों का महिमामंडन और वैचारिक एजेंडों का निर्वहन अधिक है। एक वाक्य में इसे यूँ कह सकते हैं कि ओटीटी पर प्रसारित अधिकांश वेब सीरीजें पूरी तरह से भारतीयता की भावना के विरुद्ध और देश के जमीनी यथार्थ से कटी हुई हैं।
भारतीय वेब सीरीजों पर एक समग्र दृष्टि डालें तो प्रतीत होता है कि भारतीय वेब सीरीज निर्माता 2018 में आई वेब सीरीज सेक्रेड गेम्स के प्रभाव से अबतक बाहर नहीं आ पाए हैं। यही कारण है कि आपको अधिकांश भारतीय वेब सीरीजें अपराध-कथाओं पर आधारित मिलेंगीं क्योंकि ऐसी कथाओं में गाली-गलौज, हिंसा और सेक्स दृश्यों को रचने की भरपूर संभावनाएं होती हैं। साथ ही, सनातन प्रतीकों का अपमान भी ऐसी अपराध-कथाओं का हिस्सा बन चुका है।
हाल में आई ‘पाताल लोक’ वेब सीरीज इसका ताजा उदाहरण है, जो ध्यान से देखने पर सेक्रेड गेम्स की लकीर को ही बढ़ाती नजर आती है।  कोरोना काल में ही प्रसारित हुई ‘रसभरी’ नामक वेब सीरीज में भी हिन्दू प्रतीकों के मखौल के साथ-साथ स्कूली छात्रों के आपसी संबंधों तथा अपनी शिक्षिका के साथ उनके संबंधों को जैसे दिखाया गया है, वो बेहद आपत्तिजनक लगता है। शिक्षिका का जो चरित्र-चित्रण इसमें हुआ है, वो देश भर की शिक्षिकाओं का अपमान करने वाला तो है ही, नारी विरोधी भी है।
तिसपर एक बाल कलाकार से जैसा नृत्य इसमें कराया गया है, वो शर्मनाक और आपत्तिजनक है। हो सकता है कि ऐसी विसंगतियां समाज में यदा-कदा घटित होती हों, लेकिन एक सभ्य समाज में इनके प्रति विरोध की भावना होनी चाहिए, न कि ऐसी वेब सीरीज बनाकर इनका महिमामंडन किया जाना चाहिए। जब-तब स्त्री-अस्मिता की पैरोकार बनने वाली स्वरा भास्कर ने ऐसी वेब सीरीज में काम करके स्त्री के सम्मान को कौन-सी ऊंचाई दी है, यह उन्हें बताना चाहिए। ऐसे ही गिनवाने को फोर मोर शॉट्स प्लीज़, असुर, रक्तांचल, लाल बाजार, माफिया जैसी हाल में आई तमाम वेब सीरीजें हैं, जिनमें अश्लीलता, हिंसा, गाली-गलौज आदि अस्वास्थ्यकर तत्वों की मौजूदगी देखी जा सकती है।
इन वेब सीरीजों के निर्माता-निर्देशकों का तर्क होता है कि वे यथार्थ दिखा रहे हैं। एकबार के लिए यदि इसे यथार्थ मान लें तो भी यह तथ्य रेखांकनीय है कि सिनेमा कलात्मक माध्यम है, जिसकी सफलता इसमें है कि क्रूर से क्रूर यथार्थ को भी ऐसे कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया जाए कि दृश्य अपनी पूरी संवेदना के साथ प्रस्तुत भी हो जाए और देखने वाले को कुछ असहज या आपत्तिजनक भी न लगे।
पुरानी फिल्मों में फिल्माए जाने वाले अंतरंग रुमानी दृश्य या बलात्कार के दृश्य इसका उदाहरण हैं, जिनमें संबंधित व्यक्तियों की एक झलक देने के बाद कैमरा बंद दरवाजे, बुझती लालटेन, बहती नदी, चलते पंखे, खुली खिड़की या किसी अन्य वस्तु की तरफ घूम जाता था और संगीत के माध्यम से पार्श्व में हो रही क्रिया का आभास दर्शक को दिया जाता था। हत्या आदि के दृश्यों का भी फिल्मांकन ऐसे किया जाता था कि वो देखने में वीभत्स न लगे। वास्तव में इसे ही कला कहते हैं। फिर आज के इस तकनीक संपन्न समय में ऐसे दृश्यों को फिल्माने के लिए ऐसे कुछ नए सांकेतिक तरीके क्यों नहीं इजाद किए और अपनाए जा सकते? बेशक किए जा सकते हैं, मगर नियमन के अंकुश से मुक्त जो वेब सीरीज निर्माता अभिव्यक्ति की अराजकता को ही कला मान चुके हैं, उनसे ऐसी उम्मीद करना बेमानी है।
दरअसल भारत में वेब सीरीजों को लेकर अभी रचनात्मक ढंग से बहुत अधिक कुछ काम हुआ ही नहीं है। इसलिए यहाँ वेब सीरीज की सामग्री में बहुत विविधता नहीं मिलती है। ऐसे में, आवश्यकता है कि वेब सीरीज निर्माता अपराध-कथाओं या भूत-प्रेत की कथाओं के आसान तरीकों की लकीर का फ़कीर बनने की बजाय देश के विज्ञान, इतिहास, धर्म, दर्शन, साहित्य आदि क्षेत्रों से जुड़े विषयों पर पूर्वग्रहों से मुक्त रहते हुए पूरे शोध एवं प्रामाणिकता के साथ वेब सीरीजें लाने की दिशा में काम करें।
किसी वैज्ञानिक विषय को कहानी की शक्ल में ढालकर मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है, इतिहास के अनकहे किस्सों को बताया जा सकता है और साहित्य की विभूतियों पर भी वेब सीरीज लाई जा सकती है। संभावनाएं बहुत हैं, बस करने की इच्छा और नीयत चाहिए। इस तरह की चीजें आने से न केवल देश में ओटीटी माध्यमों की सामग्री की गुणवत्ता में सुधार होगा, बल्कि उनमें विविधता भी आएगी तथा उनके दर्शक-वर्ग का भी विस्तार होगा। साथ ही, ओटीटी माध्यमों की सामग्री पर इतने सवाल भी नहीं उठेंगे जिससे उनके विनियमन, जिसका संकेत सरकार दे रही है, के दायरे में आने का खतरा भी कम होगा।
ओटीटी के खिलाड़ी यदि इन बातों को देखते हुए अपनी वेब सीरीजों में यथोचित सुधार लाते हैं तो ठीक, अन्यथा वो दिन दूर नहीं जब यह माध्यम भी संस्थागत निगरानी में आ जाएंगे और तब इसके धुरंधरों के पास ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन’ का रोना रोने के सिवाय और कुछ नहीं बचेगा।
पीयूष कुमार दुबे
पीयूष कुमार दुबे
उत्तर प्रदेश के देवरिया जिला स्थित ग्राम सजांव में जन्मे पीयूष कुमार दुबे हिंदी के युवा लेखक एवं समीक्षक हैं। दैनिक जागरण, जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला, नवभारत टाइम्स, पाञ्चजन्य, योजना, नया ज्ञानोदय आदि देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में समसामयिक व साहित्यिक विषयों पर इनके पांच सौ से अधिक आलेख और पचास से अधिक पुस्तक समीक्षाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। पुरवाई ई-पत्रिका से संपादक मंडल सदस्य के रूप में जुड़े हुए हैं। सम्मान : हिंदी की अग्रणी वेबसाइट प्रवक्ता डॉट कॉम द्वारा 'अटल पत्रकारिता सम्मान' तथा भारतीय राष्ट्रीय साहित्य उत्थान समिति द्वारा श्रेष्ठ लेखन के लिए 'शंखनाद सम्मान' से सम्मानित। संप्रति - शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय। ईमेल एवं मोबाइल - [email protected] एवं 8750960603
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