1- ख़ुदगर्ज़
जब-जब !
पाती हूँ ख़ुद को
आधी-अधूरी
बुझी और थकी सी
तब-तब !
कुछ यादें ले जाती है
वापस ,वहीं
तुम्हारे उस मकान में
जहाँ ,
न जाने कितनी छूट गयी हूँ मैं
और कितनी बिखरी सी पड़ी हूँ
यहाँ-वहाँ
इधर-उधर …!!
यूँ तो !
चलते वक़्त
समेटा था मैंने भी
बहुत कुछ
लेकिन नहीं जानती थी
कि !
अधिक से अधिक
तुमसे जुड़ी यादों
और
तुम संग बिताये पलों को
समेटने की जद्दोज़हद में
कितना खुद को छोड़े जा रही हूँ …!!
इस छूटने और समेटने को हमने
अपनी-अपनी सुविधा और ख़ुदगर्ज़ी के चलते
दे दिया था नाम मजबूरियों का
लेकिन !
न तो तुम समझ पाये
और न ही मैं समझ पायी
कि
दरअसल ….ये मजबूरियाँ
महज़ मजबूरी न होकर
इक सज़ा थीं
सपनों के उस आशियाँ के लिये
जिसे हमने मिलकर कभी
घर बनाया था ….!!!
2- जाल
वो बहेलिया था
जन्म से नहीं मानसिकता से
जाल बिछाना उसकी जरूरत है
या फ़ितरत ,
या शायद कुंठित कामनाओं का जरिया मात्र
क्या है , नहीं मालूम