ऐ नदी तुम कितनी महान हो…
कैसे सहती हो इतनी पीड़ा! 
कहां ऊंचे पहाड़ों से निकलती
ऊबड़-खाबड़ रास्तों से बहती
पत्थरों के बीच से बचती, टकराती
दिन रात बहती रहती हो
अपने ही में मगन।
विशाल समुंदर में मिल कर
खो देती हो… अपना अस्तित्व!
कितना समर्पण है तुझ में
बहती रहती हो
चुपचाप
बिना किसी को कुछ कहे।
दुख और सुख
जीवन के दो पहलू
जैसे रात के बाद
दिन को आना ही है।
अंधेरी रात के बाद
जब होता है दिन का उजाला
सूरज की किरणों की रोशनी
देती है… जीने का नया मकसद! 
जीवन का एक-एक पल
जीना चाहती हूं
तुम्हारी तरह…
मिल जाना चाहती हूं
अपने समुंदर में
एक समर्पण की तरह!

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