मैं अकसर बालकनी में बैठता हूं निहारता हूं प्राकृतिक आभा सामने हरे-भरे पहाड़ों की चोटियां हैं नीचे कहरी हरियाली घाटियां कहीं चीड़ के पेड़ों की कतारें हैं कहीं पहाड़ी खेती के नज़ारे हैं।
यहां बादल अठखेलियां करते हैं कभी पहाड़ों को ढंक लेते हैं कभी घाटी में सो जाते हैं कभी रुई के फाहे से लगते हैं कभी गाड़ी सी छुकछुक करते हैं फिर धुएं में बिखर जाते हैं।
कभी काली घटा छा जाती है कभी बिजली चमकने लगती है कभी छम-छम वर्षा होती है घाटी संगीतमयी हो जाती है बड़ा प्राकृतिक नज़ारा होता है मन आत्मविभोर हो जाता है।
2 – मृत्यु
हां ! तुम्हारी प्रेमिका हूं मैं ज़िन्दगी की संध्या में लंबे सफ़र के बाद जब थक जाते हो तुम पीड़ा से कराह उठते हो जर्जर शरीर का बोझ उठा नहीं पाते हो…
तुम्हें मिलने को आती हूं मैं… आग़ोश में भर कर संग ले जाती हूं। संवारती हूं, निहारती हूं तुम्हारे अगले सफ़र के लिये फिर विदा होती हूं।
ज़िन्दगी के हर मोड़ पर ऐसे हम मिलते हैं फिर मिलने का वादा लि हर बार बिछड़ते हैं!