कौन हूं ? क्या हूं ? जैसे प्रश्नों से जूझती हूं अपने वजूद को खोजती हूं स्त्री हूं मैं…..
मेरे रूप हैं अनेक कभी मां बहन बेटी तो कभी सहचरी की भूमिका निभाती हूं सुख हो या दुख हे! पुरुष मैं तेरा साथ निभाती हूं स्त्री हूं मैं……
तेरे वजूद से भी अलग है मेरी पहचान घर हो या बाहर दोहरी जिम्मेदारी निभाती हूं तेरी कंधे से कंधा मिलाकर चलती जाती हूं फिर भी वह मान सम्मान नहीं पाती हूं जिसकी मैं अधिकारी हूं जो तुम्हें सहज में ही मिल जाता है स्त्री हूं मैं……
कोमल हूं कमजोर नहीं फिर भी ‘तुम्हारे बस की बात नहीं’ कह कर नकारी जाती हूं तुम यह रहने दो कहकर हमें रोका जाता है बार-बार हमें टोका जाता है तुम ये नहीं कर सकती तुम वो नहीं कर सकती कह कर हमें कम आंका जाता है हमारी योग्यता को रूप – रंग नाक – नक्श के पैमाने पर मापा जाता है तुम काली हो , तुम नाटी हो या फिर तुम मोटी हो कहकर हमारा आत्मविश्वास तोड़ा जाता है हमारी बुद्धि हमारी प्रतिभा को देह के आकार से नापा जाता है स्त्री हूं मैं…..
सारे संसार की जननी हूं सिंधु सा विशाल है ह्रदय हमारा फिर भी बार-बार हमें हमारी सीमाएं बताई जाती हैं जो बनी हैं आसमान में उड़ने को परिंदों की तरह उसे जमीन पर घसीटा जाता है पशुओं की तरह स्त्री हूं मैं……
दर्द का दरिया हूं बहती चली जाती हूं सबसे अपने पीड़ा कहती चली जाती हूं मेरी भावनाओं को कोई समझे या न समझे बताती जाती हूं आशाओं के दीप जला जाती हूं स्त्री हूं मैं……