यात्रा कोई सी हो ,
या कहीं की भी हो ,
करनी ही पड़ जाती है ,
तैयारियाँ बहुत सारी !
जब छोटे थे खिलौने ,
सम्हालते ,थोड़े बड़े हुए
तो थामा किताबों का हाथ ,
बस यूँ ही बदलते रहे ,
यात्रा के सरंजाम …..
अब जब अंतिम यात्रा की ,
करनी है तैयारी ,विचारों ने
उठाया संशय का बवंडर !
सबसे पहले सोचा ,ये
अर्थी के लिए सीढ़ी
या कहूँ बांस की टिकटी,
ये ही क्यों चाहिए…….
शायद इस जहाँ से
उस जहाँ तक की
दूरी है कुछ ज्यादा …
क़दमों में ताकत भी
कम ही बची होगी ,
परम सत्ता से मिलने को
सत्कर्मों की सीढ़ी
की जरूरत भी होगी !
ये बेदाग़ सा कफ़न ,
क्या इसलिए कि ,
सारा कलुष ,सारा विद्वेष
यहीं छूट जाए ,साथ हो
बस मन-प्राण निर्मल,
फूलों के श्रृंगार में ,
सुवासित हो सोलह श्रृंगार !
अँधेरे पथ में राह दिखाने ,
आगे-आगे बढ़ चले ,
ले अग्नि का सुगन्धित पात्र !
परम-धाम आ जाने पर ,
अंतिम स्नान क़रा ,
अंतिम-यात्रा की ,अंतिम
धूल भी साफ़ कर दी !
सूर्य के अवसान से पहले ,
अग्नि-दान और कपाल-क्रिया ,
भी जल्दी कर ,लौट जाना ,
निभाने दुनिया के दस्तूर !
मैं तो उड़ चलूंगी धुंएँ के ,
बादल पर सवार ,पीछे
छोड़ अनगिनत यादें ….
आज से सजाती हूँ ,
अपनी बकुचिया ,तुम तो
सामान की तलाश में ,
हो जाओगे परेशान ……
चलो ,जाते-जाते इतना सा
साथ और निभा जाऊँ ,
अपनी अंतिम पोटली बना ,
अपना जाना कुछ तो ,
सहज बना जाऊँ