ख़ामोशी पसरी दिलों पर अजनबीयत का डेरा है
सच्चे हमदम हमराज़ कहां यहाँ स्वार्थ का फेरा है
रही नहीं खुद्दारी अब तो गद्दारी का आया पहर है
यूं हरे-भरे सावन को अब सैलाबी तूफ़ां का डर है
हुकूमत जनहित में है तो जन-गण-मन में सवेरा है
खामोशी पसरी दिलों पे अजनबीयत का ये डेरा है
धरा के सीने पर हरओर ज़हरीली हवा का मेहर है
बोलबाला है बेईमानों का गिरता ईमान पे क़हर है
खो गए कहीँ मानवीय मूल्य इन्हें कोई कब हेरा है
सच्चे हमदम हमराज़ कहां यहां स्वार्थ का फेरा है
वो रौनक कहां है गुलशन में क्यों आती नहीं बहारें
लोग हुए हैं शहरी बाबू घर बाग बगीचे कौन सवांरे
विश्वास मे लेकर दे प्यार में धोखा हरओर अंधेरा है
सच्चे हमदम हमराज़ कहां हैं यहां स्वार्थ का फेरा है
बारहों महीने ख़िजा का मौसम लेता रहे अंगड़ाई
बेलगाम हसरतें हुई जन-जीवन में आयी रुसवाई
सब कुछ छोड़ जाना यहीं है पर लोग कहें ये मेरा है
सच्चे हमदम हमराज़ कहां हैं यहां स्वार्थ का फेरा है
तिकड़मी राजनीति में जिसकी है लाठी उसकी भैंस
जो नाचे गाये तोड़े तान जहाँ में हैं बढ़ते उसके फैंस
जो यूं ही होता है उत्पन्न उसको लोग कहें लमेरा है
सच्चे हमदम हमराज़ कहाँ हैं यहां स्वार्थ का फेरा है